बलबीर पुंज

हाल के कुछ घटनाक्रम संकेत करते हैं कि कांग्रेस में विचारधारा को लेकर अंतरद्वंद आरंभ हो गया है और पार्टी दो विपरीत दिशाओं में आगे बढ़ रही है। एक तरफ केरल में कांग्रेस के युवा नेता सार्वजनिक रूप से गाय के बछड़े का वध और बीफ पार्टी का आयोजन कर अपने विकृत सेक्युलरवाद का परिचय देते है। दूसरी ओर पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह अपने आलेख के माध्यम से कश्मीर में पत्थरबाजों से निपटने वाले और भारतीय सेना द्वारा सम्मानित मेजर नितिन गोगोई की खुलकर पीठ थपथपाते हैं। केंद्र सरकार द्वारा पशु बाजार में बूचड़खानों के लिए गोवंशों को खरीदने और बेचने पर लगाए प्रतिबंध के खिलाफ केरल के कन्नूर में यूथ कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने सार्वजनिक रूप से बछड़े की बलि देकर बीफ पार्टी का आयोजन किया। इस घिनौने कृत्य का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल भी हुआ। उक्त घटना पर चौतरफा निंदा से घिरे राहुल गांधी ने कई घंटों बाद इस संबंध में ट्वीट किया। आधुनिक सूचना तंत्र और उत्कृष्ट संचार उपकरणों के दौर में राहुल द्वारा कन्नूर प्रकरण पर तात्कालिक प्रतिक्रिया दी जानी चाहिए थी। स्पष्ट है कि अंतर्विरोध से जूझ रही कांग्रेस में राजनीतिक लाभ-हानि आदि विचारों पर आकलन के बाद ही राहुल ने न केवल सोशल मीडिया पर उक्त घटना की निंदा की, बल्कि इसे विचारहीन, बर्बर कृत्य बताते हुए पूरी तरह अस्वीकार भी कर दिया। यदि कांग्रेस को लगता है कि इससे उसे देश में व्यापक राजनीतिक लाभ मिल सकता है तो नि:संदेह वह इसकी निंदा तक भी नहीं करती।
राजनीतिक, वैचारिक और व्यक्तिगत खुन्नस के कारण गत वर्ष 29 सितंबर को गुलाम कश्मीर में हुई भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर विपक्षी दलों ने जमकर बवाल किया था। कांग्रेसी खेमे में जहां दिग्विजय सिंह ने इस सैन्य कार्रवाई को लेकर प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को युद्ध भड़काने वाला व्यक्ति बताया था। वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम सर्जिकल स्ट्राइक का साक्ष्य मांगने वाले लोगों की पहली कतार में खड़े हो गए थे। इन दो विचारों के ठीक विपरीत कांग्रेस का एक वर्ग आज भारतीय सेना के सम्मान और राष्ट्रहित में उसकी हर कार्रवाई की खुलकर प्रशंसा कर रहा है। अमरिंदर सिंह द्वारा मेजर गोगोई की प्रशंसा में लिखा आलेख इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसमें उन्होंने मेजर गोगोई की मानव ढाल बनाने वाली रणनीति को तर्कसंगत और उन हालात में सबसे बेहतर एवं अंतिम विकल्प भी बताया है। उनके अनुसार शांतिवार्ता में देशहित को सर्वोपरि रखते हुए भारतीय सेना का पक्ष महत्वपूर्ण होना चाहिए। यही नहीं कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता ने भी नौशेरा में भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान की कई चौकियों को उड़ाने की कार्रवाई का स्वागत किया।
स्वतंत्रता से पूर्व जो दल गांधीजी के राष्ट्रवाद और हिंदू-सनातनी चिंतन से ओतप्रोत था, वह गांधीजी की नृशंस हत्या के बाद उनकी राजनीतिक-शैली और चिंतन को तिलांजलि देते हुए उस विभाजनकारी वाम-विचारधारा को आत्मसात करके बैठा है जिसने देश में मुस्लिम कट्टरवाद की पौध को सींचा और हिंदू विरोधी मानसिकता को पोषित किया। वामपंथी बौद्धिक दर्शन की केंचुली पहने कांग्रेस ने देश के वातावरण को इस कदर कलुषित कर दिया है कि आज उसके लिए मुस्लिम कट्टरता का समर्थन और गोवध पर प्रतिबंध का विरोध करने वाला ‘पंथनिरपेक्ष’ और तन-मन से राष्ट्र को समर्पित देशभक्त ‘सांप्रदायिक’ हो गया है।
