हृदयनारायण दीक्षित

सोचा समझा दुराग्रह घृणित होता है। जीव हत्या प्रकृति की योजना में बर्बर हस्तक्षेप है, फिर भी केरल के दुस्साहसी कांग्रेसजनों ने बछडे़ को सार्वजनिक रूप से काटा और गोमांस वितरण का आयोजन किया। ऐसे ‘पराक्रमी’ कांग्रेसजन अपने कृत्य से भले ही प्रसन्न हों, लेकिन राष्ट्र सन्न है। पशुओं को क्रूरता और हिंसा से बचाने के लिए पशु क्रूरता निवारण कानून बनाया गया था। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयानुसार पशु तस्करी रोकने के लिए ‘पशु क्रूरता निवारण कानून’ से प्राप्त शक्तियों का प्रयोग किया और पशु क्रूरता निरोधक (पशुधन बाजार) नियम, 2017 जारी किया। संसद की स्थाई समिति ने भी पशु बाजारों में तस्करों की सांठगांठ रोकने को जरूरी बताया था। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, केरल के विजयन और तमिलनाडु के नेताओं द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है। कुछेक विपक्षी दल और टिप्पणीकार इसे असंवैधानिक बता रहे हैं। लोकतंत्र में विरोध को अनुचित नहीं कहा जा सकता। तीन उच्च न्यायालयों के अभिमत भी आ गए हैं, तीनों की राय भिन्न हैं। मद्रास हाईकोर्ट ने नए नियमों पर स्थगनादेश दिया है। केरल हाईकोर्ट ने मामले को खारिज कर दिया है। राजस्थान हाईकोर्ट ने गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का परामर्श दिया है।
कोर्ट में जाना प्रत्येक नागरिक या संगठन का अधिकार है, लेकिन सरकारी अधिसूचना के विरोध में बछड़े को काटना बहुसंख्यक भारतीय जनगणमन की भावनाओं को सीधी चुनौती है। अधिसूचित नियमों की संवैधानिकता को लेकर भी प्रश्न उठाए गए हैं। पशुमांस के व्यापार को मौलिक अधिकार बताया गया है। अनुच्छेद 19 (1जी) का उल्लेख किया गया है। मौलिक अधिकारों वाला यह अनुच्छेद पठनीय है-‘सभी नागरिकों को कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार होगा।’ गोवंश हत्या के समर्थक इन्हीं पंक्तियों के बहाने इस व्यवसाय को मौलिक अधिकार बता रहे हैं। दूसरी ओर इसी अनुच्छेद 19(6) में कहा गया है कि ‘उक्त उपखंड 19(1जी) की कोई बात राष्ट्र राज्य को निर्बधन करने वाला कोई कानून बनाने से नहीं रोकेगी।’ व्यापार या वृत्ति चुनना व्यक्ति का अधिकार है तो बाजार को विनियमित करना राष्ट्र राज्य का मौलिक अधिकार है। दोनों के अधिकार एक ही अनुच्छेद 19 में मौजूद हैं। मूलभूत प्रश्न है कि केंद्र ने गाय, भैंस, ऊंट सहित तमाम पशुओं के बाजार को विनियमित करने की अधिसूचना जारी की, लेकिन विरोधियों ने प्रदर्शन के लिए गोवंश काटने और बीफ पार्टी का निश्चय ही क्यों किया? दरअसल ऐसे लोगों का लक्ष्य बहुसंख्यक भारत की भावनाओं पर हमला करना ही है।
बूचड़खानों की ओर से पहले भी सुप्रीम कोर्ट में मुकदमे गए। 1969 में कोर्ट ने अनुच्छेद (1जी) के अंतर्गत बूचड़खानों को राहत दी, लेकिन 2005 में सात न्यायमूर्तियों की पीठ ने निर्णय दिया कि ‘पशु कभी भी अनुपयोगी नहीं होते। उनके गोबर का उपयोग बायोगैस में और मूत्र का उपयोग औषधि निर्माण में होता है।’ न्यायालय ने उपयोगितावाद के आधार पर भी गोवंश संरक्षण और गोवध निषेध का औचित्य ठहराया। सुप्रीम कोर्ट के निष्कर्ष पालनीय होते हैं, फिर भी राजनीतिक हाय तौबा मची है। पशु संरक्षण का प्रश्न उपयोगितावाद से ही नहीं जांचा जा सकता। उन्हें अनुपयोगी बताकर काट देना प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध है। क्रूर उपयोगितावाद और उपभोक्तावाद के चलते ही हमारे बूढ़े मां-बाप भी अनुपयोगी हो रहे हैं। लाखों बूढ़े अभिशप्त हैं। गोवंश हत्या का निषेध भारत का सांस्कृतिक प्रश्न है। यह भारत के संविधान का दर्शन भी है।
