दिव्य कुमार सोती

हाल में तिब्बती समुदाय के सर्वोच्च धर्मगुरु दलाई लामा ने अरुणाचल प्रदेश का दौरा किया। इस दौरान वह तवांग भी गए जिस पर चीन लंबे समय से दावा जताता आ रहा है। जैसा कि अपेक्षित था, चीन ने इस दौरे पर गंभीर आपत्तियां जताईं और दलाई लामा के क्रियाकलापों को शर्मनाक करार दिया। दलाई लामा का यह अरुणाचल दौरा उस समय हुआ जब चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ट्रंप सरकार के आने के बाद अपने पहले आधिकारिक अमेरिका दौरे पर थे। चिनफिंग का यह दौरा काफी सफल रहा, क्योंकि वह उत्तर कोरिया संकट सुलझाने में अहम भूमिका निभाने का प्रस्ताव देकर राष्ट्रपति ट्रंप को फिलहाल चीन के प्रति उनकी कठोर नीति छोड़ने के लिए मनाने में सफल रहे, लेकिन इस सफल अमेरिका यात्रा के दौरान तिब्बत में मानवाधिकार उल्लंघनों के मुद्दे ने चीनी राष्ट्रपति का पीछा नहीं छोड़ा। एक ओर जहां तिब्बत में चीनी उत्पीड़न से तंग आकर बौद्ध भिक्षुओं के आत्मदाह करने के नए मामले सामने आए वहीं दूसरी तरफ कई प्रभावशाली अमेरिकी सांसदों के गुट ने अमेरिकी संसद के दोनों सदनोंं में विधेयक लाकर अमेरिकी मीडिया को तिब्बत में पूरी स्वतंत्रता से काम करने देने की मांग रखी।
दलाई लामा के इस हालिया अरुणाचल दौरे से कुछ खास बातें सामने आई हैं जो भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों पर गहरा असर छोड़ेंगी और तिब्बती समुदाय के संघर्ष की दिशा भी तय करेंगी। चीन लंबे समय से तिब्बत के धार्मिक और सांस्कृतिक प्रबंधन पर कब्जा करने के उद्देश्य से अगले दलाई लामा को खुद ही नियुक्त करने की योजना बना रहा है। तवांग में इस मुद्दे पर प्रश्न पूछे जाने पर दलाई लामा ने कहा कि उनके उपरांत उनके पद के भविष्य का फैसला तिब्बती समुदाय ही करेगा। इस बयान का मतलब यह निकलता है कि तिब्बती जनता भविष्य में चाहे तो दलाई लामा का पद समाप्त कर सकती है या एक प्रक्रिया के तहत नया दलाई लामा चुन सकती है। इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए चीनी सरकार ने ऐलान किया कि अगले दलाई लामा का चुनाव वह तिब्बत में एक प्रकार के लकी ड्रा द्वारा करेगी। जाहिर है कि चीन द्वारा चुना गया दलाई लामा बीजिंग की कठपुतली भर होगा। दलाई लामा का चुनाव एक जटिल धार्मिक प्रक्रिया रही है, लेकिन बदले हालात में शायद वह सब संभव न हो। ऐसे में बेहतर होगा कि दलाई लामा अपने जीवनकाल में ही अन्य बड़े तिब्बती धर्मगुरुओं की सम्मति से अपने उत्तराधिकारी के चयन की प्रक्रिया तय करें जिसमें धार्मिक और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का समावेश हो। दलाई लामा पद की परंपरावादी तिब्बती समाज में बड़ी महत्ता है और ऐसे में जब चीन एक फर्जी दलाई लामा की नियुक्ति की पटकथा लिख रहा है तो अगले दलाई लामा की नियुक्ति राजनीतिक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण होगी, क्योंकि चीनी सरकारी सेंसरशिप के चलते तिब्बत में लोग विश्व से कटे हुए हैं और चीनी सरकारी मीडिया के दुष्प्रचार के साये में जी रहे हैं।
दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा के बाद चीनी विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा कि इसका भारत के साथ सीमा विवाद पर असर पड़ेगा। भारत लंबे अर्से से तिब्बत कार्ड का इस्तेमाल करीब-करीब बंद कर चुका है और सीमा विवाद का हल तिब्बत मसले को अलग रखकर ढूंढ़ने में प्रयासरत है। इस दौरान भारत समय-समय पर चीन की आक्रामक विदेश नीति जिसमें नत्थी वीजा जारी करने जैसे कदम शामिल रहे हैं, को भी नजरअंदाज करता रहा, लेकिन पिछले कुछ महीनों में चीनी सरकारी मीडिया ने बहुत सी सीमाएं लांघी हैं। इनमें चीनी सेना के 48 घंटे में दिल्ली पहुंचने जैसी हास्यास्पद धमकी भी शामिल है, परंतु हद तो तब हुई जब चीन की ओर से प्रमुख वार्ताकार रहे एक सेवानिवृत्त राजनयिक से यह बयान दिलाया गया कि चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा नहीं छोड़ सकता और अगर भारत वहां से पीछे हटने को राजी हो तो चीन अन्य विवादित क्षेत्रों पर रियायत बरत सकता है। यह बयान भारतीय विदेश सचिव की चीन यात्रा से ठीक पहले आया था। नतीजतन दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने पलटवार करते हुए कहा कि उनके प्रदेश की सीमा चीन से नहीं, बल्कि तिब्बत से मिलती है। इस गर्मागर्मी के बावजूद भारतीय विदेश मंत्रालय ने संयम बनाए रखते हुए ‘वन चाइना’ नीति से प्रतिबद्धता जताई, परंतु चीन ने सारी लक्ष्मण रेखाएं लांघते हुए अरुणाचल के छह स्थानों के चीनी भाषा में नाम घोषित कर दिए।
जब चीन वन इंडिया का समर्थन नहीं कर रहा और स्वयं ही तिब्बत मसले को सीमा विवाद से जोड़ रहा है तो भारत का वन चाइना नीति से बंधे रहने का क्या मतलब रह जाता है? इसके पहले चीन ने पूरे दक्षिण चीन सागर पर कब्जा जमाने के इरादे से इसी प्रकार टापुओं का चीनी भाषा में नामकरण किया था। यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब अगले कुछ महीनों तक चलने वाली ब्रिक्स मंत्री समूहों की बैठकों में भाग लेने के लिए भारत सरकार के कई मंत्रियों को चीन दौरे पर जाना है। चीन यह भी चाहता है कि भारत कम से कम अपने किसी अधिकारी को प्रतिनिधि के तौर पर अगले महीने होने वाले वन बेल्ट-वन रोड सम्मेलन में भेजे। ध्यान रहे कि चीन-पाक आर्थिक गलियारा यानी सीपेक, जो पाकिस्तान द्वारा कब्जाई गई भारतीय भूमि से गुजरता है, वन बेल्ट-वन रोड का हिस्सा है। भारत का इस सम्मेलन में भाग लेना एक तरह से चीनी अतिक्रमण को सहमति देना होगा। जब चीन मौलाना मसूद अजहर पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंध लगाने और भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता मिलने जैसे मसलों पर हमारी राह में लगातार रोड़े अटका रहा हो तो वह हमसे इतनी बड़ी रियायत की उम्मीद कैसे कर सकता है? भारत को तिब्बत से लेकर चीन पाक आर्थिक गलियारे तक चीजों को एक सामरिक श्रृंखला के रूप में देखते हुए एक समग्र नीति अपनानी चाहिए। नई दिल्ली से बीजिंग को स्पष्ट संदेश मिलना चाहिए कि कड़ी सौदेबाजी में भारत भी कमतर नहीं है और अगर चीन सीमा विवाद पर जोर जबरदस्ती से भारत से कुछ हासिल करने की कोशिश करेगा तो उसे तिब्बत से लेकर बलूचिस्तान तक समस्याएं झेलनी पड़ सकती हैं।
[ लेखक काउंसिल फॉर स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं ]