मनुष्य का जीवन आशा और निराशा का मिश्रण है। कभी हम यह सोचते हैं कि ऐसा करेंगे तो हमें सफलता मिल सकती है, लेकिन दूसरे ही पल हमें अपनी ही सफलता संदिग्ध लगने लगती है और फिर हम किंतु-परंतु के चक्कर में पड़ जाते हैं। यह हम पर निर्भर है कि हम किस दृष्टिकोण को अपनाते हैं। यदि हम आशावान बनकर सफलता के प्रति आसक्त हैं, तो हम हर हाल में सफलता को प्राप्त करेंगे, लेकिन यदि हम निराशा के भंवरजाल में फंसकर यह चिंता करने लगेंगे कि हम सफल हो पाएंगे या नहीं, तो हमारी सफलता भी संदिग्ध हो जाएगी। हमारी हार और जीत को हमारा मन और मस्तिष्क ही तय करता है-मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। कभी-कभी जरूर ऐसा होता है कि हम पूरी उम्मीद और निष्ठा के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम करते हैं, लेकिन इसके बावजूद हम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति में भी हमें आशा का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। इस स्थिति में हमें यह मानना चाहिए कि यह आवश्यक नहीं कि हर लड़ाई जीती ही जाए, बल्कि आवश्यक यह है कि हर हार से कुछ सीखा जाए। जब आप अपनी पिछली गलतियों से सबक सीखते हैं, तो आप स्वत: ही अपने लक्ष्य को अपने करीब पाते हैं। हमारे जीवन में बारी-बारी से सुख-दुख दोनों आते रहते हैं, लेकिन दोनों ही परिस्थितियों में हमें सहज बने रहना चाहिए।
जीवन जीने की कला यही है कि जब हमारे जीवन में सुख आए, तो हमें जी भर के हंस लेना चाहिए और जब दुख आएं तो उन्हें हंसी में उड़ा देना चाहिए। समय चाहे सुख वाला हो या दुख वाला, दोनों ही बीत जाते हैं। हमें सुख में अपना संयम और दुख में अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए। जिस तरह हर रात की सुबह होती है और हर सुबह, रात में परिवर्तित हो जाती है, सुख-दुख के साथ भी ठीक ऐसा ही होता है। जब लोग दुख में होते हैं, तो भगवान को याद करते हैं, लेकिन सुख आने पर वे भगवान को भूल जाते हैं। दुख में भगवान को सभी याद करते हैं, लेकिन सुख में कम लोग ही याद करते हैं। अगर लोग सुख में भी भगवान को याद करें, तो उन्हें दुख आएगा ही नहीं। दरअसल भगवान को याद करते हुए जब हम उसकी प्रार्थना करते हैं, तो हमारे अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। प्रार्थना से हमें बल, विश्वास, प्रेरणा, आशा और सही मार्गदर्शन मिलता है।
[ महर्षि ओम ]