आरपी सिंह
द्वितीय विश्व युद्ध के चार दशकों बाद तक दुनिया दो खेमों में बंटी रही। एक खेमे की अगुआई अमेरिका कर रहा था तो दूसरे की कमान पूर्व सोवियत संघ के हाथों में थी। हालांकि नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन और वारसा की संधि समाप्त होने के बाद ये खेमे भी खत्म हो गए। लगा कि दुनिया एकध्रुवीय हो जाएगी। विश्वविख्यात राजनीतिक विश्लेषक फ्रांसिस फुकुयामा ने इसका निचोड़ यही निकाला कि अब पश्चिमी अवधारणा वाला लोकतंत्र ही शासन की इकलौती स्वीकार्य शैली रह जाएगी। उनकी भविष्यवाणी जल्द ही गलत साबित हो गई और यूरोपीय संघ, कुछ लैटिन अमेरिकी देशों के अलावा नई क्षेत्रीय ताकत के रूप में चीन के उभार ने अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती पेश की। हालांकि ब्रेक्सिट और कई यूरोपीय देशों में राष्ट्रवादी दलों के उभार से यूरोपीय संघ की ताकत में कमी आई है। वहीं समय के साथ चीन ने आर्थिक एवं सैन्य शक्ति खासी बढ़ाई है। 2013 में सत्ता संभालते ही शी चिनफिंग चीन को महाशक्ति का दर्जा दिलाने की पुरजोर कोशिश में जुट गए। चीन ने अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों के साथ व्यापार एवं निवेश के भारी-भरकम करार किए। अपने पड़ोसियों के बीच चीन खुद को महाशक्ति के तौर पर पेश करता है। भीमकाय आकार में बढ़ा उसका व्यापार और जीडीपी उसकी ऊंची छलांग को दर्शाते हैं। शी अपनी कूटनीतिक शैली से उन देशों को साधने में भी कामयाब रहे जो चीन को भी अड़ियल देश मानते आए थे। चीन ने रूस और मध्य एशियाई देशों के साथ मिलकर जिस शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ की बुनियाद रखी शुरुआत में उसे पूरब के नाटो के रूप में प्रचारित किया गया। हालांकि भारत के एससीओ का पूर्ण सदस्य बनने के बाद अब ऐसी आशंका खत्म हो गई है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के साथ ही किसी देश को महाशक्ति मानने के मानदंड ही बदल गए। अब किसी देश का भौगोलिक आकार, आबादी, अर्थव्यवस्था, सैन्य शक्ति, कूटनीतिक कौशल जैसे पैमाने किसी देश को महाशक्ति का दर्जा हासिल करने के पैमाने बन गए हैं। क्षेत्रफल के लिहाज से भारत दुनिया का सातवां सबसे बड़ा देश है जिसकी आबादी तकरीबन 1.3 अरब है। इसकी अर्थव्यवस्था भी तीन लाख करोड़ डॉलर की है जो सालाना सात फीसदी से अधिक की दर से बढ़ रही है।
भारत के पास दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना भी है जिसका तेजी से आधुनिकीकरण हो रहा है। ये सभी पहलू उसे महाशक्ति का दर्जा दिलाने की कूवत रखते हैं। 2014 में सत्ता संभालने के बाद से ही प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को ऊंची आर्थिक वृद्धि के पथ पर अग्र्रसर करने के लिए कई नए कदम उठाए। उन्होंने कूटनीतिक मोर्चे पर भी कई व्यावहारिक एवं दूरदर्शी पहल भी की है। स्टार्टअप इंडिया एवं स्टैंडअप इंडिया के साथ नोटबंदी, जीएसटी आदि के जरिये अर्थव्यवस्था को अपेक्षित गति मिली है। माना जाता है कि अगले पांच से दस वर्षों के दौरान भारत दो अंकों में वृद्धि दर्ज करने की स्थिति में आ जाएगा। दूसरी ओर चीनी अर्थव्यवस्था चरम पर पहुंचने के बाद उतार की ओर है। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि अगर यही रुझान कायम रहा तो 2025 तक भारत चीन की बराबरी कर लेगा और 2050 तक उसे पछाड़ भी देगा। हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय विकास केंद्र की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, ‘पिछले कुछ वर्षों के दौरान वैश्विक वृद्धि की धुरी चीन से खिसककर पड़ोसी भारत की ओर केंद्रित हो गई है और अगले दशक तक यही स्थिति कायम रहने के आसार हैं।’ 2015 के ताजा आंकड़े चीन के निर्यात में गिरावट को दर्शाते हैं। वैश्विक वित्तीय संकट के बाद से चीन की आर्थिक रैंकिंग भी कम हुई है। भले ही तेज आर्थिक वृद्धि के चलते चीन में बढ़ी आमदनी के कारण विषमता कम हुई हो, लेकिन यह तय है कि अब वहां सुस्ती के संकेत नजर आने लगे हैं। अधिकांश आर्थिक विश्लेषकों को लगता है कि भारत इक्कीसवीं सदी की महाशक्ति बनेगा। भारत में परिपक्व लोकतंत्र की सहजता और मोदी सरकार को कोशिशों के चलते भ्रष्टाचार में आई कमी से भारत निकट भविष्य में उद्यमों के लिए पसंदीदा ठिकाने के रूप में और ज्यादा मजबूती से उभरेगा। तेज वृद्धि के प्रतिफल को देश के वंचित वर्ग तक पहुंचाने की उचित व्यवस्था और ऊर्जा संसाधनों के समझदारी से उपयोग के चलते भारत मिसाल बनने का माद्दा रखता है। युवा आबादी और दुनिया में अंग्र्रेजी जानने वाले दूसरे सबसे बड़े देश के रूप में भारत को चीन के ऊपर बढ़त भी हासिल है। अधिकांश औद्योगिक देशों में युवाओं की संख्या घटने पर है। इसका अर्थ है कि वहां कामकाजी आबादी की किल्लत होगी। उनकी तुलना में भारत के पास ऐसे युवाओं का हुजूम होगा। हार्वर्ड विवि की रपट के अनुसार इसके आधार पर भारत की प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2050 तक मौजूदा स्तर के मुकाबले 20 गुना तक बढ़ जाएगी।
इस साल मई में अपनी वन बेल्ट, वन रोड योजना की पेशकश के वक्त चीन ने उम्मीद जताई थी कि इस योजना और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी से जुड़कर भारत हमेशा के लिए उसके प्रभुत्व को स्वीकार कर ले। हालांकि कुछ स्वंयभू रणनीतिकारों ने इस योजना से जुड़ने की वकालत भी की थी, मगर मोदी ने उससे जुड़ने के बजाय चीन की चुनौती स्वीकारते हुए आर्थिक वृद्धि की अपनी एशियाई-अफ्रीकी वृद्धि गलियारे के जरिये उसका जवाब देने का निश्चय किया। जापान के सहयोग के अलावा अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, यूरोपीय संघ और युंगाडा, केन्या, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, वियतनाम और थाईलैंड जैसी अफ्रीका और एशिया की उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के साथ से मोदी की यह आर्थिक परियोजना बीजिंग के सामने भारत का कद बढ़ा सकती है। यह स्थिति ही चीन की चिंता का कारण नजर आती है। गैर-लोकतांत्रिक ढांचे और कारोबारी सौदों में पारदर्शिता की कमी और मनमाने रुख के चलते चीन अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से एक कटा हुआ है जो उसे वैश्विक महाशक्ति का दर्जा दिलाने में अवरोध की तरह है। वहीं सभी देशों के बीच भारत की छवि बेहतर होने के साथ ही स्वीकार्यता भी ज्यादा है। इन पहलुओं के अलावा देश का नेतृत्व भी उसे प्रतिस्पद्र्धी देशों पर बढ़त बनाने में अहम भूमिका निभाता है।
मोदी में भी कुछ दुर्लभ कूटनीतिक गुण नजर आते हैं। विदेशी समकक्षों के साथ निजी रिश्तों में गर्मजोशी उनकी खास थाती है। वह तुनकमिजाज नेताओं का दिल भी जीत सकते हैं। बेहतरीन संवाद कौशल, दूरदर्शिता और भारत को आगे ले जाने की असीम उत्कंठा उनमें प्रत्यक्ष दृष्टिगत होती है। चाहे अमेरिकी ट्रंप हों या ओबामा या रूस के पुतिन, मोदी ने सभी के साथ बेहतर निजी रिश्ते बनाने में सफलता हासिल की है। तीन सालों के दौरान मोदी ने वैश्विक समुदाय में भारत को अग्र्रणी देशों की पांत में ही रखा है। हालिया अमेरिका, इजरायल और जी-20 के लिए जर्मनी की यात्रा में उन्होंने अपने कूटनयिक कौशल की छटा बिखेरी है। इजरायल के साथ प्रगाढ़ होते संबंधों में भारत को सैन्य, कृषि, ऊर्जा, सामुद्रिक, अंतरिक्ष और साइबर स्पेस में अत्याधुनिक तकनीक का लाभ मिलेगा। इससे भारत जर्मनी, अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे तकनीक समृद्ध देशों का मुकाबला कर सकता है। हाल में बढ़ी चीनी चुनौती को देखते हुए जापान और अमेरिका के साथ चल रहा मालाबार अभ्यास भी मोदी के कूटनयिक कौशल को दर्शाते हुए इस पर मुहर लगाता है कि भारत महाशक्ति बनने की सही राह पर है।
[ लेखक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं ]