पीयूष पांडे

इस देश में जिसे देखो, वह दूसरे की निंदा कर रहा है। पत्नी कामवाली की निंदा कर रही है। कामवाली घर के बाहर पत्नी की निंदा कर रही है। पड़ोसी-पड़ोसी की निंदा कर रहा है। बॉस कर्मचारी की निंदा कर रहा है कि आलस करते हैं। कर्मचारी बॉस की निंदा कर रहे हैं कि वह जितना मोटा वेतन लेता है उसके चौथाई का भी काम नहीं करता। छात्र टीचर की निंदा कर रहे हैं कि उन्हें पढ़ाना नहीं आता और टीचर प्रिंसिपल की निंदा कर रहा है कि उसे स्कूल चलाना नहीं आता। लेखक उस आलोचक की निंदा कर रहा है जिसने अपनी समीक्षा में उसे निपटा दिया है और आलोचक तो पेशेवर निंदा करके ही धन पीट रहा है। सरकार विपक्ष की निंदा कर रही है कि हर बात में अड़ंगा लगाना विपक्ष का स्वभाव हो गया है और विपक्ष सरकार की निंदा कर रहा है कि लोकतंत्र में विपक्ष को पूरा सम्मान नहीं दिया जा रहा। ऐसा लग रहा है कि मानों देश में निंदा के अलावा कुछ नहीं हो रहा है, लेकिन इतने सारे लोग मिलकर जब निंदा ही कर रहे हैं तब भी निंदा को आखिरकार उचित मान्यता क्यों नहीं मिल पा रही? मुझे लगता है कि वक्त आ गया है जब निंदा के कार्य को प्रोफेशनली यानी पेशेवर तौर पर लिया जाए। निंदा के क्षेत्र में अपार रोजगार की संभावनाओं को तलाशा जाए। निंदक की महिमा को तो कबीर दास जी सदियों पहले ही कुछ इस तरह समझा गए थे:
निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय
यानी जो हमारी निंदा करता है, उसे अधिकाधिक अपने पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के ही हमारी कमियां बताकर हमारे स्वभाव को साफ करता है और इस मद में हमारा खर्चा ही बचा रहा है, लेकिन जमाना बदल गया है। निंदक को नियरे नहीं रखना चाहिए। नियरे रखकर तो निंदक आपकी ऐसी-तैसी कर देगा। एक अजीब सा फ्रस्ट्रेशन भर देगा। हर काम में इतनी कमियां निकालेगा कि आपका आत्मविश्वास हिल जाएगा। आत्मविश्वास हिला तो मन में बुरे-बुरे विचार आने लगेंगे। बुरे विचार आने लगे तो जीवन मिथ्या लगने लगेगा। कुल मिलाकर निंदक नियरे रखते ही मामला बहुत संवेदनशील हो सकता है, इसलिए ऐसा कतई ना करें अलबत्ता खुद निंदक बनें। इसके साथ ही यह भी कोशिश करें कि निंदक ज्यादा से ज्यादा से दूर रहे। इसके लिए जरूरी हो तो निंदा का भी सहारा लें।
वह जमाना और था जब यह सिखाया जाता था कि अगर आपको दूसरों की निंदा करना अच्छा लगता है तो समझ लें कि आप लक्ष्य से भटक चुके हैं। लिहाजा तुरंत आदत में सुधार लाएं, लेकिन-नए जमाने में अगर आपको दूसरों की निंदा करना अच्छा लगता है तो समझ लें कि आप न केवल सामान्य हैं, बल्कि विकास के मार्ग पर हैं। बंदा निंदा के खेल में निष्णात हो तो तरक्की के रास्ते खुलते हैं। बॉस के सामने दूसरे बॉस की निंदा एक्स्ट्रा मार्क्स दिलाती है। अधीनस्थ कर्मचारियों और समकक्ष सहयोगियों की निंदा करने में बड़ा लाभ है। तमाम लोग इससे लाभान्वित हो रहे हैं और अपनी नौकरी इसी से चला रहे हैं या फिर बचा रहे हैं। परनिंदा से मन की कुंठा निकलती है। इससे व्यक्ति खुद को तनावमुक्त और हल्का महसूस करता है। अपनी हर गड़बड़ी के लिए अगर आप किसी और को दोष देते हुए निंदा कर लें तो इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता। आप अपनी नजर में दोषी नहीं होने से बच जाते हैं और जिसकी निंदा की गई, उसे भी कुछ नहीं होता। आप स्वस्थ तो सब स्वस्थ।
अब वक्त आ गया है जब पेशेवर निंदक तैयार करने के साथ निंदा के क्षेत्र में स्किल्ड लोग तैयार किए जाएं। ऐसा ‘स्किल इंडिया प्रोग्राम’ के तहत भी किया जा सकता है। पेशेवर निंदक जानता है कि कहां-कब-किसकी-कितनी निंदा करनी चाहिए। किस शख्स की, संगठन, कार्यक्रम की निंदा करते वक्त किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। स्कूलों में अब निंदा विषय पर अलग क्लास होनी चाहिए। ऐसे पेशेवर निंदक बतौर गेस्ट फैकल्टी बुलाए जाएं जिन्होंने निंदा कर करके ही अपनी दुकान जमा ली। स्कूलों में निंदा के फॉर्मूले समझाए जाएं। वरना आप बताइए रसायन विज्ञान के कितने फॉर्मूले आपकी जिंदगी में काम आ रहे हैं? बहादुर शाह जफर कब मरे, कब जिए, इससे आपको आज क्या फायदा हो रहा है? बताइए !
निंदा के क्षेत्र को प्रोफेशनली विकसित किया जाए तो हर मंत्रालय में एक निंदा अधिकारी होगा जो निंदा प्रस्ताव तैयार करेगा। निंदा रिलीज लिखेगा। अखबारों में सिर्फ निंदा की खबरें देखने वाले कुछ संपादक होंगे। राजनीतिक दलों में निंदा प्रवक्ता होंगे। यानी संभावनाएं बहुत हैं। निंदा खुद की हीनता को दबाने का श्रेष्ठ माध्यम है। इस आपाधापी, भागदौड़ और प्रतिस्पर्धात्मक जीवन के हर क्षेत्र में हर पिता का एक पिता है। हल्के शब्दों में हर बाप का एक बाप है यानी आप कितने भी श्रेष्ठ हों, कितने भी हुनरमंद हों, कितने भी रईस हों, आपसे ऊपर, आपसे श्रेष्ठ लोग आपके आसपास मौजूद हैं। निंदा इन्हीं श्रेष्ठ लोगों की श्रेष्ठता को खुद पर हावी न होने का जरिया है। सच यह भी है कि किसी की प्रशंसा करने में बहुत बल लगता है। निंदा आसानी से संभव है-इसे ही बढ़ावा दिया जाए। सिर्फ निंदा सिखाई जा सकती है, कड़ी निंदा नही, क्योंकि कड़ी निंदा का अधिकार सिर्फ सरकार का होता है, बल्कि सरकार को यह शोभा देता है कि वह कड़ी निंदा ही एकमात्र एक्शन मान ले, आम आदमी यह करना अफोर्ड नहीं कर सकता।
[ हास्य-व्यंग्य ]