प्रेमपाल शर्मा

देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवाओं के लिए आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा में अधिकतम उम्र सीमा, परीक्षा के विषय, माध्यम और कितनी बार अभ्यर्थी परीक्षा दे सकता है.. आदि मसलों पर गठित बीएस बासवान समिति की जो सिफारिशें छनकर बाहर आ रही हैं उनसे एक उम्मीद बनती है। संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा में सुधार के लिए अगस्त 2016 में गठित भारतीय प्रशासनिक सेवा के अनुभवी अधिकारी बीएस बासवान ने अपनी रिपोर्ट हाल में सरकार को सौंप दी है। अब कार्मिक मंत्रालय को संघ लोक सेवा आयोग यानी यू्पीएससी के साथ विचार-विमर्श के बाद इन सिफारिशों पर तुरंत अंतिम निर्णय लेना है। सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश है अधिकतम उम्र सीमा कम करना। फिलहाल सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों के लिए यह 21 वर्ष से 32 वर्ष है और एससी/एसटी के लिए 21 से 37 वर्ष तक और ओबीसी के लिए 21 से 35 वर्ष। पूर्व सैनिक आदि को दी जाने वाली रियायतों को जोड़ दें तो अधिकतम उम्र 42 वर्ष तक हो जाती है। आप इस तथ्य पर चकित हो सकते हैं। प्रशासनिक सुधार आयोग, प्रोफेसर वाईपी अलघ के नेतृत्व वाली कई उच्च स्तरीय समितियों, आयोगों ने अधिकतम उम्र को घटाने की जोरदार सिफारिश की, लेकिन राजनीतिक हानि-लाभ के गणित के चलते ऐसी हर सिफारिश ठंडे बस्ते में पड़ी रही। विशद अध्ययन, अनुभव के बाद इन सिफारिशों में बार-बार यह कहा गया है कि इतनी बड़ी उम्र में भर्ती अधिकारियों को न तो सामाजिक एवं प्रशासनिक जरूरतों के हिसाब से सिखाना, मोड़ना संभव होता है और न ही तंत्र को उनकी सेवाओं का पूरा फायदा मिलता है।
ब्रिटिश भारत में इंडियन सिविल सेवा से शुरू हुई और अब भारतीय प्रशासनिक सेवा से जानी जाने वाली इस सेवा में भर्ती की मूल भावना यही थी कि मेधावी अफसर कम उम्र में भर्ती होकर पर्याप्त ऊर्जा के साथ उच्च पदों पर जिम्मेदारी संभालें। यही कारण था कि अधिकतम उम्र शुरू में 19 थी जो बढ़ाकर 21 की गई। फिर आजादी के बाद कई बार के उलटफेर के बाद 24 हुई फिर 26। वर्ष 1979 में भर्ती प्रक्रिया में ऐतिहासिक परिवर्तन हुए। भारतीय प्रशासनिक, पुलिस, विदेश, राजस्व, रेलवे समेत सभी 20 सेवाओं की भर्ती को सिविल सेवा परीक्षा नाम दिया गया और उम्र 26 से बढ़ाकर 28 वर्ष की गई। अनुसूचित जातियों के लिए अधिकतम उम्र 33 रखी गई, इस तर्क के साथ कि वंचित तबके के ग्रामीण नौजवानों को ज्यादा मौका मिलें। भारतीय भाषाओं में उत्तर देने का विकल्प भी पहली बार मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार के समय मिला। सच्चे मायने में प्रशासनिक सेवाओं का लोकतांत्रीकरण हुआ। अपनी भाषाओं में परीक्षा के विकल्प से परीक्षा में बैठने वालों की संख्या वर्ष 1979 में इसीलिए दस गुनी ज्यादा हो गई। आजादी के बाद पहली बार गरीब वंचित, पहली पीढ़ी के शिक्षित छात्र प्रशासनिक सेवाओं में आए। वर्ष 1989 में सतीश चंद्र समिति ने भी मामूली फेरबदल के साथ इन सभी सुधारों पर मुहर लगाई, लेकिन 1990 के मंडल आंदोलन की राजनीतिक लपटों से यह परीक्षा भी प्रभावित हुई और अधिकतम उम्र बढ़ाकर 30 वर्ष कर दी गई। इतना ही नहीं मनमोहन सरकार के समय एक और अतार्किक और वोट बैंक से प्रेरित निर्णय ने इसे बढ़ाकर 32 वर्ष कर दिया। बासवान समिति ने इन सभी मुद्दों पर देश भर के लोगों से विमर्श किया है। वह स्वयं लाल बहादुर शास्त्री अकादमी, मसूरी के निदेशक रहे हैं और देश की जरूरतें, शिक्षा प्रणाली और नौजवानों की आकांक्षाओं को बेहतर समझते हैं। इसलिए उनकी सिफारिश अधिकतम उम्र 26 या 28 को तुरंत प्रभाव से लागू करना राष्ट्रीय हित में होगा। ध्यान रहे कि कमजोर वर्गों को अतिरिक्त पांच वर्ष की रियायत तो रहेगी ही।


