ईश्वर ने जब धरती रची, तो हर जगह उन्होंने सौंदर्य बिखेरा। उन्होंने हमें सौंदर्यबोध भी दिया, लेकिन यह बात हम पर छोड़ दी कि हम किसे देखें और किसे अनदेखा करें। इसके बाद हम अपने बनाए विधानों में ही रच-बस गए। यकीनन हमने सैर सपाटा किया, लेकिन बस छुट्टियां मनाने के भाव से। अपने आसपास बिखरे सौंदर्य को अनदेखा किया और खुद को कृत्रिम चीजों को देखने में ही व्यस्त कर डाला। आसपास कितना सौंदर्य है, इसका आभास तिनका-तिनका जोड़ रही एक चिड़िया को अपना घोंसला बनाते देखकर महसूस किया जा सकता है। मेघों को उमड़ते घुमड़ते देखना, उनके भिन्न-भिन्न आकारों-प्रकारों को बनते-बिगड़ते देखना सहज रोमांचित कर सकता है।
अंग्रेजी भाषा के कवि इमर्सन कहते थे कि हम सारी दुनिया घूमते हैं और खुबसूरती तलाशते रहते हैं, कभी मुड़कर भी नहीं देखते, अपने पास ही छुपी हुई खूबसूरती की ओर। दरअसल हमारे पास सौंदर्यबोध होकर भी नहीं होता। वह दबा-दबा सा रहता है। काम की आपाधापी ने तो उसे और दबा दिया है। जो प्रकृति प्रेमी हैं, जानते हैं कि दुनिया की हर वस्तु में अप्रतिम सौंदर्य का वास है। बस देखने का नजरिया चाहिए। दार्शनिक खलील जिब्रान कहते हैं कि खूबसूरती यूं ही प्रत्यक्ष नहीं होती, यह दिल की रोशनी है, बहुत ध्यान से देखनी पड़ती है। ध्यान से देखना तभी संभव होता है, जब आप निर्मल हों। आप जितने निष्कपट होंगे सौंदर्य उतना ही अधिक आपके पास होगा। फिर नीरस से नीरस चीजों में भी आप सौंदर्य तलाश लेंगे।
महान गणितज्ञ और दार्शनिक पाइथागोरस ने गणित और खूबसूरती में भी संबंध तलाश लिया था। उन्होंने पते की बात कही थी कि किसी भी वस्तु का अगर गणितीय आयाम सटीक है, तो वह खूबसूरत है। प्राचीन यूनानी स्थापत्य पाइथागोरस के इसी सौंदर्य सिद्धांत को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था, लेकिन ये बातें बाहरी सुंदरता पर फोकस करती हैं। वस्तुत: सुंदरता एकता में विविधता और विविधता में एकता का नाम है। वैविध्य के तमाम घटकों के बीच सह अस्तित्व की धारणा का होना ही सौंदर्य है। यह बोध ही हमें प्रकृतिप्रेमी और मानवता का पुजारी बनाता है और यही भावना वसुधैव कुटंबकम की अवधारणा के मूल में है।
[ प्रवीण कुमार ]