अंशुमान राव

लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनावी हार-जीत कोई नई बात नहीं। राजनीतिक दलों के इतिहास में कभी जीत की मिठास तो कभी हार की मायूसी के क्षण आते ही रहते हैं। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों के रूप में जो तस्वीर सामने आई वह देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिए मायूसी से कहीं आगे बेहद स्तब्ध करने वाली रही। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों के बाद पार्टी जिस मोड़ पर खड़ी है वह मामूली राजनीतिक परिस्थिति नहीं। इसकी गंभीरता इसी से समझी जा सकती है कि पार्टी कार्यकर्ता ही नहीं बहुलवादी संवैधानिक लोकतंत्र में भरोसा रखने वाले भी कांग्रेस के इस हालत में पहुंचने को लेकर चिंता जता रहे हैं। यह चिंता अस्वाभाविक नहीं, क्योंकि बहुलवादी लोकतंत्र को आगे बढ़ाते हुए इस मुकाम तक लाने में कांग्रेस की महती भूमिका रही है। छह दशक तक देश की सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस की यह पूरी जिम्मेदारी बनती है कि वह बेबाकी से आत्मंचिंतन करे कि वह इस मुकाम पर क्यों और कैसे पहुंच गई कि आज उसके अस्तित्व को लेकर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कांग्रेस की मौजूदा हालत को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा, क्योंकि शुरुआत संप्रग के केंद्र की सत्ता में दोबारा वापसी के एक साल बाद ही शुरू हो गई थी। उत्तर प्रदेश के 2012 के विधानसभा चुनाव और उसके बाद छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश और दिल्ली के चुनावों में पार्टी की शिकस्त के बाद भी कांग्रेस की रीति-नीति चलाने वालों की शैली और सोच में बदलाव नहीं आया। 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार विपक्ष की हैसियत लायक सीटें हासिल नहीं कर पाने की बेहद कड़वी सच्चाई सबके सामने थी, फिर भी पार्टी इस कठिन परिस्थिति से बाहर आने का कोई रास्ता तलाश नहीं कर पाई।
उत्तर प्रदेश के नतीजों ने कांग्र्रेस को झकझोर कर रख दिया है। पंजाब की जीत और मणिपुर-गोवा में संतोषजनक प्रदर्शन की चादर से राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की मौजूदा चुनौती को ढंकना पार्टी के समक्ष मौजूद सबसे विकराल चुनौती से मुंह मोड़ना होगा। यह तर्क सही हो सकता है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता की सियासत में कांग्रेस मुख्य नहीं बल्कि सहायक खिलाड़ी थी, पर इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं और वह सपा के बाद दूसरे नंबर की पार्टी थी। तब 10 लोकसभा सीटों के साथ भाजपा चौथे नंबर पर थी और आज हालात यह है कि कांग्रेस के अस्तित्व को लेकर बहस हो रही है। कांग्रेस के अस्तित्व को लेकर शुरू इस बहस में राजनीतिक विश्लेषकों के जल्दबाजी भरे निष्कर्ष से बेशक न पार्टी सहमत है और न ही कार्यकर्ता,क्योंकि कांग्रेस की राजनीतिक चिंतनधारा देश की व्यापक जनता के मन मस्तिष्क में है। केवल चुनावी हार से सर्वसमावेशी लोकतंत्र में भरोसे की यह सोच खत्म नहीं होगी, लेकिन जनता का यह भरोसा न टूटे, यह सुनिश्चित करना भी पार्टी के लिए जरूरी है। इसके लिए अपनी अंदरुनी खामियों का बेबाकी से आत्मविश्लेषण अपरिहार्य है। अब उन सवालों को नजरअंदाज करने का वक्त नहीं है जो बाहर और अंदर, पूछे जा रहे हैं।
