संजय गुप्त
भूटान के डोकलाम पठार में सड़क बनाने की चीन की कोशिश से उभरे विवाद को चीनी मीडिया के साथ-साथ वहां के विदेश मंत्रालय द्वारा जिस तरह भड़काया जा रहा है उससे दोनों देशों के बीच तनाव कहीं अधिक बढ़ गया है। चीन डोकलाम को अपना क्षेत्र बताते हुए वहां सड़क बनाना चाहता है, लेकिन भूटान इसे अपना हिस्सा मानता है और उसी ने भारत को अपनी मदद के लिए वहां बुलाया। भारत ने उसकी मदद करने में तत्परता इसलिए दिखाई, क्योंकि डोकलाम में चीन के सड़क बनाने से पूर्वोत्तर की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। चीन भारत की सुरक्षा चिंता समझने के बजाय लगभग हर दिन धमकाने वाली भाषा बोल रहा है। वह कभी भारत को 1962 के युद्ध की याद दिला रहा तो तो कभी यह अहंकार दिखा रहा कि भारत उसके सामने कुछ भी नहीं। वह जिस तरह भूटान के डोकलाम को हड़पने की कोशिश में तथ्यों को मनमाने तरह से पेश कर रहा है उसी तरह की कोशिश वह अरुणाचल के मामले में भी करता रहता है। पहले वह डोकलाम पर भूटान के साथ किसी तरह के विवाद से ही इन्कार कर रहा था, लेकिन अब यह मान रहा है कि उससे विवाद है। इस तरह तो वह अपनी ही पोल खोल रहा है। डोकलाम पर चीन के उग्र रवैये पर भारत का चिंतित होना स्वाभाविक है। पिछले दिनों राज्यसभा में विदेश नीति पर चर्चा के दौरान कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने सरकार को यह कहकर घेरने की कोशिश की कि आज भारत अलग-थलग पड़ गया है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने विपक्ष के सवालों का न केवल बिंदुवार जवाब दिया, बल्कि कांग्र्रेस को यह भी याद दिलाया कि चीन ने भारत के आसपास सामरिक रूप से तमाम महत्वपूर्ण कार्य तब किए जब केंद्र में उसके नेतृत्व वाली सरकार थी। सुषमा स्वराज ने जिस तरह तथ्यों के आधार पर कांग्रेस को आईना दिखाया उससे उसके साथ-साथ पूरे विपक्ष की बोलती बंद हो गई। विपक्ष विदेश नीति को लेकर केंद्र सरकार पर चाहे जैसे आरोप लगाए, सच यह है कि पिछले तीन वर्षों में विश्व समुदाय ने इस बात के लिए नरेंद्र मोदी का लोहा माना है कि कोई कूटनीतिक अनुभव न होने के बावजूद उन्होंने भारतीय विदेश नीति को नया आयाम दिया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का मान बढ़ा है और देश को एक बड़ी शक्ति के रूप में देखा जाने लगा है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस को यही नहीं पच रहा है और इसीलिए उसकी ओर से कई बेतुकी बातें की गईं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने डोकलाम विवाद की जानकारी लेने के नाम पर चीनी राजदूत से जिस तरह मुलाकात की उसके लिए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उन्हें आड़े हाथ लेकर बिल्कुल ठीक किया। इस पर आपत्ति नहीं कि राहुल ने चीनी राजदूत से मुलाकात की। आपत्ति इस पर है कि उन्होंने इस मुलाकात के पहले न तो भारतीय विदेश मंत्रालय को भरोसे में लिया और न ही उससे डोकलाम मसले पर कोई जानकारी ली। आखिर उन्होंने डोकलाम विवाद पर चीन का पक्ष जानने के पहले भारत सरकार का पक्ष जानने की कोशिश क्यों नहीं की? विदेश नीति पर सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास ठोस तर्कों का किस तरह अभाव था, इसका पता उसके इस आरोप से लगा कि प्रधानमंत्री विदेश दौरों के वक्त विदेश मंत्री को साथ नहीं ले जाते। ऐसे बेतुके आरोप पर सुषमा स्वराज ने मनमोहन सिंह की तरफ इशारा करके यह सही ही पूछा कि जब आप प्रधानमंत्री थे तो तब के विदेश मंत्री को कितनी बार विदेश ले गए? यह सामान्य परंपरा है कि प्रधानमंत्री के विदेशी दौरों के समय विदेश मंत्री उनके साथ यदा-कदा ही जाते हैं। आम तौर पर वे प्रधानमंत्री के पहले संबंधित देश जाते हैं। यही अब भी हो रहा है।
इसमें दो राय नहीं कि वर्तमान में विदेश नीति के मोर्चे पर चीन की आक्रामकता एक बड़ी चुनौती है। चीन की यह आक्रामकता तबसे और बढ़ी है जबसे भारत ने वन बेल्ट-वन रोड यानी ओबोर नामक उसके महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट में भागीदार होने से इन्कार किया है। लगता है भारत के फैसले से चिढ़े चीन ने भारत को परेशान करने की ठान ली है। वह एक ओर दुर्दांत आतंकी मसूद अजहर का बचाव कर रहा है और दूसरी ओर एनएसजी में भारत की सदस्यता की राह में रोड़ा भी बना हुआ है। आज के अर्थ प्रधान युग में युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है और डोकलाम सरीखे विवाद कूटनीतिक तरीके से ही सुलझाए जा सकते हैं। चीन सरकार डोकलाम पर व्यर्थ का बखेड़ा खड़ा करने के लिए जानबूझकर 2012 में हुए उस समझौते की अनदेखी कर रही है जो तीनों देशों के साथ हुआ था और जो यह कहता है कि इस क्षेत्र में कोई भी देश अन्य की सहमति के बिना किसी तरह का निर्माण नहीं करेगा। आखिर क्या कारण है कि चीन तरह-तरह की दलीलें तो दे रहा है, लेकिन इस समझौते का जिक्र नहीं कर रहा है? जहां चीनी विदेश मंत्रालय और वहां का मीडिया इस मसले पर युद्ध का उन्माद दिखा रहा है वहीं चीन के आम आदमी को इस घटनाक्रम में कोई रुचि ही नहीं। आम चीनी जनता अपने शासकों के विस्तारवादी एजेंडे में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही, लेकिन भारत में आम लोग चीन के साथ तनातनी से चिंतित दिख रहे हैं। तमाम लोग इस पर सहमत हैं कि चीन को सबक सिखाने के लिए चीनी सामान का बहिष्कार किया जाना चाहिए। इन दिनों चीन में बनी राखियों को कोई नहीं पूछ रहा तो यह डोकलाम विवाद का ही नतीजा है। चीन को यह समझना चाहिए कि अगर उसका सस्ता सामान भारतीय बाजार में नहीं खपेगा तो उसे ही ज्यादा नुकसान होगा। चीन को सही रास्ते पर लाने का एक और तरीका उन चीनी कंपनियों पर रोक लगाने का भी है जो अपना सस्ता सामान यहां डंप करती हैं।
चीन को यह देखना चाहिए कि भारत ने उसके आक्रामक तेवरों के खिलाफ अमेरिका, रूस समेत कई अन्य देशों का भी समर्थन हासिल किया हुआ है। चीन के करीब-करीब सभी पड़ोसी देश उसकी विस्तारवादी नीतियों से परेशान हैं और वे खुलकर भारत का साथ दे रहे हैं। अमेरिकी प्रशासन ने भी चीन को नसीहत दी है कि वह डोकलाम विवाद का निपटारा बातचीत के जरिये करे। बेहतर हो कि चीन भारत के साथ-साथ अन्य पड़ोसियों के साथ भी शांति से रहना सीखे। यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसकी प्रतिष्ठा बढ़ने वाली नहीं है। उसे अपनी आर्थिक शक्ति बढ़ाने के साथ ही अपनी छवि की भी परवाह करनी चाहिए। वह जहां दक्षिण चीन सागर मसले पर मनमानी कर रहा है वहीं उत्तर कोरिया और पाकिस्तान जैसे अराजक एवं आतंक समर्थक देशों की भी पक्षधरता कर रहा है। इस सबसे उसकी छवि एक आक्रामक और अड़ियल देश की बन रही है। वह जिस तरह हर मामले में अपनी ही चलाना चाहता है उससे तो यही लगता है कि विस्तारवादी प्रवृत्ति उसके डीएनए का हिस्सा बन गई है। उसकी बढ़ती आर्थिक ताकत दुनिया भर को चिंतित कर रही तो इसीलिए, क्योंकि वह सहअस्तित्व की भावना के साथ ही लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के प्रति बेहद अनुदार है। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि वह जिम्मेदारी के बजाय गैर जिम्मेदारी का परिचय देने में लगा हुआ है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]