प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पद संभालने के बाद भारत के पड़ोसी देशों के पास उत्साह से पहुंचे। 2014 में नेपाल के अपने दौरे के वक्त उन्हें काफी प्यार-सम्मान मिला और जब वहां भूकंप आया और उन्होंने प्रभावित लोगों तक राहत पहुंचाने के लिए तुरंत कदम उठाए तो दोनों देशों के रिश्तों में और अधिक मजबूती आई, लेकिन नेपाल में संविधान बनाने के समय भारत ने जिस लापरवाह ढंग से रिश्ते को निभाया है उससे सारे किए-धरे पर पानी फिर गया लगता है। हाल के कुछ हफ्तों में नई दिल्ली और काठमांडू के बीच रिश्तों में आई गिरावट नेपाल में संविधान बनाने के समय हमारे अकुशल राजनयिक प्रबंधन की स्थिति को बताती है। नेपाल में भारतीय राजदूत नए संविधान में मधेशी, जनजाति और अन्य अल्पंसख्यक विरोधी प्रावधानों के बारे में जानते थे, लेकिन सुधारवादी कोशिशें समय पर नहीं की गईं। प्रधानमंत्री मोदी के विशेष दूत के रूप में विदेश सचिव एस. जयशंकर ने 18 सितंबर को काठमांडू का दौरा किया, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। नेपाल की संविधान सभा ने नए संविधान के प्रारूप को अंतिम रूप दे दिया था और राष्ट्रपति रामबरन यादव 20 सितंबर को इसे लागू करने को लेकर घोषणा करने वाले थे। अगर भारत ने यह सोचा था कि वह अपनी सदाशयता के जरिये सुधार लागू करवा लेने में कामयाब होगा तो वह भ्रम में था, क्योंकि यह मान भी लें कि नेपाल के नेता भारतीय विचार के साथ सामंजस्य बिठाने को तैयार हो जाते तो उन पर भारतीय दबाव पर काम करने का खुला आरोप लग जाता।

नए संविधान के कुछ कानूनों को लेकर मधेशियों की आपत्तियां इस वक्त बड़ा मुद्दा हैं। मधेशी भारतीय मूल के नेपाली हैं जो हिमालय के नीचे तराई के निवासी हैं। नेपाल को धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य में बदलने वाला नया संविधान मधेशियों की चिंताओं को पर्याप्त ढंग से दूर नहीं करता। नई दिल्ली ने इस स्थिति को लेकर प्रतिक्रिया जताने का जो तरीका अपनाया है उससे संबंधों में तनाव आया है। मधेशी लोग नेपाल के समतल दक्षिणी इलाके में रहते हैं जिसे मधेश के तौर पर जाना जाता है। प्राचीन समय में नेपाल की राजशाही से दो राज्यों-अवध (उत्तर प्रदेश) और मिथिला (बिहार) की सीमाएं मिलती थीं। अठारहवीं शताब्दी में राजा बहादुर शाह ने उत्तर में तिब्बत, पूर्व में सिक्किम, दक्षिण में अवध और मिथिला तथा पश्चिम में कुमाऊं, गढ़वाल और हिमाचल प्रदेश की तरफ नेपाली साम्राज्य का विस्तार किया। तिब्बत में 1790-1792 में चीन-तिब्बत सेना ने उन्हें रोक दिया। 1792 में त्रिपक्षीय चीनी-तिब्बती-नेपाली समझौते पर हस्ताक्षर हुए और एक-दूसरे द्वारा कब्जा किए गए इलाके मुक्त कर दिए गए। उसके बाद नेपालियों ने हिमालय पार नेपाल के विचार को प्रतिपादित किया। उन लोगों ने 1790-1791 में कुमाऊं पहाडिय़ों, 1804 में गढ़वाली राजशाही और 1806 तक उस पाल्पा राज्य तक कब्जा कर इलाहाबाद तक अपना इलाका बढ़ा लिया जिसमें बुटाल के तराई इलाके शामिल थे। नेपाली नियंत्रण वाले प्रमुख शहरों में नैनीताल, अल्मोड़ा, देहरादून, नाहन और सबाथू शामिल थे। 1809 में नेपाली शाही सम्राट और सिख साम्राज्य के रणजीत सिंह की सीमाएं सतलुज तक थीं।

नेपाल ने साथ-साथ अपनी सीमाएं पूर्व में सिक्किम तक बढ़ा लीं और दार्जिलिंग पर कब्जा कर लिया। 1814-16 में ब्रिटिश-नेपाली युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने इन सभी इलाकों पर कब्जा कर लिया। 1816 की सगौली संधि के तहत नेपाल की सीमा पूर्व में मेची नदी और पश्चिम में महाकाली नदी तक सीमित कर दी गई। नेपाल ने अंग्रेजों के हाथों दार्जिलिंग समेत सिक्किम के क्षेत्रों और भारतीय तराई क्षेत्र के अधिकतर इलाके को खो दिया, लेकिन अवध और मिथिला का छोटा-सा हिस्सा नेपाल के साथ मिल गया जिसे मधेश कहते हंै। 2011 की जनसंख्या के अनुसार तराई नेपाल के कुल क्षेत्र का 17 फीसद है और यहां 51 फीसद नेपाली आबादी रहती है। नेपाल की कुल आबादी में से तराई में 22 फीसद मधेशी हैं, जबकि 29 फीसद गैर-मधेशी यानी पहाड़ से आकर तराई में बस गए लोग हैं। मधेश का कुल इलाका 34,100 वर्ग किलोमीटर है और इसमें नेपाल के 20 जिले हैं।

नेपाल के नए संविधान के अनुसार तराई मधेश के 20 दक्षिणी जिलों में से सिर्फ आठ जिलों को एक मधेशी राज्य में शामिल किया गया है। बाकी 12 जिलों को पांच अन्य राज्यों में शामिल किया गया है जिसमें पहाड़ी लोगों का बहुमत है। यह पहले ही किनारे कर दिए गए मधेशी प्रतिनिधित्व को भविष्य में और भी कम कर देगा। मधेशियों के बीच असंतोष का यह प्रमुख कारण है। वे आनुपातिक प्रतिनिधित्व सिद्धांत के मुद्दे से भी चिंतित हैं। 165 चुनाव क्षेत्रों में से 100 पर्वतीय क्षेत्र के बीच आवंटित किए गए हैं जो आबादी के 49 प्रतिशत हैं और 51 प्रतिशत आबादी वाले तराई मधेश में 65 सीटें हैं। मधेशी पूछ रहे हैं कि सेना, पुलिस और सशस्त्र बलों तथा सरकार में मधेशियों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? उत्तरी श्रीलंका के तमिलों को 1956 के संविधान के अनुसार सिंहली भाषा लागू होने के कारण घाटा उठाना पड़ा था, उसी तरह गैर-नेपाली भाषी होने की वजह से मधेशी घाटा उठा रहे हैं।

नेपाली बोलने वाले लोग इस तर्क को गलत ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि मधेशी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति तक रहे हैं इसलिए मधेशियों के साथ भेदभाव की बात गलत है, लेकिन मधेशी मानते हैं कि सिर्फ प्रतीकवाद से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के मुद्दे का समाधान नहीं हो सकता है। घाटी के नेपाली मधेशियों को पारंपरिक तौर पर अविश्वसनीय ढंग से देखते हैं और यहां तक कि उनकी राष्ट्रीयता पर भी सवाल उठाते हैं। यह सच भी है कि तराई के लोग अपने हितों के रक्षक के तौर पर नई दिल्ली की तरफ उसी तरह देखते हैं जैसे श्रीलंका के तमिल। भारत ने नेपाली नेताओं को नए संविधान को लेकर मधेशियों की भावनाओं से अवगत करा दिया है, लेकिन यह सब तब किया जाना चाहिए था जब संविधान का प्रारूप तैयार किया जा रहा था।

नई दिल्ली को इस तथ्य का पता था कि नेपाल के एक अन्य बड़े पड़ोसी की नेपाली संवेदनशीलता में रुचि है। काठमांडू में भारत के काफी आलोचक हैं जो भारत को गलत नजरिये से दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ेंगे। मधेशी आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन आर्थिक नाकेबंदी का आरोप भारत पर लग रहा है। इस कल्पित नाकेबंदी के खिलाफ भारत विरोधी भावना तैयार करते हुए 42 भारतीय टीवी चैनलों का प्रसारण नेपाल में रोक दिया गया था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेपाल के साथ सद्भाव वाले संबंध इन दिनों इतने गिर गए हैं। इस हिमालयी पड़ोसी के साथ इस तरह के खराब संबंधों की वजह सिर्फ लचर राजनयिक प्रबंधन है। अभी नेपाल के साथ जो स्थिति है, वह हमें एक वक्त श्रीलंका के साथ भारत के अस्वाभाविक बर्ताव वाले राजनयिक प्रयासों की याद दिलाती है। उस वक्त श्रीलंका की तरह इस वक्त नेपाल में जनता के विचारों का बिल्कुल ध्रुवीकरण हो गया है। यह आसानी से समझा जा सकता है कि जब घरेलू जनभावना का बिल्कुल ध्रुवीकरण हो गया हो तो स्थिति से निपटने में बहुत राजनयिक दांव-पेंच और समझदारी की जरूरत होती है। सौभाग्यवश श्रीलंका में चीन सीमा से जुड़ा देश नहीं था। यहां नेपाल में बीजिंग बड़ा खिलाड़ी है और भारत की जरा सी चूक उसे बड़ा अवसर दे देगी। नेपाल श्रीलंका बने, उससे पहले प्रधानमंत्री मोदी को सुधार वाले कदम तुरंत उठाने चाहिए।

[लेखक ब्रिगेडियर (रि.) आरपी सिंह]