पिछले हफ्ते भारतीय राजनीति अपने निम्नतम स्तर को छू गई जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और उनके सहयोगी संजय निरुपम जैसे कुछ नेताओं ने कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पार आतंकवादी कैंपों को ध्वस्त करने के लिए भारतीय सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में बहुत ही आपत्तिजनक बयान दिया। सबसे खराब टिप्पणी राहुल गांधी की ओर से आई। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमारे जवानों की खून की दलाली करने और उनके बलिदान का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि ये जो हमारे जवान हैं, जिन्होंने अपना खून दिया है, उनकी आप दलाली कर रहे हो।

राहुल गांधी की खून की दलाली वाली टिप्पणी कुछ उसी तरह उनके गले की फांस बन सकती है जिस तरह 2007 में उनकी मां सोनिया गांधी द्वारा नरेंद्र मोदी के खिलाफ दिया गया एक निंदनीय बयान समूची पार्टी की किरकिरी का कारण बना था। अपने उस दुर्भाग्यपूर्ण भाषण से उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनाव को तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में मोड़ दिया था। सोनिया ने मोदी को मौत का सौदागर कहा था। 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी सोनिया ने कुछ इसी तरह का एक और असभ्य बयान दिया। एक जनसभा में उन्होंने मोदी पर जहर की खेती करने और देश के सेक्युलर वातावरण को छिन्न-भिन्न करने का आरोप लगाया। इसने भी आम चुनाव में कांग्रेस की संभावनाओं को प्रभावित किया।

आश्चर्यजनक रूप से राहुल गांधी ने ट्विटर पर कुछ ही दिनों पहले प्रधानमंत्री मोदी के कदम की तारीफ की थी। उन्होंने कहा था कि जब मोदीजी एक प्रधानमंत्री के लायक काम करते हैं तो मैं भी उनका समर्थन करता हूं। उन्होंने आगे कहा कि नरेंद्र मोदी ने ढाई साल में पहला ऐसा काम किया है जो प्रधानमंत्री पद के लायक हो। यहां उनकी बातों में अहंकार झलकता है। एक ऐसे व्यक्ति की ओर से इस तरह की टिप्पणी उल्लेखनीय है जो लंबे समय तक सांसद रहने के बाद भी सार्वजनिक पद पर कभी नहीं रहा है। जो लोकतंत्र का ककहरा भी नहीं जानता है, लेकिन दूसरों को इसकी सीख देता है। राहुल को लगता है कि उनके साथ सिर्फ गांधी नाम जुड़े होने के कारण ही उन्हें मोदी, जो कि देश के एक प्रमुख राज्य के एक दशक से अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहे हैं, सहित दूसरों को प्रमाणपत्र बांटने का अधिकार मिल गया है। संजय निरुपम के बारे में कोई क्या कह सकता है? उन्होंने सार्वजनिक रूप से जवानों द्वारा अंजाम दिए गए साहसिक ऑपरेशन को फर्जी ठहरा दिया और भारतीय सेना से सुबूत की मांग की।

इससे पहले हमने किसी राजनेता को अपनी सेना के ऑपरेशन पर इस तरह संदेह प्रकट करते और बहस को उस स्तर पर ले जाते नहीं देखा जिससे कि वह दुश्मन की नजरों में एक हीरो बन जाए। पाकिस्तानी मीडिया ने पीओके में भारतीय सेना की कार्रवाई की उपेक्षा की और इस सर्जिकल स्ट्राइक की कहानी को बकवास बताने के लिए उसने राहुल गांधी, केजरीवाल और निरुपम के बयानों को सुबूत के तौर पर पेश किया। ये राजनेता पाकिस्तानी मीडिया के आंखों के तारे बन गए और पाकिस्तान में ट्विटर पर पाकस्टैंडविदकेजरीवाल सबसे ऊपर ट्रेंड करने लगा। इन राजनेताओं को तनिक भी भान नहीं है कि वे अपनी ओछी राजनीति से जवानों की भावनाओं को कितनी चोट पहुंचा रहे हैं।

