यह स्वर अक्सर सुनने को मिलता है कि आज आदमी, आदमी नहीं रहा। दार्शनिक-विचारक खलील जिब्रान का मार्मिक कथन है कि ईश्वर का पहला चिंतन था-फरिश्ता और ईश्वर का ही पहला शब्द था-मनुष्य। ईश्वर के प्रारंभिक दोनों ही चिंतन आज लुप्तप्राय हैं। खरबूजे को देखकर जैसे खरबूजा रंग बदलता है, वैसे ही आदमी-आदमी को देखकर रंग बदलता है। इन्हीं स्थितियों के बीच दार्शनिक डॉ. राधकृष्णन की इन पंक्तियों का स्मरण हो आया-‘हमने पक्षियों की तरह उड़ना और मछलियों की तरह तैरना तो सीख लिया है, किंतु मनुष्य की तरह पृथ्वी पर चलना और जीना नहीं सीखा है।’ सत्य को जीना हमारे जीने का महत्वपूर्ण हिस्सा है, पर भ्रम से उपजी गलतफहमियां भी आपसी संबंधों को जख्मी बना देती हैं। कहीं कोई गलत न भी हो, पर गलतफहमी यदि हो तो फिर मन के फासले पाटने बहुत कठिन होते हैं। तब सत्य की तलाश अधूरी रह जाती है, आदमी आदमी से अलग हो जाता है। उम्र का एक चेहरा माया, छल-कपट भी है। क्षेत्र चाहे राजनीति का हो या आम जीवन का, सचाई है कहां? सब जगह दांवपेच की नीति चलती है। कथनी और करनी के बीच की दूरियां धर्म, कानून, व्यवस्था, सुरक्षा, संरक्षण और विकास की योजनाओं पर प्रश्नचिन्ह लगा देती हैं। इन सबके बीच बेचारा भोला, साफ-सुथरा, सीधा आदमी ठगा जाता है।
आदमी भ्रम में जीता है। जो सुख शाश्वत नहीं है, उसके पीछे मृगमरीचिका की तरह भागता है। धन-दौलत, जर, जमीन, जायदाद कब रहे हैं इस संसार में शाश्वत। फिर भी आदमी मान बैठा कि मौत के बाद भी सब कुछ मेरे साथ जाएगा। इसलिए वह परिग्रह, मूच्र्छा, आसक्ति के चक्रव्यूह से निकल नहीं पाता और स्वार्थों के दल-दल में फंसकर कई जनम खो देता है। हर सुख-दुख बंद आंखों से देखा गया सपना होता है इसलिए उसका संवेदन नहीं होता, पर खुली आंखों से देखा गया और जीया गया जीवन भी तो कौन-सा शाश्वत है? भ्रमित चेतना उसी सुख-दुख की संवेदना पर जीती है जो सच में सिर्फ एक सपना है। इसलिए भ्रम टूटना जरूरी है। जिंदगी के सफर में नैतिक और मानवीय उद्देश्यों के प्रति मन में अटूट विश्वास होना जरूरी है।
[ ललित गर्ग ]