एक व्यक्तिगत टिप्पणी के साथ इस लेख की शुरुआत करने के लिए क्षमा करें। लेकिन मेरे दुखदायी अनुभवों में से यह एक है। इंदिरा गांधी ने 40 साल पहले जब देश पर आपातकाल थोपा था, तब कर्नाटक के पुलिस महानिरीक्षक मेरे संपादकीय बॉस हो गए थे! उन्हें राज्य में मुख्य सेंसर अधिकारी नियुक्त किया गया था। मैं उस वक्त बेंगलूरू में एक अंग्रेजी दैनिक का संवाददाता था। उन्हें मेरी सभी न्यूज रिपोर्ट भेजी जाती थी ताकि वह इसे जारी करने की अनुमति दें। उनके पास पुलिस उपाधीक्षकों, इंस्पेक्टरों और सूचना विभाग के अफसरों की भारी-भरकम टीम थी। ये सभी अखबारों में अगले दिन के संस्करणों में छापी जाने वाली सभी संपादकीय सामग्री की भले प्रकार से जांच के लिए उत्तरदायी थे। यह 26 जून, 1975 से जनवरी, 1977 के आखिरी तक 19 महीने के लिए रुटीन काम था।

हमें कड़े निर्देश थे कि आइजीपी और उनके लोगों की अनुमति के बिना एक भी शब्द प्रकाशन के लिए न जाए। परिणाम यह था कि हमारे पास एक वैन थी जो हमारे और मुख्य सेंसर कार्यालयों के बीच दौड़ती रहती थी। सेंसर हर सामग्री की जांच-परख करता था और किसी भी ऐसी सामग्री को हटा देता था जो किसी भी तरह इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ लगती हो। वहां से उन पर सील और मुहर लगती थी। जिन खबरों की अनुमति मिलती थी, सिर्फ उन्हें ही प्रकाशित किया जा सकता था। कोई तरीका नहीं था कि कोई सेंसर के आदेशों का उल्लंघन कर सके, क्योंकि भयानक मीसा (आंतरिक सुरक्षा संरक्षण कानून) के तहत गिरफ्तारी हमारे सिर पर खतरे की तलवार की तरह लटकती रहती थी। लोकतांत्रिक वातावरण में बड़े हुए युवा पाठकों के लिए ऐसी स्थिति की कल्पना करना भी कठिन होगा जब मीडिया सामग्री को आइजी पुलिस नामक छलनी से गुजरना पड़ता हो। अखबारों और टीवी चैनलों के संपादकीय विभागों में पुलिस वालों की कल्पना करें। वैसे, यह दमनकारी वातावरण के सैकड़ों उदाहरणों में से एक है जो आपातकाल के दौरान फैला हुआ था। ऐसा लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार ने संविधान को कुचलकर और अपने को फासिस्ट शासन में बदलकर किया था।

तानाशाह बन जाने के इंदिरा गांधी के फैसले की जड़ में थी उनके खिलाफ राज नारायण द्वारा दायर चुनाव याचिका। इसमें 1971 लोकसभा चुनाव के दौरान रायबरेली संसदीय क्षेत्र में उन पर भ्रष्ट तरीके अपनाने का आरोप लगाया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री को भ्रष्ट तरीके अपनाने का दोषी पाया, संसद के लिए उनका चुनाव अवैधानिक घोषित किया और उन पर छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस फैसले के खिलाफ उनकी अपील पर न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर ने सुनवाई की। सब न्यायमूर्ति अय्यर के आदेश का इंतजार कर रहे थे जबकि इंदिरा गांधी ने अपने, सफदरजंग निवास के बाहर भाड़े की भीड़ के जरिये समर्थन जुटाने का माहौल बनाया। न्यायमूर्ति अय्यर ने 24 जून को अपील पर आदेश दिया और उन्हें ‘सशर्त बने रहने’ की अनुमति दी। इसमें उन्हें पद पर बने रहने की अनुमति थी, लेकिन उन्हें संसद में बहस में भाग लेने या वोट करने से मना कर दिया गया था। इसके साथ ही मामले को न्यायालय की बड़ी पीठ में भेज दिया गया था।

अब इंदिरा गांधी के लिए एकमात्र सम्मानजनक रास्ता सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम फैसला आने तक पद से दूर रहना था, लेकिन वह सत्ता छोड़ने की इच्छुक नहीं थीं। पद पर बने रहने के उनके संकल्प को उनके बेटे संजय गांधी और उनके चमचों के गिरोह ने समर्थन दिया जो मां-बेटे के इर्द-गिर्द जमा हो गए थे। कांग्रेस का विरोध कर रही पार्टियां 12 जून को न्यायमूर्ति सिन्हा के फैसले के बाद से ही उनके इस्तीफे की मांग कर रही थीं। न्यायमूर्ति अय्यर के ‘सशर्त बने रहने’ के आदेश ने उनके विचारों का समर्थन किया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और अन्य नेताओं ने नई दिल्ली के रामलीला मैदान में 25 जून को हुई विशाल सभा को संबोधित किया और उन्हें सत्ता से हटाने की मांग की, लेकिन इंदिरा गांधी और उनके किचेन कैबिनेट की दूसरी ही योजना थी। सिद्धार्थ शंकर रे संविधान को कुचलने के ‘बेहतरीन विचार’ के साथ आगे आए। उन्होंने इंदिरा गांधी को संविधान की धारा 352 के अंतर्गत आंतरिक आपातकाल लगाने की सलाह दी। वह सहमत हो गईं और उन्होंने घोषणा की कि देश को ‘झटके वाले उपचार’ की जरूरत है। उन्होंने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से राष्ट्रपति शासन की घोषणा के लिए आग्रह किया। प्रधानमंत्री ने इस सिलसिले में अपने मंत्रिमंडल से विचार नहीं किया था, फिर भी ‘रबर स्टांप’ माने जाने वाले राष्ट्रपति अहमद ने तत्काल उनकी बात मान ली। इंदिरा गांधी ने अगले दिन सुबह मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और अपने निर्णय के बारे में ‘सूचना दी।’ तब तक उनके मंत्रियों के बीच इतना भय फैल गया था कि उनमें से किसी के पास पिछली रात हुई घटनाओं को लेकर कोई सवाल नहीं था या किसी को किसी चीज को लेकर कोई शंका नहीं थी। भारतीयों को यह समझने में बहुत देर नहीं लगी कि लोकतंत्र को कुचल दिया गया है क्योंकि उसके बाद जल्द ही कांग्रेस सरकार ने राजनीतिक नेताओं, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया। प्रधानमंत्री निवास पर पहले ही की गई पर्याप्त तैयारी के कारण यह अभियान तुरत-फुरत हुआ। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते, रामकृष्ण हेगड़े, अरुण जेटली समेत सैकड़ों राजनीतिज्ञ जेल भेज दिए गए। उसके बाद लोकतंत्र के अंतिम अवशेषों को नष्ट करने तथा न्यायपालिका और मीडिया का गला घोंटने के लिए संसद के जरिये कई कानून लागू किए गए और 39 से 42 तक संविधान संशोधन किए गए। यह सब इसलिए ताकि इंदिरा गांधी को सर्वोच्च नेता बनाया जा सके जो हर कानून से ऊपर हों।

संक्षेप में, कानून में सबके लिए बराबरी और जीवन तथा स्वतंत्रता के अधिकार जैसे लोकतांत्रिक संविधान के मूलभूत मूल्यों को छीन लिया गया। सीएम स्टीफेन जैसे कांग्रेस नेताओं ने न्यायपालिका को धमकाया। वीसी शुक्ला ने पत्रकारों को धमकाया और उन ‘प्रतिकूल’ पत्रकारों की सूची बनाई जिन्हें सबक सिखाने की जरूरत थी। आरएसएस से लेकर समाजवादियों तक के हजारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं और माकपा कार्यकर्ताओं को जेलों में यातनाएं दी गईं। भारत में तानाशाही का भयावह अनुभव तब समाप्त हुआ जब जनता ने मार्च, 1977 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंका। तबसे चालीस साल गुजर चुके हैं। क्या हमें इन स्मृतियों का अंत नहीं कर देना चाहिए? इसका उत्तर है नहीं क्योंकि उन्हें दूर-दूर तक ग्लानि नहीं है जिन्होंने आपातकाल के दौरान इतना जुल्म किया। उन्हें कोई प्रायश्चित भी नहीं है इसीलिए आपातकाल को कभी नहीं भुलाना चाहिए और उन्हें कभी माफ नहीं करना चाहिए जिन्होंने भारत को तानाशाही में डुबो दिया था। कौन जानता है कि वे कब फिर ऐसा कर बैठें?

(लेखक ए. सूर्यप्रकाश प्रसार भारती के प्रमुख हैं)