जिस सर्जिकल स्ट्राइक पर वे संदेह जता रहे हैं और सवाल उठा रहे हैं उसकी जानकारी 29 सितंबर को सीधे भारतीय सेना के डीजीएमओ (सैन्य अभियान के महानिदेशक) लेफ्टिनेंट जनरल रणबीर सिंह द्वारा दी गई थी। डीजीएमओ ने अपने बयान में कहा कि इस बात की विशेष और विश्वसनीय सूचना मिली थी कि कुछ आतंकवादी भारत में घुसपैठ करने की फिराक में सीमापार गुलाम कश्मीर में विभिन्न लांच पैड पर तैयार बैठे हैं और उनकी मंशा जम्मू-कश्मीर और दूसरे राज्यों में प्रमुख शहरों में हमला करने की है। आतंकवादियों को विभिन्न लांच पैड पर ही नेस्तनाबूद करने के लिए भारतीय सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया।

यह ऑपरेशन इस बात पर केंद्रित था कि ये आतंकवादी अपने मकसद में कामयाब न हो सकें और हमारे नागरिकों को नुकसान न पहुंचा सकें। भारतीय सेना के डीजीएमओ ने यह भी बताया कि उन्होंने पाकिस्तानी सेना के डीजीएमओ से संपर्क कर इस सर्जिकल स्ट्राइक की जानकारी दी है। उन्होंने कहा कि भारत की मंशा इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखना है, लेकिन हम सीमापार से आतंकवाद को किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करेंगे। यह कार्रवाई पाकिस्तान के उस बयान के तहत ही की गई है जिसमें उसने जनवरी 2004 में कहा था कि वह भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां चलाने के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। हम उम्मीद करते हैं कि इस क्षेत्र से आतंकवाद के खतरे को खत्म करने में पाकिस्तानी सेना सहयोग करेगी।

राहुल गांधी, संजय निरुपम और दूसरे नेताओं द्वारा आई प्रतिक्रियाएं 1965 और 1971 में (जब कांग्रेस सत्ता में थी) पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के दौरान सभी पार्टियों द्वारा राजनीति से ऊपर उठकर दिखाई गई एकता के सर्वथा विपरीत है। इन युद्धों के दौरान और बाद में संसद में हुई बहस में सभी राजनीतिक दलों ने विरोध की भावना को परे रखकर एकता की भावना प्रकट की और आतंकवाद बढ़ाने और उन्माद भड़काने के लिए पाकिस्तान पर कड़ा दंड लगाने की मांग की। अटल बिहारी वाजपेयी, नाथ पई और अन्य नेताओं ने उन दिनों संसद में कांग्रेस सरकार को पूर्ण समर्थन दिया और हमारे जवानों के साहस की प्रशंसा की। 93 हजार पाकिस्तानी जवानों द्वारा भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण के साथ ही जब 1971 का युद्ध समाप्त हो गया तब वाजपेयी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व की तारीफ की और उनकी तुलना देवी दुर्गा से की, जिसे सभी समाचार पत्रों ने प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से प्रकाशित किया।

लेकिन कांग्रेस जब विपक्ष की कुर्सी पर बैठती है और खासकर उसका नेतृत्व नेहरू-गांधी परिवार के हाथों में जाता है तब वह अजीब तरीके से व्यवहार करती है। जब वाजपेयी छह साल प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रहे थे तब भी यह दिखाई दिया था, लेकिन वर्तमान में वह जिस तरह का रवैया दिखा रही है वह पहले कभी नहीं देखा गया है। अब पार्टी सेना के बयान को भी संदेह की नजर से देख रही है। शंकालु और अविश्वासी कांग्रेस अब भारतीय सेना के डीजीएमओ से सुबूत चाहती है। इससे ज्यादा शर्मनाक व्यवहार किसी ने नहीं देखा होगा। क्या यह अभी भी भारतीय ‘राष्ट्रीय’ कांग्रेस है?

(लेखक ए.सूर्यप्रकाश, जाने-माने स्तंभकार और प्रसार भारती के अध्यक्ष हैं)