राजीव चंद्रशेखर

पिछले सात वर्षों से मैं आधार का मुखर आलोचक रहा हूं। इस दौरान मैंने इसकी खामियों और कमजोर ढांचे में कमियां निकालीं। संप्रग सरकार ने आधार पर करोड़ों रुपये खर्च तो किए, लेकिन संसद के भीतर या बाहर उस पर कोई सार्थक बहस करना गवारा नहीं समझा। उसे कोई कानूनी आधार नहीं दिया। इससे भी बढ़कर बायोमीट्रिक डाटाबेस प्रामाणिकता की कोई कानूनी जवाबदेही नहीं तय की गई। नतीजतन नागरिकों से जुड़ी जानकारियों को लचर ढंग से पुष्ट करके बायोमीट्रिक डाटाबेस पर हजारों करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए। आधार को केवल एक बार ही जांच की कसौटी पर कसा गया। यह परख संसद में वित्त मंत्रालय की जिस स्थाई समिति ने की मैं उसका सदस्य था। समिति ने निष्कर्ष निकाला था कि सब्सिडी वितरण के मकसद में भी आधार निष्प्रभावी रहेगा। उसने आधार को राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीकरण के साथ जोड़ने की सिफारिश की थी। मोदी सरकार ने आधार को खारिज नहीं किया, क्योंकि इससे उस पर खर्च हुई सरकारी रकम जाया हो जाती। इसके बजाय उसने आधार की खामियों को दुरुस्त करने पर जोर दिया। मोदी सरकार आधार को संसदीय जांच के दायरे में लाई और एक ऐसी रणनीति बनाई जिससे सरकारी सब्सिडी में गड़बड़ियों और गोरखधंधे पर विराम लगा। इसने सत्यापन की कमी और फर्जी प्रविष्टियों पर विराम लगाने के लिए अधिनियम की धारा 3(3) के तहत यूआइडीएआइ को वैधानिक दर्जा प्रदान किया। इसके बावजूद कुछ मसले अनसुलझे रह गए हैं जिन पर ध्यान देने की दरकार है।
पहला मसला तो आधार को व्यापक पहचान के तौर पर उपयोग करने से जुड़ा है जबकि यह अभी भी अपुष्ट डाटाबेस है। वर्ष 2016 तक 100 करोड़ प्रविष्टियां बहुत कम या बिना सत्यापन के ही दर्ज की गईं। दिल्ली के पालिका बाजार में महज 40 रुपये में मिलने वाली आधार पहचान का हवाई अड्डों पर प्रवेश से लेकर जन-धन योजना बैंक खाते में केवाइसी के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। फर्जी आधार संख्या का बेलगाम मसला वास्तविक है और ऐसी कोई पड़ताल नहीं हुई जो यह दर्शाए कि भारतीय विशेष पहचान प्राधिकरण यानी यूआइडीएआइ ने कानून बनने से पहले की प्रविष्टियों को धारा 3(3) के अनुरूप जांचने के लिए कुछ कदम उठाए हैं या नहीं? परिणामस्वरूप आधार अभी भी अपुष्ट डाटाबेस ही बना हुआ है जिसमें दर्ज करोड़ों प्रविष्टियों में यह स्पष्ट नहीं है कि बायोमीट्रिक के समक्ष दर्ज नाम सही हैं या नहीं? डाटाबेस का खेल एकदम सीधा है वहां मैदान वैसा ही नजर आता है जैसे आप आंकड़े उपलब्ध कराते हैं। हालांकि धारा 3(3) और 4(3) से यही धारणा बनती है कि यूआइडीएआइ आधार से जुड़ी सभी सूचनाओं की प्रामाणिकता की गारंटी लेता है। इसी वजह से अब सभी सरकारी विभागों में पहचान के तौर पर आधार मांगा जाता है, मगर वे इस बात से या तो वाकिफ नहीं या फिर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आधार से जुड़े आंकड़ों में काफी घालमेल है। कानून और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री संसद को आश्वस्त कर चुके हैं कि 2010 से 2016 के बीच इकट्ठा आंकड़ों की प्रामाणिकता को लेकर सरकार पूरी तरह निश्चिंत है। उन्होंने सदन को आश्वासन दिया कि यूआइडीएआइ द्वारा तैयार किया गया तंत्र पूरी तरह सुरक्षित और मजबूत है। हालांकि आधार से जुड़े तमाम फर्जी मामले भी देखने को मिले हैं। इसमें ताजा मामला तो उस पाकिस्तानी जासूस का भी है जिसने फर्जी नाम से आधार हासिल किया था। अगर उसके जरिये अगर आतंकी हमला होता तो क्या आधार को जिम्मेदार माना जाता?
फर्जीवाड़े की आशंकाओं को दूर करने के लिए यूआइडीएआई को तत्काल ही अपने डाटाबेस का ऑडिट, छंटाई और सत्यापन कराना चाहिए। राष्ट्र हित में इसकी अनदेखी भारी पड़ेगी। आधार को लेकर दूसरा मसला बेहतर सब्सिडी वितरण में उसे अनिवार्य बनाए जाने की बहस से जुड़ा है। यह व्यर्थ की बहस है। असल मुद्दा समावेशन और गैर-समावेशन का है। आधार को अवश्य ही सब्सिडी वितरण का माध्यम बनाया जाना चाहिए, क्योंकि सब्सिडी में घालमेल होने से गरीबों और जरूरतमंदों को ही नुकसान पहुंचता है। आधार को तभी अनिवार्य बनाया जाना चाहिए जब यह सुनिश्चित हो जाए कि इसका खामियाजा गरीब और जरूरतमंदों को नहीं भुगतना होगा। आधार की अनिवार्यता पर बनी दुविधा के लिए भी यूआइडीएआइ का ही एक अस्पष्ट नियम जिम्मेदार है। यह यूआइडीएआइ की लापरवाही का ही नतीजा है। उसे चाहिए कि वह राष्ट्रीय पहचान के मसले पर संसद की स्थाई समिति के जरिये सख्त निगरानी के हरसंभव उपाय करे। एक अन्य मसला डाटा सुरक्षा यानी निजता-गोपनीयता से जुड़ा है। जैसे-जैसे आधार और उसका नए-नए क्षेत्रों में विस्तार हो रहा है वैसे-वैसे उसके दुरुपयोग की आशंकाएं भी बढ़ रही हैं। डर है कि कहीं खुफिया तौर पर निगरानी के लिए तो डाटा का इस्तेमाल नहीं होगा। कुछ चिंताएं वाजिब हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश समझ और सूचनाओं के अलावा पारदर्शिता के अभाव में ही पैदा हुई हैं। अगर सरकार ऐसे दुरुपयोग को रोकने के लिए उचित सुरक्षा इंतजाम करती है तो ये डर भी गायब हो जाएंगे। यह मसला नागरिकों से जुड़ी निजी संवेदनशील जानकारियां इकट्ठा करने, सहेजने और मुहैया कराने वालों की पारस्परिक जवाबदेही की कमी से जुड़ा है। इन जानकारियों के डाटाबेस की सुरक्षा को लेकर यूआइडीएआइ की कोई जवाबदेही नहीं तय की गई है। अगर इसकी प्रविष्टियां गैर-सत्यापित, फर्जी और खामियों से भरी हैं तो ऐसे डाटाबेस को कैसे मानक बनाया जा सकता है? इसका जिम्मेदार कौन है?
निजता का मसला व्यापक और ज्यादा बुनियादी है। यह सरकार और सभी एजेंसियों की भूमिका और उत्तरदायित्व को लेकर वाजिब सवाल उठाता है और वह भी ऐसे दौर में जब हमारे जीवन में डिजिटल पैठ लगातार बढ़ रही है। वित्त मंत्री ने आधार विधेयक पर चर्चा के दौरान कहा था कि निजता मूल अधिकारों में आती है। उनकी यह बात मेरे रुख को ही दर्शाती है। आधार और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत निजता और डाटा सुरक्षा से जुड़े मौजूदा प्रावधानों में पलड़ा पहले से ही डाटा रखने वालों के पक्ष में झुका हुआ है।
हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं और जल्द ही दुनिया का सबसे बड़ा डिजिटल लोकतंत्र भी बन जाएंगे, ऐसे में हमें राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिकों की निजता के बीच संतुलन साधकर दुनिया के सामने मिसाल पेश करनी चाहिए। हालांकि कानून और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री जोर देकर कहते हैं कि आधार और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम हैं, मगर मैं यह कहना चाहता हूं कि वह गलत हैं। मैं सरकार से चाहूंगा कि वह इस पर सार्थक चर्चा करे और अड़ियल रुख न अपनाए। इससे पहले कि अदालत इसमें दखल दे, सरकार के लिए बेहतर होगा कि वही पहल करे। डिजिटल दुनिया में निरंतर परिवर्तन बहुत सामान्य हैं। जिन जोखिमों का जिक्र किया जा रहा है वे वास्तविक हैं और उनके निदान की दरकार है। वास्तव में खुद को ढालने और परिवर्तन की जरूरत है खासतौर से उस दौर में जब आधार अप्रामाणिक बायोमीट्रिक डाटाबेस की पहचान पीछे छोड़कर दमदार, भरोसेमंद और प्रामाणिक राष्ट्रीय पहचान के रूप में उभर रहा है।
[ लेखक राज्यसभा सदस्य हैं ]