पिछले हफ्ते से भारत के अधिकांश हिस्से लू से झुलस रहे हैं। आंध्र प्रदेश और तेलांगना में लू से मरने वाले की संख्या सबसे अधिक है। केवल आंध्र प्रदेश में यह आंकड़ा एक हजार को पार कर गया है। साथ ही तेलांगना में 432 लोग भीषण गरमी के कारण मौत का शिकार हो चुके हैं। इन दो सूबों में बीते दो दिनों में ही ढ़ाई सौ से ज्यादा बेकसूर लोगों की मौत हो चुकी है। राष्ट्रीय राजधानी के दक्षिणी हिस्से में दो लोग झुलसाने वाली गरमी से मारे गए हैं। ऐसी दशा में मौत की इन खबरों से माहौल दिन-ब-दिन गरम हो रहा है। मौत का यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। मोदी सरकार का एक साल बीत चुका है।

एक ओर सरकार के मंत्री अपनी उपल्बधियां गिना रहे हैं, तो दूसरी ओर भीषण गरमी और लू से मरने वालों के आंकड़े में अनवरत बढ़ोतरी हो रही है। अच्छे दिनों में मौसम की यह कैसी मार है। इसमें मरने वाले सभी आम लोग हैं। खास लोगों ने बढ़ते तापमान से राहत पाने का इंतजाम पहले से कर रखा है। दिल्ली का तापमान 45 के पार है। उबर प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों की हालत और बुरी है। इसी गरम हफ्ते का वह भी एक दिन है, जब फरक्का एक्सप्रेस के दूसरे दर्जे की अनारक्षित डिक्बे में यात्र कर रहा साकुर पहाड़िया नाम का यात्री प्यास से तड़प कर मर जाता है। जब गरीब जनता की जेब में बोतल बंद पानी खरीदने का पैसा नहीं होता तो रेल्वे स्टेशन की नलों से भी एक बूंद पानी नहीं टपकता है। सरकारी व गैर सरकारी एजेंसियों के हवाले से आ रही खबरों पर गौर करने से इस भीषण गरमी का प्रकोप स्पष्ट नजर आता है।

देश की आम जनता मरने को अभिशप्त है। अभी लंबा अर्सा नहीं बीता है। कुछ ही महीने पहले शीतलहर से गरीब लोगों के मारे जाने की खबरें आ रही थीं। आजकल भीषण गरमी का कोप है। जहां तक गरमी से लोगों की जान बचाने का सवाल है सरकार ने इस दिशा में पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं। कम से कम सार्वजनिक स्थानों पर प्याऊ और छाया की व्यवस्था तो बड़ी आसानी से की ही जा सकती थी। जनता की बेबसी और मौत का यह सिलसिला पीड़ादायक है। प्रकृति के कोप से लेकर मौसम की मार तक कष्ट का पारावार नहीं। ऐसे मामलों में प्रकृति पर नियंत्रण नहीं होने का बहाना खासा कारगर साबित होता रहा है। गौर से देखा जाए तो सरकारें ऐसे ही जटिल हालात का निर्माण करने में अनवरत लगी दिखती है।

वास्तव में इस भीषण गरमी की वजह हरियाली का अभाव है। वन्य क्षेत्रों ही नहीं, अपितु शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भी बड़े पैमाने पर पेड़ काटे गए हैं। पिछले दस सालों में केवल चौड़ी सड़कों का निर्माण करने के लिए दस करोड़ से ज्यादा पेड़ काट डाले गए। पथ-परिवहन को सुचारू रूप से चलाने के लिए नवीन और चौड़े रास्तों की जरूरत को सरकार ने ही चिह्न्ति किया था। मोदी सरकार की राजमार्ग परियोजना लाखों करोड़ रुपये की है। इसके अतिरिक्त रिहाइश के लिए ऊंची अट्टालिकाएं बनाने से लेकर उद्योग-धंधों के विकास के लिए भी वृक्षों को बेहिसाब काटा गया है। इस वजह से गरीब जनता बेमौत मरने को मजबूर होगी, क्या इसका अंदाजा सरकारी सेवा में कार्यरत विशेषाों को नहीं था? और अगर था तो कोई कारगर पहल क्यों नहीं किया गया? क्या ऐसी दशा के लिए सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है? अगर यह जिम्मेदारी सरकार की नहीं तो आखिर इसके लिए सचमुच कौन जिम्मेदार है? इन प्रश्नों का सामना करने की हिम्मत धरती को वृक्षविहीन करने वालों से लेकर सरकार के मंत्रियों और उनकी सेवा में तत्पर विशेषाों में भी नहीं है।

यदि यह सरकारी मशीनरी की अक्षमता की निशानी नहीं है तो एक गहरी चाल हो सकती है। जिसे समझने के लिए उसी जनता को तैयार होना होगा, जो इस आतंक का सामना करते हुए बेमौत मरने को अभिशप्त है। इस भीषण गरमी की समस्या से लड़ते हुए मृत्यु को वरण करने वाली जनता की पीड़ा को दूर करने के लिए कोई तैयारी नहीं दिखती है। सबर के दशक में उबराखंड के पहाड़ों में वृक्षों की रक्षा के लिए आम लोगों ने ही पेड़ों से चिपक कर एक बड़े आंदोलन का सूत्रपात किया था। ‘अपोदीपोभव’ महात्मा बुद्ध की उक्ति थी। आज बेमौत मारे जाने वाले लोग अपना दीपक स्वयं बन कर आगे बढ़ें तो संभव है कि भविष्य में कुछ बेहतर हो।

(लेखक कौशल किशोर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)