डॉ. एके वर्मा

लोकसभा चुनाव के समय जब नरेंद्र मोदी ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया था तब उसे राजनीतिक जुमले के रूप में देखा गया था। इस जुमले को कांग्रेस की परिवारवादी राजनीति, भ्रष्टाचार, कुशासन और हाईकमान संस्कृति जैसी कुप्रवृत्तियों के प्रति भाजपा के आक्रोश के रूप में देखा गया था, लेकिन तीन वर्षों बाद ऐसा लगता है कि वह एक जुमला मात्र नहीं था, वरन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में अवधारणात्मक परिवर्तन का संकेतक था। वह कांग्रेस वर्चस्व के अंत से उपजे शून्य में भाजपा युक्त राजनीतिक व्यवस्था के आगाज की दस्तक भी था। प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक रजनी कोठारी ने स्वतंत्रता के बाद की भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को ‘कांग्रेस-सिस्टम’ का नाम दिया था। इसका मतलब था बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था के बाद भी केंद्र और राज्यों में कांग्रेस का ही सिक्का चलना। 1967 से इसमें तब कमजोरी आई जब पहली बार आठ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। इसके 10 वर्ष बाद 1977 में केंद्र में भी गैर-कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार बनी। 1980 में कांग्रेस पुन: सत्ता में लौटी और 1984 में इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला, लेकिन धीरे-धीरे कांग्रेस का वर्चस्व घटने लगा। 1989 में उत्तर प्रदेश एवं अन्य कई राज्यों के साथ केंद्र में भी जनता दल की सरकार बनी।
‘कांग्रेस-सिस्टम’ के बिखराव की भरपाई अनेक प्रांतीय दलों के उभार से हुई। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा, बिहार में राजद और जद-यू, महाराष्ट्र में शिवसेना, ओडिशा में बीजू जनता दल, कर्नाटक में जनता पार्टी (जेपी), आंध्र प्रदेश में तेलुगू देसम पार्टी, असम में असम गण परिषद आदि का अभ्युदय हुआ। पिछले 25-30 वर्षों में विभिन्न क्षेत्रीय दलों ने अनेक राज्यों में कांग्रेस का विकल्प बनने की कोशिश की और वे काफी सफल भी रहे, लेकिन क्षेत्रीय दल न केवल भौगोलिक आधार पर सीमित थे, बल्कि वे अपने दृष्टिकोण में भी संकुचित थे। सत्ता हथियाना ही जैसे उनका एजेंडा था। कुछ समय तक तो लोगों को यह परिवर्तन सुहाता रहा पर धीरे-धीरे उनको इन दलों से भी ऊब सी होने लगी, क्योंकि वे सुशासन और विकास को अंजाम नहीं दे पाए। इसी बीच भाजपा ने राष्ट्रीय राजनीति में पहले अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के नेतृत्व में अपनी जड़ें जमाई और 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र्र मोदी को प्रधानमंत्री के प्रत्याशी के रूप में उतार कर न केवल अनेक क्षेत्रीय दलों वरन कांग्रेस का भी विकल्प बनने की गंभीर कोशिश की। आज भाजपा न केवल केंद्र वरन 16 राज्यों में सत्तासीन है और जनसंख्या की दृष्टि से लगभग 60 फीसदी से ज्यादा जनता पर स्वयं या सहयोगी दलों के साथ शासन कर रही है। आगे जिन गैर-भाजपा राज्यों में चुनाव हैं उनमें कर्नाटक प्रमुख है। वोकालिंगा और लिंगायत समुदायों पर एसएम कृष्णा और येदियुरप्पा के माध्यम से पकड़ बना कर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कर्नाटक को भी भाजपा की झोली में डालने की तैयारी कर ली है। यही स्थिति हिमाचल की भी है। जिस तरह पूर्वोत्तर के राज्य भी धीरे-धीरे भाजपा की झोली में आते जा रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि कुछ वर्षों में राष्ट्रीय फलक पर भाजपा की वही स्थिति होने वाली है जो स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस की थी। अवधारणात्मक दृष्टि से ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ ‘कांग्रेस सिस्टम’ को विस्थापित कर एक नए ‘भाजपा-सिस्टम’ की स्थापना के संकेत देता है।
