राजीव सचान

लोकसभा चुनाव के बाद जब नीतीश कुमार और लालू यादव ने हाथ मिलाया था तब हर किसी को यह स्पष्ट था कि इन दोनों नेताओं ने भाजपा का मुकाबला करने और अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाए रखने के लिए ऐसा किया है। दोनों नेताओं को इसका लाभ भी मिला और कांग्रेस के साथ उनका महागठबंधन विधानसभा चुनाव में भाजपा का विजय रथ रोकने में सफल रहा। इस महागठबंधन के समक्ष यह पहले दिन से स्पष्ट था कि मुख्यमंत्री पद के दावेदार नीतीश कुमार ही होंगे। इस गठबंधन की सफलता के बाद से ही इसी की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ बनाने की कवायद चल रही है। इस कवायद ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद और गति पकड़ी है। हाल में ऐसे संकेत उभरे हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश भी हाथ मिला सकते हैं। हालांकि मुलायम सिंह ने ऐसी किसी संभावना को खारिज किया है, लेकिन उनकी आपत्ति का कोई मोल नहीं दिख रहा। चूंकि भारतीय राजनीति में कुछ भी हो सकता है और अतीत में जयप्रकाश नारायण की पहल पर और वीपी सिंह के नेतृत्व में राजनीतिक दल कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो चुके हैं इसलिए वे भाजपा के भी खिलाफ हो सकते हैं। इस संभावना के साकार होने में कोई समस्या है तो यही कि ऐसे किसी गठबंधन का नेता कौन होगा? प्रधानमंत्री पद पर जिन नेताओं की निगाहें लगी हुई हैं उनमें नीतीश कुमार सबसे आगे गिने जा रहे हैं, लेकिन इसमें संदेह है कि बाकी दावेदार और खासकर ममता बनर्जी उन्हें स्वीकार कर लेंगी। संदेह इसमें भी है कि लालू यादव नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनता हुआ देखना पसंद करेंगे। हां, अगर उनके बेटे को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल जाए तो वह नरम पड़ सकते हैं, लेकिन आखिर नीतीश कुमार पीएम पद हाथ आए बिना मुख्यमंत्री की कुर्सी क्यों खाली करेंगे? सवाल यह भी है कि कांग्रेस यह क्यों चाहेगी कि जिस गठबंधन में वह शामिल हो उसका नेता राहुल गांधी के अलावा और कोई हो? इन सवालों से भी बड़ी एक समस्या यह है कि भाजपा के खिलाफ उसके विरोधी दलों का गठबंधन किस बुनियाद पर खड़ा होगा? भाजपा को रोकना एक आधार हो सकता है, लेकिन क्या इतने मात्र से आम जनता इस गठबंधन की ओर खिंची चली आएगी?
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे यह बता रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर है। उत्तर प्रदेश की जीत के बाद भाजपा के लिए गुजरात की चुनौती और आसान नजर आने लगी है। भाजपा के रुख-रवैये से यह स्पष्ट है कि वह मौजूदा माहौल को बनाए रखने के लिए कमर कसे हुए है। यह समझना कठिन नहीं कि भाजपा विरोधी राजनीतिक दल अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए बेचैन हैं और यही बेचैनी उन्हें एक साथ आने के लिए विवश कर रही है, लेकिन आम जनता को इन दलों की बेचैनी से कोई मतलब नहीं। वह महज उनकी बेचैनी खत्म करने के लिए उनके साथ खड़ी होने से रही। 