बद्री नारायण

भारतीय समाज और राजनीति के लिहाज से 1990 के दशक के अंत में एक बड़ी घटना घटित हुई। यह घटना मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के तौर पर सामने आई थी। इस घटना ने समाज में एक उबाल सा ला दिया था। समुद्र मंथन की तरह का एक सामाजिक मंथन हुआ, जिसमें अमृत भी निकला और विष भी। अमृत और विष का प्रतीक इसकी पक्षधर और विरोधी शक्तियां बनीं। मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद समाज में जहां पिछड़ी और दलित जातियों में आगे बढ़ने का नया विश्वास पैदा हुआ वहीं इसके विरुद्ध में खड़ी सामाजिक ताकतोंं में निराशा का भाव पैदा हुआ। समाज एक तरह से दो भागों में बंट गया। इसे यूं भी कह सकते हैं कि वह कई भागों में विभाजित हो गया। जातियों में आपसी कलह, टकराहट, हिंसा एवं संघर्ष का सामाजिक भाव पैदा हुआ। इस प्रकार इससे अमृत और विष दोनों निकले। भारतीय समाज की पिछड़ी और दलित जातियों के लिए अमृत के रूप में एक नई आस पैदा हुई। उनकी नई राजनीति विकसित हुई। उनकी अस्मिता बलवती हुई परंतु इसी के साथ धीरे-धीरे पिछड़ों एवं उपेक्षित सामाजिक समूहों में एक क्रीमीलेयर बनने लगी। यह एक प्रकार से इन समूहों के लिए अपने ही नाभिकुंड में विष के निर्माण की प्रक्रिया का गतिमान होना था। यह क्रीमीलेयर न केवल क्रीमीलेयर बना रहा, बल्कि वह इन समूहों में ऐसे शंकुलों में बदल गया जो दूसरों के हिस्से के शहद एवं अमृत को अपने में शोषित करते जा रहे थे। इस सिलसिले में अंबेडकर की बात याद करें तो ऐसे लोग अपने ही समाज को ‘पे बैक’ नही करते।
सामाजिक प्रक्रिया में एक और घटना यह घटी कि इन समूहों में जो लोग आरक्षण व्यवस्था का लाभ उठाने में अक्षम रहे उनमें अपने ही समाज के सहजातीय ‘अभिजात्य’ एवं क्रीमीलेयर्स के प्रति ईष्या का भाव भी पैदा हुआ। चूंकि जिस अभिजात्य के प्रति उनमें द्वेषभाव पैदा हुआ वही अभिजात्य उनकी राजनीति भी कर रहा था इसलिए उसके खिलाफ उसी समाज के एक भाग की गोलबंदी की संभावना बनी। इसका ही लाभ पिछले चुनाव में भाजपा को मिला। मंडल राजनीति ने ‘जातीय अस्मिता’ की राजनीति को मजबूत किया। मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, कांशीराम, मायावती इत्यादि ‘अस्मिता’ की मंडल राजनीति जनित माहौल एवं खाद-पानी की ही पैदाइश रहे। इनमें से कई ने बाद में सर्वसमाज और विकास जैसी राजनीतिक भाषा से अपने को जोड़ा, परंतु उनका आधार जातीय अस्मिता पर आधारित रहा। मंडल ब्रांड राजनीति ने मंडल स्मृति पैदा की। इसको जगाकर पिछड़ी एवं दलित जातियों के एक बड़े भाग को जोड़ा जा सकता था, लेकिन मंडल की काट में कमंडल की राजनीति विकसित हुई। उत्तर प्रदेश के हालिया विधानसभा चुनावों के नतीजों से यह जाहिर होता है कि ‘पोस्ट मंडल’ सामाजिक गठबंधन की शुरुआत हो चुकी है। इसमें उपेक्षित समूह अपने ही अभिजात्य के खिलाफ जातीय आह्वान से पृथक होकर वोट देते दिखा। ऐसा लगता है कि मंडल की स्मृति अब धुंधली होने लगी है। उसे जगाने एवं फिर से उकेरने के लिए जो नेतृत्व पिछड़ी एवं दलित जातियों में था वह या तो इस स्मृति को ठीक से जगा नहीं पाया या यूं कहें कि उसे बिहार में लालू यादव की तरह प्रभावी राजनीति में बदल नही पाया।
उत्तर प्रदेश में ‘एक नया समाज’ बन रहा है जो पोस्ट मंडल समाज है जिसमें न मंडल आधारित राजनीति प्रभावी दिख रही है और न ही कमंडल आधारित राजनीति। उत्तर प्रदेश चुनाव में गोलबंदी के लिए जहां रामजन्म भूमि की स्मृति कहीं-कहीं इस्तेमाल होती रही वहीं शमशान-कब्रिस्तान जैसे मुद्दे भी देखने-सुनने को मिले, परंतु इन दबे-छिपे मुद्दों के ऊपर महिलाओं, युवाओं, किसानों, गरीबों की ‘वर्गीय गोलबंदी’ भी बनती दिखाई पड़ी। रोचक यह है कि इस जाति मुक्त सामाजिक समूह में पहले वामपंथियों एवं सामाजिक विमुक्ति के एजेंडे पर काम करती कांग्रेस से लाभान्वित होने की आकांक्षी थी। अब वह ‘राइटिस्ट’ कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी की ओर आशा से देख रहा है।
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम महिलाएं जिस तरह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पास अपनी तलाक संबंधी समस्याओं को लेकर पहुंच रही हैं क्या उससे यह जाहिर नही होता कि ‘तीन तलाक’ जैसे मुद्दों ने मुस्लिम महिलाओं कोे भाजपा की ओर खींचा होगा?
2014 के चुनाव में जिस ‘एस्पीरेशनल कम्युनिटी’ के बनने की चर्चा हुई थी हो सकता है कि 2017 के चुनाव में उसी एस्पीरेशनल कम्युनिटी का विस्तार हुआ हो। यह भी हो सकता है कि एक नई सामाजिक गोलबंदी जातीय अस्मिता से अलग-हिंदुत्व, विकास की चाह, विकास जनित ईष्र्या, उपेक्षा भाव, इन सबको मिलाकर बन रही हो। इसे शायद अभी कोई नाम देना जल्दबाजी होगी, किंतु बाजार, तकनीक, मोबाइल, टेलीविजन, सूचनाओं का अबाध आदान-प्रदान, बेहतर जीवन की चाह आदि सब मिलकर ऐसे सामाजिक समूहों का निर्माण कर रहे हैं जिनके लिए पारंपरिक अस्मिताएं अप्रासांगिक होती जा रही हैं। यह भी कहा जा सकता है कि पारंपरिक अस्मिता एक नया अर्थ लेकर नई गोलबंदी का कारण बन रही है। उत्तर प्रदेश के हाल के चुनाव में सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल जैसे जातीय आधार मत वाले राजनीतिक दलों ने सत्ता में भागीदारी की नई चाह के तहत बसपा जैसी दलित आधार वाली पार्टी से अलग होकर भाजपा के साथ हाथ मिलाया। ध्यान रहे कि अपना दल में प्रभावी कुर्मी मतदाता उत्तर प्रदेश में एक लंबे समय तक कांशीराम के नेतृत्व में बसपा से जुड़े रहे। अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल कांशीराम के सहयोगी ही थे। इसी तरह सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी भी बसपा से निकली ही है।
बिहार में जहां विकास की चाह के साथ मंडल स्मृति के तहत आरक्षण का मुद्दा, पिछड़ों एवं दलितों की गोलबंदी का कारण रहा वहीं उत्तर प्रदेश में पोस्ट मंडल पॉलिटिक्स बनती दिखी। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उभरे इस ‘नए बन रहे आकांक्षापरक समाज’ ने जातियों की पारंपरिक अस्मिता को तोड़कर और उसमें नए अर्थ देकर नए गठबंधन बनाए। वहीं बिहार में पिछड़ों एवं उपेक्षितों ने नए विकास की चाह रखते हुए भी मंडल राजनीति से उभरे नेताओं एवं उनकी राजनीति पर ही विश्वास जताया। यह एक ऐसा अंतर्विरोध है जिसका समाधान आसान नहीं है। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि भारतीय समाज एक ऐसे संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, जिसमें बहुल आवाजें अपनी-अपनी पुकार अपने -अपने ढंग से लगा रही हैं। साथ ही अनेक तरह के सामाजिक भावों के अनेक तल समाज में एक दूसरे के ऊपर इकट्ठे होकर जमा हो रहे हैं। इनमें से कौन सा सामाजिक भाव राजनीति में कब महत्वपूर्ण हो जाएगा, यह सामाजिक परिस्थिति के साथ-साथ सामाजिक नेतृत्व की शक्ति पर भी निर्भर करेगा। अब यह देखना यह है कि अभी मोदी जी एवं योगी जी का सामाजिक नेतृत्व इस नए बन रहे समाज के बनने की प्रक्रिया में क्या भूमिका निभाता है?
[ लेखक समाज विज्ञानी एवं गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में प्रोफेसर हैं ]