सनातन धर्म के ग्रंथों में भवसागर का वर्णन आता है। एक साधारण व्यक्ति इससे किसी समुद्र की कल्पना करता है जिसे उसे संसार त्यागने के बाद पार करना पड़ेगा, परंतु वास्तविकता में भवसागर से तात्पर्य है भावनाओं का समुद्र। भावनाएं विचारों में व्यक्त होती हैं और विचारों का स्थान मन है। मन को आधुनिक तकनीकी भाषा में एक मेमोरी कार्ड भी कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि मनुष्य के द्वारा संसार से प्राप्त किए अनुभवों के द्वारा ही मन का निर्माण होता है। इसलिए जीव को मन के द्वारा निर्मित भावनाओं के समुद्र को इसी संसार में रहते ही पार करना होता है और इसी को भवसागर कहा जाता है। मन द्वारा निर्मित भवसागर में अनुभवों के अनुसार ही लहरें उठती हैं। जैसे यदि मन शांत है तो यह भी शांत होगा और यदि मन अशांत है तो इसमें भी ऊंची-ऊंची लहरें उठेंगी और भवसागर को पार करना उतना ही कठिन होगा। अक्सर मन के अशांत रहने का कारण उसके अंदर व्याप्त दोष रूपी-राग, द्वेष, ईष्र्या और मोह आदि हैं, जिसके कारण वह अशांत रहता है। ज्यादातर व्यक्ति अपने दुख से उतना दुखी नहीं हैं, जितना दूसरों के सुख से दुखी हैं। व्यक्ति अपने अंदर स्थित दोषों को स्वीकार भी नहीं करता है और इस कारण वह मन की इन दोष रूपी व्याधियों का उपचार भी नहीं करता। इसी प्रकार वह जीवन यात्रा करता रहता है।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे व्यक्ति के द्वारा अपनाई विचारधारा ही उसे उचित लगने लगती है और वह सोचने लगता है कि वही केवल सही है और बाकी सब गलत है। एक उम्र के बाद रोग असाध्य हो जाता है और इस प्रकार का व्यक्ति मनरूपी भवसागर में उठती तरंगों में डूबकर संसार छोड़ देता है और इस प्रकार उसके सूक्ष्म शरीर में आत्मा के साथ मन भी दूसरे जन्म में साथ चला जाता है। उपरोक्त बातों पर विचार करने के उपरांत क्या कोई इस प्रकार के व्याधिग्रस्त मन को साथ ले जाना चाहेगा, परंतु यह इच्छा पर निर्भर नहीं है यह तो ईश्वर का नियम है जिसे हर जीव मानने के लिए बाध्य है। मन को व्याधिमुक्त करने के लिए मन में सहजता, सरलता, सादगी और स्वीकार्यता रूपी उपचार अति आवश्यक है। जिसने मन को नियंत्रित कर लिया है, उसके लिए सारी समस्याएं खत्म हो जाती हैं।
[ कर्नल (रिटायर्ड) शिवदान सिंह ]