1977 और 1989 में कांग्रेस के खिलाफ गोलबंद हुए राजनीतिक दलों की सफलता का कारण उनका एकजुट होना नहीं, बल्कि तत्कालीन सरकारों के खिलाफ नाराजगी थी। तब कांग्रेस विरोधी दलों ने आपातकाल के अत्याचारों और बोफोर्स कांड को भुनाया था। आज यक्ष प्रश्न यह है कि वे भाजपा के खिलाफ क्या भुनाएंगे? क्या नोटबंदी को या फिर इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में छेड़छाड़ को? नोटबंदी के बाद लगभग सभी विरोधी दलों ने उसके खिलाफ रुदन किया था। वे सड़कों पर भी उतरे थे और राष्ट्रपति के पास भी गए थे। ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल तो नोटबंदी के खिलाफ करीब-करीब बौरा से गए थे। केजरीवाल नोटबंदी को घोटाला बताने में लगे हुए थे और ममता बनर्जी दिल्ली, पटना और लखनऊ की दौड़ लगाकर राष्ट्रीय नेता बनने को आतुर थीं। वह इतनी उतावली थीं कि उन्होंने नोटबंदी का समर्थन करने वाले नीतीश कुमार को गद्दार तक बता दिया था। नोटबंदी के फैसले के अमल में जैसी समस्याएं सामने आईं उन्हें देखते हुए मोदी सरकार के इस फैसले के विरोध का तो थोड़ा-बहुत औचित्य बनता था, लेकिन यह समझना कठिन है कि विरोधी दल ईवीएम के खिलाफ क्यों मोर्चा खोले हुए हैं? ईवीएम आधारित चुनाव प्रक्रिया के बल पर सत्ता तक पहुंचने वाले राजनीतिक दल अब किस मुंह से आम जनता को यह समझाने में लगे हुए हैं कि उनकी पराजय ईवीएम के कारण हुई?
भाजपा के खिलाफ एकजुट होने के लिए ईवीएम को आधार बनाया जाना एक तरह से जनता के फैसले को नकारना है। वैसे तो ईवीएम विरोध का झंडा कई राजनीतिक दल थामे हुए हैं, लेकिन कुतर्क की हद तक जाने में मायावती और केजरीवाल एक-दूसरे से होड़ ले रहे हैं। विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ एकजुट होना चाहें तो इसमें न तो कोई हर्ज है और न ही किसी तरह की रोक, लेकिन यदि वे अपना भला चाहते हैं तो ईवीएम के बहाने जनता को बरगलाने से बाज आएं। उन्हें पता होना चाहिए कि पिछले हफ्ते जब बसपा ने ईवीएम विरोध दिवस मनाया तो उसके गढ़ लखनऊ में चार सौ लोग भी नहीं जुटे। विपक्षी दल एक तो जनता को इतना नादान न समझें और दूसरे जनादेश को स्वीकार करने की शालीनता दिखाएं। अखिलेश यादव के मुख से यह सुनना दयनीय था कि भाजपा धोखा देकर सत्ता में आ गई। यह जनता के फैसले को न मानने की जिद है। ईवीएम पर भी उन्होंने मायावती वाली भाषा बोली। अभी तक अपने खातों में 15 लाख रुपये न आने की शिकायत करते रहे विपक्षी दल अब ईवीएम को अपनी हार का
कारण बताकर अपनी फजीहत ही करा रहे हैं। यदि वे यह कहना चाह रहें कि जनता ने उन्हें सत्ता सौंपते वक्त तो समझदारी दिखाई थी, लेकिन भाजपा को सत्ता सौंपकर नादानी दिखाई तो इसका मतलब है कि उनकी नजर में जनता तभी सही फैसला करती है जब उन्हें सत्ता सौंपती है। ऐसा नहीं है कि केवल मायावती, केजरीवाल और अखिलेश ही जनादेश को स्वीकार करने को तैयार नहीं, कांग्रेस लोकसभा चुनाव के तीन साल बाद भी इसी स्थिति में है। वह अपने रवैये से ऐसा प्रकट कर रही है जैसे 2014 में देश की जनता ने गलती कर दी थी और उसे सुधारने की जिम्मेदारी उस पर आ गई है। राज्यसभा में इस रवैये का कुछ ज्यादा ही परिचय दिया जा रहा है। अब तो कई विपक्षी दल धन विधेयकों पर राज्यसभा के वैसे ही अधिकार चाह रहे हैं जैसे लोकसभा के हैं।
[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं ]