ज्ञान, विचार, सत्कर्म, सदाचरण आदि कार्य के लिए निरंतर जागरूक और सचेत रहने की बात मनीषियों ने कही है। जैसे आईने पर निरंतर धूल जमती है और उसे निरंतर साफ करना पड़ता है उसी प्रकार उक्त कार्यों पर देश-काल-परिस्थिति के अनुसार प्रतिकूल असर पड़ता है। अच्छे शास्त्र निरंतर पढ़ते रहने से एक तो ज्ञान ताजा बना रहता है और वक्त-जरूरत पर उसका उपयोग होता रहता है। कोई युग रहा हो, बहुत से उदाहरण हैं कि अनेकानेक देवता, ऋषि, मुनि अपने आदर्श से विचलित हुए हैं। तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना करते समय सात कांडों में पांचवें कांड का नाम सुंदरकांड का नामकरण इसीलिए करने का निर्णय लिया कि इसमें ही नकारात्मकता की प्रतीक लंका पर आक्रमण की योजना है। ज्ञानियों में अग्रणी हनुमान जी नकारात्मकता के केंद्र पर हमला करते हैं। 60 चौपाइयों में 30 तक हनुमान जी लंका में नकारात्मकता और भौतिक प्रवृतियों को जलाने का संघर्ष करते हैं और उसके बाद उस नकारात्मक लंका की सारी गतिविधि की जानकारी मर्यादा के प्रतीक श्रीराम को 31वीं चौपाई के बाद से देते हैं और उस लंका की ओर आदर्श और सदाचरण के कदम श्रीराम बढ़ाने का निर्णय लेते हैं। इस प्रकार इस कांड में नकारात्मकता के खिलाफ सकारात्मक संघर्ष की योजना समाहित है।
हर व्यक्ति यदि निरंतर इस दिशा में सचेष्ट रहे तो वह समाज के लिए आदर्श बन जाएगा। पांचवां कांड सुंदरकांड के होने के पीछे यह भी मनोविज्ञान है कि मनुष्य की पांच ज्ञानेंद्रियां ही उसके मन- मस्तिष्क पर अपना प्रभाव डालती हैं। दृश्य, श्रवण, गंध, स्वाद और स्पर्श से ही अनुकूल-प्रतिकूल असर जीवन पर पड़ता है। इसलिए आंख, कान, नासिका, जिह्वा, स्पर्श के मामले में हमेशा सजग रहना चाहिए। अवांछित सुख और आनंद तो अस्थायी है, लेकिन उसका विपरीत असर दूरगामी प्रभाव डालता है। लंबे दिनों की यश-कीर्ति पर आंच आती है। खुद व्यक्ति हमेशा भयाक्रांत रहता है। जिससे उसके स्वास्थ्य पर तो असर पड़ता है और आत्मबल भी कमजोर होता है। अच्छे कामों की चर्चा समाज में देर से होती है। कभी-कभी व्यक्ति के जीवन में नहीं, बल्कि उसके जीवन के अंत होने के बहुत बाद होती है, लेकिन खामियों की चर्चा संक्रामक रोग की तरह फैलती है। जगह-जगह सफाई देनी पड़ती है। इसलिए व्यक्ति को निरंतर नकारात्मकता के खिलाफ सजग रहना चाहिए।
[ सलिल पांडेय ]