न बीते सौ सालों से आधुनिक युग के अनुरूप सहज बनने के लिए संघर्ष कर रहा है। यह संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित नागरिक स्वतंत्रता के योद्धा ली शाओबो और उनकी मृत्यु इसे पुन: दर्शा गई। आश्चर्य है कि चीनी सत्ता से त्रस्त भारतीय राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग यह नहीं देख पाया कि वह सत्ता किस चीज से त्रस्त है! वरना भारत के स्वतंत्र वातावरण में ली शाओबो को प्रसिद्धि और श्रद्धांजलि मिलनी चाहिए थी। यही वह चीज होती, जिससे चीनी सत्ता को अपनी हैसियत और हमारी सद्भावनापूर्ण शक्ति का बोध होता। सद्भावना और निर्भीकता एक साथ दिखनी चाहिए। वस्तुत: स्वयं ली इसी से प्रसिद्ध हुए।

उन्होंने अपने जीवन के अंतिम आठ वर्ष जेल में बिताए। केवल यह कहने के अपराध में कि सोचने-विचारने, लिखने-बोलने की स्वतंत्रता के बिना चीन कभी गौरवशाली देश नहीं बन सकता। उत्पीड़न के बाद भी उनका कहना था कि, ‘मेरा कोई शत्रु नहीं है और मेरे मन में किसी के प्रति घृणा नहीं है।’ ठीक यही भावना भारतीय बौद्धिक समाज को भी दर्शानी चाहिए। यह चीन को हमारा सशक्त प्रत्युत्तर होगा। हम मुक्त समाज हैं और मुक्तिकामी योद्धाओं को मान-सम्मान देना, उनके लिए संवेदना रखना और प्रकट करना हमारा कर्तव्य और गौरव भी है। नहीं तो बंकिम और टैगोर पर गर्व का मतलब ही क्या! अफसोस कि हमारे नेता और बुद्धिजीवी ऐसे मौके चूक जाते हैं जहां चीन हमारे सामने दुर्बल है।

ली शाओबो की मृत्यु की स्थितियां बताती हैं कि चीनी कम्युनिस्ट सत्ता कितनी कमजोर है। कैंसर का अंतिम चरण घोषित हो जाने पर भी ली को इलाज के लिए बाहर न जाने दिया गया। यहां तक कि उन्हें मुत्यु से पहले अपना अंतिम संदेश तक देने नहीं दिया गया, क्योंकि चीनी तानाशाही को सदैव भय लगा रहता है कि किसी के दो शब्द भी उसकी ‘सत्ता के विघटन’ का कारण बन सकते हैं। यही आरोप ली पर लगाकर उन्हें आठ वर्ष पहले जेल में बंद कर दिया गया था, जबकि ली का संपूर्ण प्रयत्न वर्तमान चीनी संविधान के अनुरूप और अहिंसक था। उन्होंने संविधान में दिए गए अधिकारों को ही लागू करने की मांग भर की थी। उस संविधान में वोट देने और सरकार की आलोचना करने का अधिकार दर्ज है, किंतु व्यवहार में ऐसे हर कार्य को ‘सत्ता के विघटन’ और ‘शांति भंग करने’ का कार्य बताकर दंडित किया जाता है। चीन में किसी अहिंसक विरोधी को भी परेशान किया जाता है या आपराधिक मामले लगाकर त्रस्त किया जाता है। इससे चीनी सत्ता का डर ही झलकाता है। उसे अहसास है कि आर्थिक विकास, सेंसरशिप और दमन के बल पर ही चीनी लोग उसे चुपचाप स्वीकार किए हुए हैं। अभी तो तमाम आम चीनी नागरिक जानते भी नहीं कि ली शाओबो कौन थे?

चीनी सत्ता ने आर्थिक लाभ-लोभ दिखा कर दुनिया के लोकतांत्रिक देशों को भी चुप करवाया हुआ है। चीन से सरोकार रखने वाली पश्चिमी कंपनियों, व्यापारियों, पत्रकारों, विद्वानों, संस्कृतिकर्मियों आदि सभी को वीजा देने या प्रतिबंधित करने आदि तरीकों से दबाव में रखा जाता है ताकि वे चीनी तानाशाही पर कोई असुविधाजनक बात न बोलें। ऐसे तरीकों से चीन की छवि को जबरन बेहतर बना कर रखा गया है। पश्चिमी सरकारें न चीन में मानवाधिकारों का प्रश्न उठाती हैं, न तिब्बत या हांगकांग की स्थिति पर कुछ बोलती हैं। सोवियत संघ के विघटन और चीन में तियानानमेन स्क्वायर जैसी घटनाओं से चीनी सत्ता को बखूबी मालूम है कि जनता की स्वीकृति या मौन किसी भी चीज से अवसर पाते ही टूट सकता है। यदि लोगों को महसूस हो जाए कि तानाशाही सरकार ङिाझक या दुविधा में है तो किसी भी समस्या-भ्रष्टाचार, कुव्यवस्था, पर्यावरण विनाश, सरकारी कपट या मिथ्याचार आदि पर उसे भड़कने में देर नहीं लगेगी।