संविधान सभा में गोवध रोक पर बहस हुई थी। सेठ गोविंददास ने गोवध निषेध को सांस्कृतिक विषय बताया और कहा कि गाय श्रीकृष्ण के समय से महत्वपूर्ण है। गोवध निषेध को मौलिक अधिकार बनाना चाहिए। शिब्बन लाल सक्सेना, ठाकुर दास भार्गव, रामनारायण सिंह, रघुवीर, आरवी घुलेकर, राम सहाय और रणवीर सिंह आदि अनेक सदस्यों ने भी इसे महत्वपूर्ण बताया। एक सदस्य एन राय ने बूढ़े गोवंश को बचाने के प्रयास को आर्थिक आधार पर गलत बताया। यह भी कहा गया कि एक बड़ा वर्ग गोमांस खाता है। इसलिए गोवध निषेध अनुचित होगा। संविधान सभा में गोसंरक्षण को लेकर सहमति थी। इसलिए पूरे विषय को संविधान के नीति निदेशक तत्वों (भाग 4) में रखा गया। भारतीय संस्कृति और संविधान के विरोधी नीति निदेशक तत्वों को महत्वपूर्ण नहीं मानते। अनुच्छेद 37 में नीति निदेशक तत्वों की महत्ता का उल्लेख है कि ‘इस भाग में सम्मिलित विषय किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे फिर भी इनमें कथित तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं। कानून बनाते समय इन तत्वों को लागू करना राष्ट्र राज्य का कत्र्तव्य होगा।’ अनुच्छेद 48 के अनुसार ‘राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा। विशिष्टतया गायों बछड़ों तथा अन्य दुधारू और मालवाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा।’
गोसंरक्षण का प्रश्न बड़ा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित तमाम राज्यों में गोवध निषेध कानून हैं। जहां नहीं हैं, उन राज्यों में भी लोकमत का दबाव है। यह कहना गलत है कि सरकार किसी की भोजन सूची के खाद्य पदार्थ नहीं तय कर सकती। गोमांस खाना मूल अधिकार नहीं है। मौलिक अधिकार भी लोकव्यवस्था के संयम में ही फलीभूत होते हैं। जीवन का मौलिक अधिकार प्रकृति प्रदत्त है। जीवन सरकार की देन नहीं है। कोर्ट ने गंगा को व्यक्ति माना है। पशु भी जीवंत हैं। पशु संरक्षण हमारा राष्ट्रीय कत्र्तव्य है, लेकिन कुछेक गोभक्त या गोसंरक्षक कानून से खिलवाड़ करते देखे गए हैं। उनकी आस्था सम्माननीय है, लेकिन विधि विरुद्ध कर्म नहीं। कई राज्यों में बिना मालिक के गोवंश इधर-उधर घूम रहे हैं। किसान परेशान हैं। गोसंरक्षक गोपालक संस्थाएं कम हैं। गोसंरक्षण के लिए समाज को आगे आना ही होगा।
कुछेक स्वयंभू विद्वान वैदिक पूर्वजों को गोमांसभक्षी बताते हैं। वे ऋग्वेद के एक मंत्र (8.4.11) ‘उक्षान्नाय, वशान्नाय सोम पृष्ठाय वेधसे’ में प्रयुक्त उक्षा का अर्थ बैल व वशा का अर्थ गाय करते हैं। उनके अर्थ में अग्निदेव मांसभक्षी हैं, इसलिए पूर्वज भी। उन्होंने उक्षा व वशा के साथ प्रयुक्त ‘अन्नाय’ शब्दों का अर्थ शरारतन छोड़ दिया। सातवलेकर का अनुवाद है ‘अन्न को रस से सिंचित करने वाले, अन्न को रमणीय बनाने वाले सोमपीठ अग्नि की हम उपासना करते हैं। माक्र्सवादी विचारक डॉ. रामविलास शर्मा ने ऐसे तमाम तर्क देकर आर्यो को मांसभक्षी नहीं माना है। गोवंश भारतीय परंपरा में आदरणीय है। ऋग्वेद (1.164.27) में वह अबध्य है। अथर्ववेद में पशु क्रूरता अधिनियम जैसी शब्दावली है। कहते हैं ‘जो गाय के कान पर प्रहार करते हैं वे समाज पर प्रहार करते हैं, जो गाय पर परिचय चिन्ह खोदते हैं, उनकी धन समृद्धि दंडनीय है।’ यहां गाय के मालिक पर भी दंड है। ‘जिस गोपति के सामने कौआ गाय को चोट पहुंचाता है उसकी संतानें दंडनीय हैं।’ गाय का आदर असंदिग्ध है। कोई कह सकता है कि भारत की बहुसंख्यक जनता ही गाय का आदर करती है। ऐसा सच है तो भी शेष लोगों को बहुसंख्यकों की श्रद्धा का सम्मान करना चाहिए।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]