पर और उपकार दो शब्दों से मिलकर बना है, परोपकार। इसका अर्थ है, निस्वार्थ भाव से दूसरों की सहायता करना। हमारी पूरी प्रकृति परोपकार पर टिकी है। सूर्य नित्य अपनी किरणों से इस संसार को प्रकाशित करता है, तो रात्रि में चांद अपनी चांदनी बिखेरता है, जबकि नदियां अपने जल से हमारी प्यास बुझाती हैं और पेड़-पौधों से हमें भोजन व ऑक्सीजन मिलती है। इसी तरह मनुष्य का दायित्व है कि वह भी दूसरों पर उपकार करे। तुलसीदास ने लिखा है, परोपकार के समान कोई धर्म नहीं और पर-पीड़ा के समान कोई पाप नहीं है। परोपकार करके मनुष्य आत्मिक आनंद प्राप्त कर सकता है, क्योंकि दूसरे की आत्मा को सुख पहुंचाकर वह अपनी ही आत्मा को सुखी बनाता है। मन, वचन और कर्म से परोपकार करने वाले मनुष्य संत की श्रेणी में आते हैं। दधीचि ऋषि ने देवताओं की रक्षा के लिए अपनी अस्थियां दान कीं, जबकि कर्ण ने अपने कवच और कुंडल याचक बने इंद्र को दे दिए। सच्चा परोपकारी वही है, जो प्रतिफल की कामना न करते हुए परोपकार करता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, शुभ कर्म करने वाले का न यहां और न ही परलोक में विनाश होता है। शुभ कर्म करने वाला सद्गति को प्राप्त होता है। परोपकार ईश्वर प्राप्ति का एक मार्ग भी है। मनुष्य जितना परोपकारी बनता है, वह उतना ही ईश्वर के समीप पहुंच जाता है। परोपकार करने से मनुष्य के जीवन की शोभा और महिमा बढ़ जाती है। सच्चा परोपकारी सदा खुश रहता है और उसे दूसरों की मदद करने में हर्ष की अनुभूति होती है। वेदों में कहा गया है कि मनुष्य को ऐसा पवित्र और शुद्ध जीवन जीना चाहिए, जिससे समाज में उपकार, दानशीलता और सृजनता की भावना पैदा हो। वेदों का दर्शन यही है कि हम उत्तम बनकर उत्तम कर्म करें। यदि कोई मनुष्य धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन करता है, लेकिन वह परोपकार का कोई काम नहीं करता है, तो उसके धार्मिक अनुष्ठानों का कोई औचित्य नहीं होता। जिस अनुष्ठान से मनुष्य का ही भला नहीं होता, देवता भी उसे ग्रहण नहीं करते हैं। मनुष्य के लिए परोपकार से बड़ा कोई दूसरा धर्म नहीं है। परोपकार केवल आर्थिक रूप में नहीं होता, बल्कि इसके लिए धन से ज्यादा जरूरी तन और मन है। परोपकार करने से यदि मनुष्य को आंतरिक संतोष प्राप्त हो, तो उस परोपकार का कोई अर्थ नहीं होता। परोपकार से शत्रु को भी मित्र बनाया जा सकता है।
महर्षि ओम