आज न केवल सेक्युलर जमात के लिए, अपितु मीडिया के एक बड़े धड़े के लिए ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ शब्द गाली का पर्याय बन गया है। इस संज्ञा का प्रयोग करने वाले अधिकांश लोग अपना परिचय वाम-उदारवादी के रूप में देते है। हालांकि यह बात अलग है कि वामपंथ और उदारवाद दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं, क्योंकि वामपंथी कभी उदार नहीं होता जबकि इसके ठीक विपरीत हिंदू और राष्ट्रवाद एक दूसरे के पूरक हैं।
वामपंथी-उदारवादियों के विषाक्त गठबंधन ने पंथनिरपेक्षता के नाम पर न केवल कट्टर ताकतों को बढ़ावा दिया, बल्कि विदेशी ताकतों से हाथ मिलाने में भी संकोच नहीं किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वामपंथियों ने अंग्रेजों के लिए स्वतंत्रता सेनानियों की जासूसी की और गांधीजी एवं सुभाषचंद्र बोस जैसे राष्ट्रवादियों के लिए अपशब्द कहे। जिन्ना की मजहब आधारित देश के बंटवारे की मांग यदि अंग्रेजों का कुटिल प्रपंच था तो उसे मूर्त रूप वामपंथियों ने ही दिया। हैदराबाद के रजाकरों के साथ मिलकर स्वतंत्र भारत के खिलाफ सशस्त्र युद्ध छेड़ना हो, 1962 की लड़ाई में शत्रु देश चीन का समर्थन या फिर 2016 में जेएनयू परिसर में ‘भारत तेरे टुकड़ें होंगे...’ जैसे नारों का उद्घोष, ये कुछ ऐसी मिसाल हैं जब वाम-उदारवादियों का मूल चरित्र देश के सामने उजागर हुआ। वर्षों का काला-चिट्ठा होते हुए भी वाम-उदारवादी किसी को भी पंथनिरपेक्ष और हिंदू राष्ट्रवादियों को सांप्रदायिक होने का प्रमाणपत्र अविलंब थमा देते है। ऐसे में वे लोग जो इस राष्ट्र की संप्रभुता, एकता और बहुलतावादी संस्कृति की रक्षा हेतु जीने-मरने के लिए वचनबद्ध है, उन्हें राष्ट्रवाद की परिभाषा गढ़ने का अधिकार क्यों नहीं है?
हिंदू राष्ट्रवादी भारत को कश्मीर से लेकर केरल तक अपनी विविधताओं के साथ एक रूप में देखना चाहते हैं। वे जाति, पंथ और लिंग से ऊपर उठकर सभी भारतीयों की पीड़ा को समझते हैं और उसे दूर करने का प्रयास भी करते हैं। यही कारण है कि तीन तलाक की शिकार भारतीय मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने हेतु प्रत्येक राष्ट्रवादी समान नागरिक संहिता की वकालत करता है, क्योंकि उसका मानना है कि मानवीय मूल्य और अधिकार आधुनिक परिप्रेक्ष्य में किसी भी कालबाह्यी परंपरा से अधिक महत्वपूर्ण हैं।
हिंदू समाज आज भी दहेज प्रथा, बाल-विवाह और कन्याओं के जन्म से पूर्व भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियों से जूझ रहा है। इसके बावजूद हिंदू समाज का प्रबुद्ध वर्ग इसके विरोध में मजबूती से खड़ा रहा जिसके फलस्वरूप इन कुरीतियों के विरुद्ध सख्त कानून हैं। सती-प्रथा हिंदू समाज में किसी श्राप से कम नहीं थी जो कड़े कानूनी प्रावधानों के कारण आज इतिहास के पन्नों में दफन हो गई है। स्वतंत्र भारत में मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करने की कोशिशें कांग्रेस और वाम-उदारवादियों द्वारा वर्ष 1986 के शाहबानो मामले से लेकर अब तक बदस्तूर जारी हैं। वाम उदारवादी कश्मीर में अलगाववादी, आतंकियों और जेहादियों का समर्थन करते हैं तो नक्सलियों के मानवाधिकारों की रक्षा की बात करते हैं तो कभी हिंदू आतंकवाद का हौवा खड़ा करते हैं। किंतु जब कोयंबटूर धमाकों के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी की रिहाई के लिए केरल विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर कांग्रेसी-वामपंथी सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करते हैं तब देश के कथित उदारवादी और प्रगतिवादी मौन रहते हैं। क्या कांग्रेस पुन: अपने राष्ट्रवादी वैचारिक अधिष्ठान की ओर लौटेगी? क्या राहुल गांधी भविष्य में इसी तरह हिम्मत दिखाकर देश का अपमान करने वाले तत्वों पर इतनी कठोरता से बोलेंगे? या फिर कांग्रेस, वामपंथियों द्वारा बताए गए आत्मघाती रास्ते पर इसी तरह चलती रहेगी? इन प्रश्नों के उत्तर में ही कांग्रेस का भविष्य छिपा है।
[ लेखक स्तंभकार एवं राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं ]