गत रविवार को तमिलनाडु में जल्लीकट्टू से संबंधित अध्यादेश लागू होने के पश्चात प्रदेश के विभिन्न भागों में इस खेल का आयोजन हुआ, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए। मदुरै में विरोध प्रदर्शन के उपरांत एक और व्यक्ति की जान चली गई। इन दोनों दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद जल्लीकट्टू विरोधी पुन: मुखर हो गए हैं। पशु अधिकार संगठन पेटा द्वारा अध्यादेश को चुनौती देने की संभावना के कारण प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में कैवियट याचिका दाखिल कर दी है। तमिलनाडु सरकार ने विधानसभा में जल्लीकट्टू के संबंध में एक विधेयक लाने का फैसला किया है, किंतु समर्थक इस खेल के स्थाई हल और पेटा पर प्रतिबंध की मांग कर रहे हैं। इसी कारण अलंगानल्लूर में प्रदर्शनकारियों ने जल्लीकट्टू नहीं होने दिया।
विदेशी धन पोषित गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से भारत में गत कई वर्षों से जल्लीकट्टू विरोधी अभियान चल रहा है, जिसमें पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल (पेटा) सबसे अधिक मुखर है। वर्ष 2006 में सर्वप्रथम इस खेल पर प्रतिबंध लगाने के लिए मद्रास उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया। 1985 के शाह बानो मामले में शीर्ष अदालत के ऐतिहासिक निर्णय को बदलने की तत्परता जिस प्रकार तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने दिखाई, जल्लीकट्टू को लेकर वैसी आतुरता उस कालखंड में क्यों नहीं दिखी, जब कांग्रेस और द्रमुक दोनों सत्ता में थे?
कांग्रेस और उसकी सहयोगी द्रमुक द्वारा जल्लीकट्टू का समर्थन करना, किसी ढोंग से कम नहीं है। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला के अनुसार कांग्रेस तमिल संस्कृति का सम्मान करती है और जल्लीकट्टू को लेकर तमिलजनों के अधिकारों की रक्षा करना केंद्र व प्रदेश सरकार का दायित्व है। इससे पूर्व कांग्रेस भाजपा पर तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगा चुकी है। क्या यह सत्य नहीं है कि 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध को न्यायोचित ठहराया था? जब 2011 में संप्रग-2 सरकार द्वारा जल्लीकट्टू विरोधी अधिसूचना जारी की गई थी, तब कांग्रेस और द्रमुक क्यों चुप रहे? जब 2016 जनवरी में मोदी सरकार ने तमिल जनभावना का सम्मान करते हुए प्रतिबंधित जल्लीकट्टू को लेकर अध्यादेश जारी किया और पेटा, जिसमें कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी सलाहकार हैं, उस संगठन ने केंद्र के निर्णय को चुनौती दी, तब कांग्रेस और द्रमुक कहां थे?
यह किसी विडंबना से कम नहीं कि सेक्युलरिस्टों, वामपंथी चिंतकों, बुद्धिजीवियों व गैर-सरकारी संगठनों के लिए गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध एक समुदाय विशेष के पसंदीदा खाने के अधिकार पर आघात है, किंतु उनके लिए जल्लीकट्टू खेल पशु क्रूरता का प्रतीक है। पर्यावरण को क्षय, प्राकृतिक संसाधनों की कमी और मनुष्य जीवन को खतरे का हवाला देकर दीपावली पर पटाखे फोड़ना, होली में पानी का उपयोग, कृष्ण जन्माष्टमी पर दही-हांडी प्रतियोगिता जैसे पारंपरिक उत्सवों का विरोध किया जाता है। किंतु ईद पर गोवंश, बकरे, ऊंट आदि पशुओं की कुर्बानी या क्रिसमस पर टर्की का सेवन मजहबी रिवाज का विषय बनकर न्यायसंगत हो जाता है। भारत में पशु क्रूरता रोकथाम कानून 1960 की धारा-28 की संवैधानिकता को कई बार चुनौती दी गई है। इस धारा के अंतर्गत, धार्मिक मान्यताओं के चलते बलि या कुर्बानी की छूट है। वर्ष 2015 सितंबर में बकरीद पर कुर्बानी के खिलाफ याचिका पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि यह संवेदनशील मामला है और अदालत का काम धार्मिक सद्भाव को संतुलित करना है। वह लोगों के अधिकारों को खत्म नहीं कर सकती।
जल्लीकट्टू तमिलनाडु का न केवल परंपरागत खेल है, बल्कि यह दक्षिण भारत के कृषि प्रधान विरासत का महत्वपूर्ण अंग भी है। विदेशी एजेंडे पर काम करनी वाली संस्थाओं का कुतर्क है कि स्पेन की प्रसिद्ध बुल-फाइटिंग, जो कि वहां के लोगों लिए एक भव्य परंपरा है, उसकी भांति इस खेल में बैल या सांड से क्रूरता की जाती है। पोंगल पर तमिलनाडु में जल्लीकट्टू के आयोजन का विशेष महत्व है। खेती का मुख्य आधार होने के कारण देश के करोड़ों आस्थावान हिंदुओं सहित तमिलों के लिए बैल पूजनीय है। मान्यता है कि यह खेल हजारों वर्ष पुराना है, जिसमें बुल-फाइटिंग की तरह बैलों को जान से मारा नहीं जाता और न ही उन्हें काबू करने वाले युवक किसी हथियार का उपयोग करते हैं।
तमिल शब्द सल्ली और कट्टू से मिलकर जल्लीकट्टू बना है, जिसका मतलब सोने-चांदी के सिक्कों से होता है, जो सांड़ या बैल के सींगों पर बंधे होते हैं। जल्लीकट्टू को लेकर विरोधियों का एक दुष्प्रचार यह भी है कि मनुष्य और पशु के जीवन के लिए यह खेल खतरनाक है। यह सत्य है कि 2010 से 2017 के बीच जल्लीकट्टू खेलते हुए 19 लोगों की मौत हो गई थी। क्या पर्वतारोहण, बेस जपिंग, पैराग्लाइडिंग, फॉर्मूला-वन रेस, मोटो-जीपी, स्कीइंग आदि खेलों में मनुष्य जीवन को खतरा जल्लीकट्टू से कम होता है? वर्ष 2014 में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट खिलाड़ी फिलिप ह्यूज के सिर पर गेंद लगने से मौत हो गई थी। क्या उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद क्रिकेट पर प्रतिबंध लग गया?
कई विशेषज्ञों का मानना है कि तमिलनाडु में गोवंशों के प्रजनन के लिए जल्लीकट्टू सर्वश्रेष्ठ बैलों के चयन का महत्वपूर्ण माध्यम है। स्थानीय मीडिया रिपोर्टों के अनुसार जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध और विवाद के कारण किसानों को बैलों को कसाईखानों में औने-पौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। क्या पेटा जैसे पशु अधिकार संगठनों को बूचड़खानों में गोवंशों की निर्मम हत्या में क्रूरता नजर नहीं आती?
अनादिकाल से हिंदू जीवन दर्शन में गोवंश (गाय, भैंस, बैल और सांड़) को पूज्य माना जाता है। असंख्य हिंदुओं की मान्यता है कि गाय में देवताओं का वास है। भारतीय चिंतन में जीवित हरेक स्वरूप का अपना महत्व है। जब नवंबर 1947 को मवेशियों के संरक्षण व संवद्र्धन के लिए सर दातार सिंह आयोग ने मवेशियों की हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध की संस्तुति की, तब भी मुस्लिम तुष्टीकरण के खेल ने इसे पूरा होने नहीं दिया। आज भी जब देश में गोकशी के विरुद्ध कानून बनाने की चर्चा होती है, तो सेक्युलरवाद का प्रलाप कर वामपंथी, स्वघोषित पंथनिरेपक्षक, पश्चिमपरस्त गैर-सरकारी संगठन और तथाकथित बुद्धिजीवी इसमें अवरोधक बन जाते हैं।
भारत की सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता के खिलाफ कई वर्षों से षड्यंत्र रचा जा रहा है। देश में ऐसे कई संगठन विद्यमान हैं जो विदेशी धन और विदेशी एजेंडे के बल पर पशु अधिकार, मानवाधिकार, सामाजिक न्याय, महिला सशक्तीकरण, मजहबी सहिष्णुता और पर्यावरण की रक्षा के नाम पर भारत की कालजयी सनातन संस्कृति और बहुलतावाद को चोट पहुंचा रहे हैं, जिसमें उन्हें राष्ट्रविरोधी सेक्युलरिस्टों और वामपंथी चिंतकों का आशीर्वाद प्राप्त है। जल्लीकट्टू के खिलाफ मिथ्या प्रचार उसी कुत्सित गठजोड़ का परिणाम है। आशा है कि सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक सक्रियता इस पारंपरिक खेल को पूर्ण रूप से प्रतिबंधित करने के विपरीत उसे और अधिक नियंत्रित व उसमें सुधार लाने की दिशा में दिखाएगा।
[ लेखक बलबीर पुंज, राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं ]