बिहार में नीतीश कुमार ने विश्वास मत प्राप्त कर लिया है, लेकिन यह मौका जश्न मनाने का नहीं है। उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव की अग्निपरीक्षा में खरा उतरना है। नीतीश ने बड़ी गुणा-भाग के बाद जीतन राम मांझी को कुर्सी सौंपी थी, लेकिन भाजपा ने मांझी के जरिये नीतीश और उनके साथ समाजवादियों का भी खेल बिगाड़ दिया है। दिलचस्प बात यह है कि असली खिलाड़ी भाजपा तमाशबीन है और मांझी बनाम नीतीश की शक्ल में दो पुराने दोस्त एकदूसरे पर हमलावर हैं। नीतीश को यह समझाना खासा मुश्किल हो रहा है कि उन्होंने कुर्सी छोड़ी क्यों थी और फिर ऐसी कौन-सी नौबत आ गई कि उन्हें मांझी को चलता करना पड़ा? यह केवल मांझी का संकट नहीं है। मांझी जिस महादलित खेमे से ताल्लुक रखते हैं, उस महादलित का जुमला नीतीश ने ही उछाला था। मांझी, रमई राम और उदय नारायण चौधरी उसके खेवनहार थे। उदय नारायण चौधरी अब विधानसभा अध्यक्ष हैं और रमई राम चाहकर भी मांझी की भरपाई नहीं कर सकते।

बिहार की 22 दलित जातियों में 18 महादलित की सूची में शामिल हैं, जिनमें मुसहर, डोम, नट, हलालखोर, भुइया प्रमुख हैं। ये कुल दलितों की 31 प्रतिशत हैं। दरअसल महादलितों में मुसहर समाज की आबादी सबसे ज्यादा है। लालू और नीतीश के तमाम दावों-वादों के बावजूद गंगा अंचल के प्रत्येक जिले में इनके शोषण की जिंदा तस्वीरें आज भी विचलित करती हैं। गया से भागलपुर तक के क्षेत्र में ये जातियां हार-जीत के समीकरण तय करती हैं। भाजपा ने बहुत ही चालाकी से यह वोट बैंक नीतीश से छीन लिया है। हो सकता है कि कल को मांझी फिर नीतीश के साथ आ जाएं, लेकिन इस घटनाचक्र के जो सामाजिक दुष्प्रभाव हैं, उसके घाव बहुत दिनों तक रिसते रहेंगे।

भाजपा ने 1995 में उत्तर प्रदेश में मायावती के जरिये यह दांव खेला था और आज तक सामाजिक न्याय की दो बड़ी जातियां- यादव और जाटव एकदूसरे की दुश्मन बनी बैठी हैं। अब बिहार में भी महादलित तथा कुर्मी-यादव एकदूसरे के दुश्मन बन गए हैं। संघ के रणनीतिकार अब अपनी सुविधा के अनुसार ये मोहरे एकदूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करेंगे। शरद यादव ने शुरू में ही यह चिंता जाहिर की थी कि मांझी प्रकरण के सामाजिक दुष्प्रभाव हो सकते हैं। अब अगर रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी भाजपा के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ेंगे तो लालू-नीतीश की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। लालू प्रसाद खुद नीतीश के लिए एक संकट हैं। नीतीश ने पिछले दस साल लालू के जंगलराज के खिलाफ ही लड़ाई लड़ी जिसे बुद्विजीवियों का समर्थन मिला था। अब लालू के जरिये नीतीश ने यादवों और अल्पसंख्यकों को अपने पाले में तो कर लिया है, लेकिन इससे उनकी छवि पर सवालिया निशान लग गया। कोर्ट के फैसले के बाद लालू खुद मुख्यमंत्री नहीं बन सकते और उनके परिवार का दूसरा कोई आदमी फिलहाल इस दौड़ में नहीं है, लेकिन लालू और नीतीश का वोट बैंक एकदूसरे को पसंद नहीं करता। लालू खुद भी मांझी की इस तरह की विदाई के पक्ष में नहीं थे, लेकिन लल्लन और शाही की जोड़ी ने लालू को नीतीश से हाथ मिलाने को राजी किया। लेकिन लालू नीतीश को वॉकओवर नहीं देंगे। पहले तो सीटों के बंटवारे पर तलवार खिंचेगी, फिर सरकार बनने के बाद मंत्रालयों के बंटवारे और अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्टिंग पर रार मची रहेगी।

लालू प्रसाद के साथ एक दूसरी समस्या यह है कि समाजवादी खेमे में वह एक अविश्वसनीय चेहरा माने जाते हैं। जब देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री के पद से हटाया गया था तो मुलायम सिंह के नाम पर सब राजी थे, लेकिन इन्हीं लालू की धमकी के कारण गुजराल का नाम आगे बढ़ाया गया। कांग्रेस ने समाजवादियों को हर मौक पर तिरस्कृत किया, लेकिन लालू खुद को क्वीनमेकर कहलाने में गर्व का अनुभव करते रहे। बिहार विधानसभा के चुनाव में केवल नीतीश की जीत-हार तय नहीं होगी, बल्कि यह समाजवादी खेमे का भविष्य भी तय करेगा। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में सभी समाजवादी दलों ने केजरीवाल को बिना समर्थन दिया था और अब केजरीवाल मोदी विरोध की धुरी हैं। लेकिन जीत के बाद नीतीश मोदी विरोधी खेमे के नेता होंगे। कुछ महीनों पूर्व उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा के उपचुनावों में समाजवादी पार्टी ने कमल को खिलने से रोक दिया था। अब यही दमखम नीतीश को बिहार में दिखाना होगा। यह ठीक है कि बिहार भाजपा में कोई दमदार चेहरा नहीं है, लेकिन मांझी और पासवान को लेकर वह समाजवादियों के खिलाफ माहौल तो बना ही सकती है।

बिहार में अभी तक चुनावों में जातीय समीकरण खासे असरदार रहे हैं, लेकिन आम आदमी पार्टी ने विकास का एक नया जुमला गढ़ा है। दिल्ली में जब मौलाना बुखारी ने आप के पक्ष में फतवा दिया था तो केजरीवाल ने उसे एक झटके में वापस कर दिया था। सपा के तेजतर्रार नेता आजम खां ने तुरंत चुटकी लेते हुए कहा था कि ‘इन ठेकेदारोें को पता नहीं कब अहसास होगा कि अब वोटर फतवों की गुलामी नहीं करता।’ बिहार के चुनाव में कोई पार्टी आजम खां और केजरीवाल जैसा जिगरा शायद न दिखा पाए, लेकिन अब सबको जातियों से हटकर नए नारे तो गढ़ने ही पड़ेंगे। केजरीवाल और मोदी जिस प्रकार अपना आभामंडल खो रहे हैं, उससे समाजवादी धड़े में नई उम्मीद जग रही है। आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश को एक साथ कई मोर्चे संभालने होंगे। उन्हें महादलितों को फुसलाना होगा, लालू प्रसाद को साथ रखना होगा और जंगलराज के खिलाफ अपनी सुशासन की छवि भी बरकरार रखनी होगी। बिहार का चुनाव दिल्ली विधानसभा से ज्यादा ध्यान खींचेगा। कारण कि यह मोदी की भी अग्निपरीक्षा होगी। केजरीवाल को भी यह साबित करना होगा कि वह केवल दिल्ली के शेर नहीं हैं। लालू को बरसों बाद अपनी खोई जमीन वापस लेनी होगी और सबसे अधिक बिहार के नए चाणक्य का दमखम भी परखा जाएगा। अब देखिए आगे-आगे होता है क्या?

[कौशलेंद्र प्रताप यादव: लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]