कृपाशंकर चौबे

मणिपुर में एन बीरेन सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनने के निहितार्थ गहरे हैं, क्योंकि वहां न तो भाजपा की मजबूत पृष्ठभूमि थी और न ही दमदार संगठन, फिर भी 60 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को 21 सीटें हासिल हुईं। नेशनल पीपुल्स पार्टी और नगा पीपल्स फ्रंट के चार-चार विधायकों, लोक जनशक्ति पार्टी एवं तृणमूल कांग्रेस के एक-एक विधायक और एक निर्दलीय विधायक का समर्थन हासिल कर भाजपा ने सरकार बनाई। नए मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को विरासत में चुनौतियों का पहाड़ मिला है। राज्य की नई सरकार की पहली चुनौती यूनाइटेड नगा कांउसिल द्वारा नवंबर से जारी नगा इलाकों से गुजरने वाली सड़कों पर नाकेबंदी को खत्म कराने की है। बीरेन सिंह सरकार को पहाड़ी और घाटी के लोगों के बीच विरोध को भी दूर करना होगा। मणिपुर की कुल 60 सीटों में 20 पहाड़ी इलाकों में हैं और 40 घाटी में। पहाड़ों में बसे नगा लोगों के विरोध को खत्म करना बहुत बड़ी चुनौती है। पूर्ववर्ती ओकराम इबोबी सिंह की सरकार इस चुनौती से निपटने में नाकाम रही थी। चुनाव से ठीक पहले इबोबी सिंह सरकार ने सात नए जिले बनाए थे। नगा बहुल इलाकों वाले पहाड़ी जिलों में विभाजन कर दो नए जिले बना दिए गए थे। इसका उन्हें विधानसभा चुनाव में लाभ मिला, क्योंकि वह कुकी समुदाय की बहुत पुरानी मांग थी। मणिपुर में करीब तीन लाख कुकी हैं। नगा और कुकी समुदायों के बीच पुराना विवाद है। दोनों समुदायों के बीच यदा-कदा हिंसा भड़क जाती है। इस हिंसा में दोनों समुदायों के सैकड़ों लोगों की जानें जा चुकी हैं। यूनाइटेड नगा काउंसिल के बैनर तले विभिन्न नगा संगठन आर्थिक नाकेबंदी के जरिये राज्य सरकार के पहाड़ी जिलों के विभाजन के फैसले का कड़ा विरोध कर रहे हैं। नई सरकार की दूसरी चुनौती राज्य में उग्रवाद, फर्जी मुठभेड़, विवादित अफस्पा कानून, बेरोजगारी, सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को सुलझाने की है। ये सभी मुद्दे पिछले डेढ़ दशक से जस के तस बने हुए हैं। कांग्रेस सरकार ने अपने 15 वर्षों के कार्यकाल में इन्हें हल करने की कभी गंभीर कोशिश नहीं की। नई सरकार को मणिपुर की अखंडता भी अक्षुण्ण रखनी होगी।
मणिपुर के लिए भाजपा ने चुनावी घोषणा पत्र की जगह जो विजन डॉक्युमेंट निकाला उसमें मणिपुर से किसी भी क्षेत्र को अलग न करने का वादा सबसे पहला था। एनएससीएन ग्रेटर नगालैंड बनाने के लिए दूसरे राज्यों के कई इलाकों पर दावा करता रहा है। चुनाव प्रचार में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने ऐलान किया था कि राज्य की अखंडता पर कोई खतरा नहीं आएगा। नगालैंड के एनएससीएन (आईएम) समूह के साथ मोदी सरकार शांति वार्ता कर रही है। मणिपुरवासियों की भावना को ठेस पहुंचाए बिना एनएससीएन को केंद्र और राज्य सरकार कैसे संतुष्ट करती है, यह देखने वाली बात होगी। यह उम्मीद लाजिमी है कि केंद्र एवं राज्य सरकार मणिपुर की चुनौतियों से निपटने में सफल होंगी, क्योंकि भाजपा ने पूर्वोत्तर के प्रश्नों को बहुत गंभीरता से स्वीकार करने का साहस दिखाया है। मोदी सरकार से पहले सत्तारूढ़ रहीं केंद्र सरकारें पूर्वोत्तर की समस्या को क्षेत्र विशेष की समस्या मानकर छोड़ देती थीं। वे पूर्वोत्तर की हिंसा को स्वीकार तो करती रहीं, किंतु अपनी राजनीतिक भूल को स्वीकार कर हालात सुधारने की कोशिश नहीं करती थीं। मोदी सरकार ने पिछले ढाई वर्षों में पूर्वोत्तर की समस्याओं को हल करने का जोखिम उठाया है। भाजपा ने पूर्वोत्तर के सभी संवेदनशील मुद्दों को पारदर्शिता के साथ आत्मसात किया है। भाजपा ने बांग्लादेशी शरणार्थियों एवं घुसपैठियों पर स्पष्ट दृष्टि अपनाई। भाजपा का कहना है कि यदि सीमा-पार अल्पसंख्यकों यानी हिंदुओं पर हमला होता है तो वे भारत नहीं आएंगे तो कहां जाएंगे? घुसपैठियों के बारे में उसका कहना है कि पूर्वोत्तर आए बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापस जाना होगा। पूर्वोत्तर में घुसपैठियों के खिलाफ लंबे समय से आंदोलन चल रहा है। पूर्वोत्तर में अवैध घुसपैठियों की बढ़ती संख्या एक साझा समस्या है। इसी कारण पूर्वोत्तर के 26 छात्र संगठन नॉर्थ ईस्ट स्टूडेंट्स आर्गेनाइजेशन (नेसो) के बैनर तले इस समस्या के समाधान के लिए लंबे समय से आंदोलनरत हैं। नेसो के नेतृत्व में मांग की जाती रही है कि 25 मार्च, 1971 के बाद पूर्वोत्तर में बसे बांग्लादेशियों को वापस भेजा जाए, क्योंकि उनकी मौजूदगी स्थानीय लोगों के अस्तित्व के लिए खतरा है। इस मामले में पूर्वोत्तर के लोगों को कांग्रेस से भारी शिकायत रही है। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1985 में असम संधि पर हस्ताक्षर किए थे। उसके बाद केंद्र में कई बार कांग्रेस की सरकार बनी, किंतु किसी सरकार ने उसे लागू कराने और अवैध प्रवासियों पर रोक लगाने की कभी कोशिश नहीं की। यहां तक कि बतौर प्रधानमंत्री संसद में असम का प्रतिनिधित्व करने वाले मनमोहन सिंह ने भी इस मामले में चुप्पी साधे रखी। भाजपा द्वारा पूर्वोत्तर पर संवेदनशील नीति अपनाने का पहला परिणाम पिछले साल असम में सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व में पहली बार बनी भाजपा सरकार के रूप में सामने आया। पूर्वोत्तर पर भाजपा की नीतियों से प्रभावित होकर ही पिछले वर्ष पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल के 33 विधायक पेमा खांडू के नेतृत्व में भाजपा में शामिल हो गए। अरुणाचल प्रदेश में आज भाजपा की सरकार है। नगालैंड में भी भाजपा अपने सहयोगी दल के साथ सत्ता में है। नगा पीपुल्स फ्रंट के नेता शुरहोजेली लीजीत्सू मुख्यमंत्री हैं और भाजपा नेता पेवांग कोनयाक कैबिनेट मंत्री। नगालैंड की 60 सदस्यीय विधानसभा में सत्तारूढ़ जनतांत्रिक गठबंधन सरकार में एनपीएफ के 48 और भाजपा के चार विधायक हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्वोत्तर में पार्टी का प्रभाव बढ़ाने के लिए समान विचारधारा वाले क्षेत्रीय संगठनों के साथ मिलकर पिछले साल नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) का गठन किया था। उसके बाद मणिपुर में भाजपा प्रभारी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, राम माधव जैसे नेता राज्य में पार्टी संगठन को खड़ा करने के लिए काम करते रहे। उनके श्रम का ही फल है कि असम, अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड के बाद मणिपुर पूर्वोत्तर का चौथा राज्य है जहां भाजपा सत्ता में है। पूर्वोत्तर में भाजपा के इस उभार का आशय स्पष्ट है कि वहां के लोगों को भरोसा है कि मोदी सरकार उन्हें पहले की सरकारों की तरह अलग-थलग नहीं छोड़ेगी।
[ लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में पूर्वोत्तर भाषा एवं सांस्कृतिक अध्ययन विभाग के प्रमुख हैं ]