इस प्रश्न पर विचार किया ही जाना चाहिए कि जिस देश में दुनिया की सबसे ज्यादा नौजवान आबादी हो, वहां उसकी सर्वोच्च सेवा में ‘बूढ़ों’ की भर्ती से कौन से सामाजिक न्याय का हित हो सकेगा? 25 वर्ष के आसपास की यही नौजवान पीढ़ी नए से नए स्टार्ट-अप, उद्यमों के जरिये दुनियाभर में डंका बजा रही है। कुछ ने तो कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही सफलता के करिश्में कर डाले हैं। बासवान समिति की दूसरी महत्वूपर्ण सिफारिश है पूरी परीक्षा में हर उम्मीदवार के लिए एक समान प्रश्न पत्र। कोई वैकल्पिक विषय नहीं। वर्ष 2011 से पहले सिविल सेवा परीक्षा में दो वैकल्पिक विषय होते थे। बाद में एक ही रहने दिया गया। हालांकि तब भी इसे हटाने की सिफारिश की गई थी, लेकिन भाषाई निहित स्वार्थों के चलते उसे टाल दिया गया। क्या गणित, संस्कृत, मलयालम, उर्दू, मैथिली, भौतिकी के विषय एक पलड़े में रखे जा सकते हैं? हमें सिविल सेवा परीक्षा के जरिये सर्वश्रेष्ठ मेधा को चुनना होता है न कि किसी भाषा, प्रांत के उम्मीदवार को। इंजीनियरिंग, नीट, जी मैट, कैट में भी तो यही एकसमान प्रणाली लागू है। भारतीय भाषाओं की राजनीति से इसे जोड़ने की जरूरत नहीं है। इसके बावजूद भारतीय भाषाओं के पक्ष में देश को कुछ अपेक्षाएं भी हैं।
वर्ष 1979 में जब सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं में उत्तर देने की शुरुआत की गई थी तो शिक्षाविद कोठारी को यह उम्मीद थी कि जल्द ही दूसरी अखिल भारतीय सेवाओं- वन सेवा, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, आर्थिक, रक्षा सेवाओं में भी भारतीय भाषाओं में पढ़ने वालों को मौका मिलेगा, लेकिन आज लगभग 40 वर्ष बाद भी अपनी भाषाओं में पढ़ने वाले दर-दर भटक रहे हैं और अंग्रेजी निरंतर हावी होती जा रही है। यह निर्णय भी यही सरकार ले सकती है, क्योंकि अनुभव बताता है कि कांग्रेसी सरकारें कभी भी भारतीय भाषाओं के पक्ष में नहीं रहीं। देश को एक और अपेक्षा है इस समिति से और वह यह कि भर्ती के बाद प्रशिक्षण प्रक्रिया में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाए। इन सेवाओं में आने वाले नौजवानों को अनंत सुविधाओं और लाटसाहबी से पहले जन सेवक के दायित्वों के साथ-साथ उस समाज, संस्कृति, भाषा को समझना होगा जिसकी सेवा के लिए उन्हें तमाम सुविधाएं दी जाती हैं। जन-जन को यह संदेश देना होगा कि कलक्टरी, हाकिम के पद सिर्फ सुविधाएं अर्जित करने के लिए नहीं हैैं। ब्रिटिश उपनिवेशी मिजाज से पूरी मुक्ति चाहिए और वह भी तुरंत। बासवान समिति की कुछ सिफारिशें कड़वी गोली की तरह हो सकती हैैं, लेकिन उन्हें लागू करने में ज्यादा देर नहीं की जानी चाहिए। उम्मीद की जाती है कि मोदी सरकार देश हित में एक और कठोर फैसला लेने में हिचकेगी नहीं।
[ लेखक रेल मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहे हैैं ]