यह संयोग ही है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही ‘सिस्टम’ की आधारशिला राष्ट्रवाद है। कांग्रेस ने इस राष्ट्रवाद का पूरा इस्तेमाल किया, लेकिन आगे की पीढ़ी के नेताओं में वह राष्ट्रवादी भावना नहीं भर सकी। उसे ऐसा लगा कि राष्ट्रवाद उसकी सेक्युलर राजनीति से मेल नहीं खाता। राष्ट्रवाद से उसे मुस्लिम-विरोधी होने की बू आने लगी। इसका फायदा उठाते हुए भाजपा ने राष्ट्रवाद का प्रबल संवाहक बनने का बीड़ा उठाया जिससे उसे ‘मुस्लिम-विरोधी’ होने का दंश भी झेलना पड़ा। देश में यह एक अजीब सा माहौल बन गया है कि भाजपा मुस्लिमों की और मुस्लिम भाजपा के नहीं हो सकते। इससे सबसे संकट में मुसलमान ही आया। उसे मजबूरी में कांग्रेस या गैर भाजपा दलों के साथ बंधक होकर रहना पड़ा, लेकिन भाजपा को मुस्लिमों से कोई समस्या नहीं। उसे देशवासियों से, चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम, राष्ट्रवादी होने की दरकार है। आखिर मुस्लिमों के भाजपा की ओर जाने में दिक्कत क्या है, क्योंकि उनकी राष्ट्रवादिता पर तो कोई प्रश्नचिन्ह ही नहीं है? जैसे ही भाजपा को कई राज्यों और केंद्र में सत्ता मिली उसने मुस्लिमों को संदेश देने में कोई देर न की कि उनसे उसकी राष्ट्रवादी अपेक्षाएं वही हैं जो किसी हिंदू से हैं। निष्कर्ष सामने है कि पहले 2014 और अब 2017 में मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया। यह प्रवृत्ति आगे और भी गहराने वाली है। यदि ऐसा हुआ तो पूरे देश में लंबे समय तक केंद्र और राज्यों में भाजपा और सहयोगी दलों की सरकारें बनीं रह सकती हैं और ‘भाजपा-सिस्टम’ एक हकीकत बन सकता है, लेकिन प्रत्येक सिस्टम की कुछ खामियां भी होती हैं। कांग्रेस-सिस्टम के अंत के लिए कांग्रेस की हाई-कमान संस्कृति जिम्मेदार थी जिसने पार्टी में लोकतंत्र को पनपने नहीं दिया। इसके चलते पार्टी का ‘इंद्र-धनुषीय’ समावेशी स्वरुप नेतृत्व में प्रतिबिंबित नहीं हो सका और राज्य स्तर पर पार्टी नेतृत्व विहीन हो गई। अनेक शीर्ष नेताओं को कांग्रेस छोड़कर अपने राज्य में नई पार्टी बनानी पड़ी। इससे कांग्रेस का राज्यों में जनाधार कमजोर होता गया और संघीय व्यवस्था में भी तनाव आता गया। क्या भाजपा कांग्रेस की इस दुर्दशा से कुछ सबक सीखेगी? कहीं वह भी उसी रास्ते पर तो नहीं? क्या पार्टी में केवल मोदी और अमित शाह की ही चलेगी या अन्य नेताओं को भी प्रोत्साहित किया जाएगा?
2014 के बाद जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें बनीं वहां पार्टी ने नेता का चयन कांग्रेस के ही नक्शे-कदम पर किया। यह खतरे की घंटी है। पार्टी कुछ नेताओं को प्रादेशिक स्तर पर राज्यों में स्थापित क्यों नहीं करती? आगामी विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी के लिए न तो यह संभव होगा और न ही यह शोभा देगा कि वही पार्टी के एकमात्र प्रचारक की भूमिका निभाते रहें। यह पार्टी के हित में होगा कि प्रत्येक राज्य में भाजपा नेताओं की प्रदेश स्तर पर पहचान हो। उनके नाम, चेहरे और काम जनता के बीच हों। पार्टी कार्यकर्ताओं को इस बात का भरोसा हो कि उनके काम और मेहनत को पार्टी पुरस्कृत करेगी जिससे वे जी जान से पार्टी के लिए समर्पित हो सकें। ‘भाजपा-सिस्टम’ को सार्थक करने के लिए जरूरी है कि भाजपा की सरकारें सुशासन और विकास का प्रतिमान बनें। जनता कांग्रेस के साथ स्वतंत्रता आंदोलन से उपजे राष्ट्रवाद की वजह से थी, लेकिन भाजपा के साथ वह तभी रहेगी जब उसे सुशासन और विकास हकीकत में मिलेगा। यह पार्टी के सामने एक चुनौती भी है और अवसर भी। यदि भाजपा सरकारें इस पर खरी उतर सकीं तो न केवल पार्टी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का सपना साकार हो सकेगा वरन पार्टी ‘भाजपा-सिस्टम’ के रूप में भारतीय लोकतंत्र में अपनी जड़ें जमा सकेगी और एक लंबे समय तक केंद्र और राज्यों की जनता की पहली पसंद भी बनी रहेगी।
[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं ]