चंद दिनों पहले अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए के पुराने दस्तावेजों ने देश में हलचल पैदा की। इस एजेंसी के पश्चिमी यूरोपीय प्रभाग के गोपनीय आकलन के अनुसार बोफोर्स घोटाले में घूसखोरी और दलाली के पर्याप्त सबूत मौजूद थे। यह आकलन 1980 के दशक के अंत का है जिसमें इन साक्ष्यों का उल्लेख है, मगर तब स्वीडिश सरकार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की छवि बचाने के लिए जांच बंद कर दी थी। हाल में सीआइए के सार्वजनिक हुए दस्तावेजों के अनुसार स्टॉकहोम इस खुलासे से मुश्किल में फंसे राजीव गांधी को बचाना चाहता था ताकि उन्हें घूसखोरी मामले का सामना न करना पड़े। इस मकसद को हासिल करने के लिए दोनों सरकारों ने भुगतान ब्योरे को गुप्त बनाए रखने की योजना बनाई।

दस्तावेज खुलासा करते हैं कि भारत में इस सौदे को हासिल करने के लिए स्वीडन ने निश्चित रूप से रिश्वत का सहारा लिया। इसमें स्वीडिश नेशनल ऑडिट ब्यूरो के हवाले से उल्लेख है कि सौदे में बिचौलियों को चार करोड़ डॉलर की मोटी रकम दी गई। हालांकि राजीव गांधी को बचाने के लिए स्वीडिश सरकार ने घोटाला सामने आने के दो साल बाद उसकी जांच बंद कर दी। सीआइए दस्तावेज इसी बात पर मुहर लगाते हैं कि भारतीय अनुबंध हासिल करने के लिए बोफोर्स ने बड़े पैमाने पर कमीशन और रिश्वत का सहारा लिया। बोफोर्स घोटाले की सुगबुगाहट 1980 के दशक के शुरुआत में हुई थी जब भारतीय सेना ने तोप खरीदने की कवायद शुरू की। हालांकि शुरुआती आकलन में फ्रांस की सॉफमा काफी आगे थी, लेकिन आखिर में सौदा बोफोर्स की झोली में आया।

स्वीडन और स्विट्जरलैंड में सीबीआइ जांच के बाद जिनेवा में रह रहीं पत्रकार चित्र सुब्रमण्यम की शानदार खोजी पत्रकारिता में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि बोफोर्स ने घूसखोरी की तिकड़म भिड़ाई। सीबीआइ द्वारा पेश बैंक दस्तावेज भी पुष्ट करते हैं कि इससे फायदा उठाने वालों में ओत्तावियो क्वात्रोची भी एक था। मीडिया और जांच एजेंसियों की पड़ताल से जो तथ्य सामने आए वे दर्शाते हैं कि कमीशन और घूसखोरी के तार नेहरू-गांधी परिवार की देहरी तक जाते थे। मिसाल के तौर पर बोफोर्स ने 1985 के अंत में एई सर्विसेज नाम की कंपनी के साथ करार किया। करार की शर्त यही मुकर्रर हुई कि अगर कंपनी 31 मार्च, 1986 से पहले उसके लिए यह सौदा करा देती है तो उसके एवज में उसे तीन प्रतिशत कमीशन दिया जाएगा। एई सर्विसेज को इस अवधि के दौरान ही सौदे को अंजाम देना था और बड़ी हैरानी की बात है कि राजीव गांधी सरकार ने इसकी मियाद खत्म होने से हफ्ता भर पहले 24 मार्च, 1986 को बोफोर्स के साथ अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिए। दो महीने बाद भारत ने अनुबंध राशि का 20 प्रतिशत भाग बोफोर्स को चुकाया।

फिर बोफोर्स ने एई सर्विसेज के साथ किए अपने वादे को पूरा करते हुए इस रकम की तीन प्रतिशत राशि उसे चुकाई। इस तरह कंपनी के ज्यूरिख स्थित नॉर्डफियांज बैंक में 73.83 लाख डॉलर की रकम डाली गई। 1सीबीआइ जांच में भी यह सामने आया था कि एई सर्विसेज ने यह रकम कोलबार इनवेस्टमेंट्स नाम की कंपनी के खाते में हस्तांतरित की। आखिर कोलबार इनवेस्टमेंट्स के मालिकान कौन थे? इसके मालिक कोई और नहीं, बल्कि सोनिया और राजीव गांधी के अजीज मित्र मारिया और ओत्तावियो क्वात्रोची थे। आयकर अपीलीय पंचाट की दिल्ली शाखा ने भी लेनदेन के इस चक्र की पुष्टि की है। उसने कहा कि बोफोर्स ने एई सर्विसेज को कमीशन की पहली किस्त 3 सितंबर, 1986 को दी। उसी महीने यह रकम क्वात्रोची की कोलबार इनवेस्टमेंट्स के यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड के खाते में भेजी गई। 25 जुलाई, 1988 को यह रकम इसी बैंक के वेटेलसन ओवरसीज, एसए के खाते में भेजी गई। 21 मई, 1990 को क्वात्रोची ने यह रकम चैनल आईलैंड स्थित गर्नसे भेजी।

उसके बाद की कहानी यही थी कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने ब्रिटिश सरकार से इस खाते को फ्रीज करने की गुजारिश की, लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उसी सरकार से क्वात्रोची के खातों पर लगी रोक हटवाई और सुनिश्चित किया कि वह इतालवी शख्स लूट का माल लेकर रफूचक्कर हो जाए। बोफोर्स सौदे में दलाली का भंडाफोड़ अप्रैल, 1987 में हुआ जब स्वीडिश रेडियो ने ऐलान किया कि उसके पास ऐसे सबूत हैं जो पुष्ट करते हैं कि बोफोर्स ने भारत में सौदा हासिल करने के लिए रिश्वत खिलाई। इस घोटाले ने राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन वाली छवि को दागदार कर दिया और उससे मचे बवंडर में उन्हें अपने पैर जमाए रखना मुश्किल हो गया, लेकिन इस बीच एक और अजीबोगरीब घटनाक्रम घटित हुआ। एई सर्विसेज के अधिकारियों ने बोफोर्स से कहा कि उन्हें भारतीय सौदे में अब और कमीशन नहीं चाहिए। ऐसे में 1987 से हर भारतीय इस सवाल का जवाब चाहता है कि आखिर एक इतालवी शख्स कंपनी द्वारा तय मियाद से पहले बोफोर्स के लिए सौदे को कैसे प्रभावित कर सका? वह एक असंभव से काम को संभव बनाने में कैसे सक्षम हुआ? जब भारत ने अपनी सेना के लिए हथियार खरीदे तो बोफोर्स ने एक इतालवी को कमीशन क्यों खिलाया?

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि इसके बाद विपक्ष राजीव गांधी के पीछे पड़ गया। उसका आरोप था कि इस रक्षा सौदे में उनके हाथ भी दलाली से रंगे हुए हैं। इसका नतीजा हुआ कि 1989 के आम चुनावों में कांग्रेस बुरी तरह हार गई। इस घोटाले में जिन लोगों का नाम सामने आया उनमें से तमाम अब इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। राजीव गांधी और क्वात्रोची के अलावा सौदे के समय बोफोर्स के अध्यक्ष रहे मार्टिन अर्दबो का भी निधन हो गया है जिनकी डायरी प्रविष्टियां स्वीडिश पुलिस की जांच के लिए बेहद अहम सुराग थीं। पूर्व रक्षा सचिव एस के भटनागर और भारत में कंपनी के एजेंट विन चड्ढा की भी मौत हो चुकी है। इनमें से हर एक शख्स की मौत के साथ यह अटकलें जोर पकड़ती रहीं कि अब बोफोर्स का राग बंद हो जाएगा, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कोई भी वित्तीय घोटाला या रिश्वत कांड तब तक जनता की स्मृति से विस्मृत नहीं होता जब तक कि उसकी वजह से सरकारी खजाने को हुए नुकसान की भरपाई नहीं हो जाती।

जनता इसे भूलती नहीं है और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों में तो यह और भी संवेदनशील हो जाता है। जब भारतीय सेना अपने रणबांकुरों के लिए रक्षा साजो-सामान खरीद रही हो और उसमें दलाली खा ली जाए तो यह देशद्रोह का अपराध बन जाता है जिसमें माफी की कोई गुंजाइश नहीं होती। क्वात्रोची के खिलाफ तमाम सबूतों के बावजूद 2013 में उसकी मौत के बाद उसकी पत्नी मारिया ने दावा किया कि उसके पति को बेवजह ही बीस सालों से अधिक तक परेशान किया गया। बोफोर्स का प्रेत नेहरू-गांधी परिवार को तब तक प्रताड़ित करता रहेगा जब तक कि परिवार यह स्वीकार नहीं कर लेता कि इस मामले में उनके करीबियों को कमीशन मिला था। परिवार द्वारा ईमानदारी से की जाने वाली स्वीकारोक्ति ही इसका इकलौता प्रायश्चित है। अगर ऐसा नहीं होता है तो सीआइए जैसे दस्तावेज समय-समय पर सामने आकर बोफोर्स के जिन्न को बोतल से बाहर निकालते रहेंगे जिसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी।

(लेखक ए सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार एवं प्रसार भारती के प्रमुख हैं)