नोबेल सम्मान विजेता ली के साथ चीनी तानाशाही ने जो अमानवीय व्यवहार किया वह अपनी जनता को यह दिखाने के लिए ही किया कि सत्ता का विरोध कर कोई दंडित होने से बच नहीं सकता, चाहे वह कितना ही सज्जन, सम्मानित व्यक्ति क्यों न हो। इसीलिए ली को अदालत में भी अपनी अंतिम बात कहने का मौका नहीं दिया गया था। उन्हें नोबेल पुरस्कार लेने के लिए जाने की अनुमति भी नहीं दी गई। अंतिम चरण का कैंसर पता चलने के बाद भी जेल से छोड़ा नहीं गया। यह सब इसलिए ताकि लोगों को सत्ता की कठोरता का अंदाजा रहे। चीनी सत्ता कोई समग्र चट्टान नहीं है। उसमें भी अंतर्विरोध हैं जिसे पहले कई बार देखा जा चुका है। फिर बाहरी दुनिया भी है जहां चीनी कारोबार फैला हुआ है। ठीक है कि अभी दुनिया के लोकतांत्रिक देश उसकी आर्थिक ताकत से चुप हैं, लेकिन यह स्वाभाविक स्थिति नहीं है।

चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही के प्रति निरंतर ऐसे झुके रहने से स्वयं लोकतांत्रिक देशों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। पश्चिमी लोग ऐसा दोहरापन अधिक नहीं ङोल सकते। वैसे भी आज की दुनिया में स्वतंत्रता और तानाशाही का सह-अस्तित्व अधिक समय तक नहीं रह सकता। यह सच है कि अमेरिका के सिवाय कोई देश अभी चीन और तिब्बत में नागरिक स्वतंत्रता के दमन पर नहीं बोलता, पर यह असहज स्थिति है। किसी न किसी बहाने यह बदलेगी ही। भारत भी इसे बदल सकता है, इस रोचक बात को भारतीय राजनीतिक वर्ग ही नहीं समझता। भारत एक ऐसा देश है जिसकी जीवनशैली और अर्थव्यवस्था में पारंपरिक और आधुनिक तत्वों का अनोखा मिश्रण है। इसीलिए हम बुनियादी मामलों में काफी हद तक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था हैं। दूसरी ओर विश्व राजनीति में भारत की भूमिका सीमित है।

इसलिए चीन किसी भी क्षेत्र में भारत को वास्तव में दबाने की स्थिति में नहीं है। यदि भारत ने चीन की धौंस-पट्टी को अस्वीकार करना और वहां नागरिक, सांस्कृतिकदमन के मुद्दे को परोक्ष रूप से भी रेखांकित करना एवं नैतिक समर्थन देना आरंभ कर दिया तो चीनी सत्ता के लिए बड़ी कठिन स्थिति होगी। इससे चीन में नागरिक स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले लोगों का मनोबल बढ़ेगा, जिसका महत्व कम करके नहीं आंकना चाहिए। 2008 में जिस ‘लोकतंत्र घोषणापत्र’, चार्टर-8 को प्रकाशित करने के लिए ली को जेल में बंद किया गया था, उसमें सामान्य लोकतांत्रिक मूल्यों की ही चाह व्यक्त की गई थी।

अच्छा हो, ली को श्रद्धांजलि स्वरूप उसे यहां और पूरी दुनिया में प्रमुखता से प्रसारित किया जाए। इससे चीनी तानाशाही की क्षुद्रता भी उजागर होगी, जो अपने ही लोगों की दो मामूली बात भी ङोलने की सामथ्र्य नहीं रखती। चीनी तानाशाही को यह जताना जरूरी है कि बड़ी-बड़ी तानाशाहियां नहीं रहीं, न कोई रहेगी। बस समय की बात है। जैसा सोल्ङोनित्सिन ने कहा था, एक अकेली और सच्ची आवाज भी झूठ के विशाल अंबार पर भारी पड़ती है। दरअसल इसी कारण कैंसर से मरणासन्न ली शाओबो के अंतिम संदेश से भी चीनी तानाशाही डरी रही। हमें ली की विरासत का सम्मान करना और अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।

(लेखक शंकर शरण राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)