पिछले बीस-तीस सालों से कांग्रेस में संगठन और सियासत को संचालित करने वालों को इस सवाल का जवाब तो देना ही चाहिए कि आखिर इस कालखंड में राज्यों से लेकर केंद्रीय स्तर पर पार्टी में नए जमीनी नेताओं की फौज क्यों नहीं तैयार हो पाई? उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़, गुजरात, झारखंड, उड़ीसा, तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में नए ताकतवर क्षेत्रीय चेहरे क्यों नहीं उभर कर सामने आए? इतिहास गवाह है कि केंद्र में कांग्रेस की ताकत हमेशा उस समय सबसे ज्यादा रही जब सूबों में उसके क्षत्रप मजबूत सियासी चेहरे रहे। कांग्रेस के शिखर नेतृत्व को लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं में न पहले संशय था और न अब है, मगर पार्टी का संचालन करने वालों को यह बताना चाहिए कि एक दशक से बदलाव की शिखर नेतृत्व की ओर से उठ रही आवाज पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया? यह स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि बीते दो दशक में राजनीति ही नहीं लोगों का मिजाज और अपेक्षाएं भी बदली हैं। सामाजिक और आर्थिक बदलाव के मौजूदा परिवेश में कांग्रेस को भी नई चुनौतियों के लिए तैयार करने के लिए 2006 में सोनिया गांधी ने एक कमेटी बनाकर आगे बढ़ने का रोडमैप बनाने का जिम्मा सौंपा था। पार्टी कार्यकर्ताओं को नहीं पता कि इस रोडमैप का क्या हुआ और उसमें क्या है? इसी तरह पिछले लोकसभा चुनाव के बाद एके एंटनी की अगुआई में पराजय के कारणों का विश्लेषण करने के लिए एक कमेटी बनी थी। यदि इस कमेटी की रिपोर्ट पर अमल किया गया होता तो शायद पार्टी उत्तर प्रदेश जैसे स्तब्धकारी हालात का सामना करने में अधिक सक्षम होती। पार्टी की रीति-नीति का संचालन करने वाले भले ही इस बात को तवज्जो न दें मगर पूरे देश के कांग्रेस कार्यकर्ता शिद्दत से यह महसूस कर रहे हैं कि जनता ही नहीं पार्टी कैडर से भी संवादहीनता की स्थिति पिछले कई सालों में कायम है। शायद इसीलिए जनता के नजरिये से संवेदनशील मुद्दों पर जब-जब अलग लाइन ली गई तो पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा। ऐसी स्थिति इसलिए बनी, क्योंकि पार्टी के संचालकों की टीम वही है जो दो दशक पहले भी थी। इसमें कुछ चेहरे तो बड़े हो सकते हैं, मगर अब उनकी राजनीतिक जमीन वैसी नहीं रही कि संवाद की पुरानी ताकतवर परंपरा को मजबूती से आगे बढ़ाया जा सके। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के सामने पार्टी कैडर ही नहीं जनता से दोतरफा सीधे संवाद के सहारे भरोसा पैदा करने की चुनौती है। कांग्रेस आज संक्रमण के जिस दौर में है वहां महज शब्दों से भरोसा पैदा करना कठिन काम है। इसके लिए आवश्यक है कि पार्टी उन खामियों को दूर करने की दिशा में तत्काल कदम उठाए जिसे लेकर पार्टी के भीतर से भी गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। इस क्रम में यह याद रखना होगा कि किसी भी पहल को महज चुनाव और सत्ता की राजनीति से जोड़ कर ही न देखा जाए। नई पीढ़ी को जोड़ना और कांग्रेस को लेकर उनमें राजनीतिक रोमांच की भावना जागृत करना पार्टी के लिए बड़ी चुनौती है। कमजोरियों को बिना किसी पूर्वाग्रह के स्वीकार करते हुए सुधारात्मक पथ पर आगे बढ़ने का दृढ़ निश्चय कर लिया जाए तो वांछित परिणाम अर्जित करना नामुमकिन नहीं।
[ लेखक कांग्रेस के नेता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं ]