बलबीर पुंज

बीते 17 अगस्त को यूरोपीय देश स्पेन दो-दो आतंकी हमलों से दहल उठा। पहला हमला बार्सिलोना में हुआ जहां भीड़-भाड़ वाली सड़क पर आतंकी ने नीस में ‘लोन वुल्फ’ हमले की तर्ज पर वाहन से निरपराध मासूमों को रौंद डाला। इस हमले में 14 लोगों की मौत हो गई जबकि 130 घायल हो गए। दूसरा हमला केम्ब्रिल्स में हुआ-यहां आतंकियों ने लोगों पर गोलीबारी की जिसमें एक महिला की मौत हो गई। पुलिस की जवाबी कार्रवाई में पांच आतंकी घटनास्थल पर ही मारे गए। इन हमलों की जिम्मेदारी कुख्यात आतंकी संगठन आइएस ने ली है। बार्सिलोना हमले के अगले ही दिन फिनलैंड के टुर्कू शहर में कई लोगों पर चाकू से हमले की खबर सामने आई जिसमें दो लोगों की मौत हो गई जबकि छह घायल हो गए। जनवरी 2016 से अगस्त, 2017 के मध्य तक यूरोप 70 से अधिक इस्लामी आतंकवादी हमलों और मजहबी हिंसा का दंश झेल चुका है। इन कुकर्मों को अंजाम देने वाले अधिकांश मुस्लिम शरणार्थी हैं। क्या इस परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम समाज स्वयं को यूरोप में ‘सुरक्षित’ समझता है?
भारत में बतौर उपराष्ट्रपति अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम दिनों में हामिद अंसारी ने एक साक्षात्कार में कहा, ‘देश में मुस्लिमों के भीतर असुरक्षा की भावना पैदा हो रही है।’ इसके अतिरिक्त बेंगलुरु में एक दीक्षांत समारोह में उन्होंने ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को गैर-उदारवादी बताते हुए इसे ‘असहिष्णुता’ को बढ़ावा देने वाला तत्व बताया। इन दोनों वक्तव्यों का भाव यह है कि मोदी/भाजपा शासन में मुस्लिमों में ‘असुरक्षा’ की भावना निरंतर बढ़ रही है। यह ठीक है कि हामिद अंसारी देश के सभी 20 करोड़ मुस्लिमों की भावना का दावा नहीं करते है, परंतु कटु सत्य यही है कि देश में मुस्लिम समाज का एक वर्ग स्वयं को भारत में असंतुष्ट, नाराज और असुरक्षित मानता है। अंसारी साहब ने सत्य तो बोला, किंतु पूरा नहीं। उन्होंने जो कुछ कहा, वह आधा सच है जो कि एक सफेद झूठ से कई गुना घातक है।
सच्चाई यह है कि मुसलमानों का एक वर्ग न तो भारत में और न ही शेष विश्व में सुरक्षित अनुभव करता है। इसी सत्य का दूसरा भाग यह है कि भारत में मुस्लिम समाज के बड़े हिस्से में ‘असुरक्षा’ की भावना बीते तीन वर्षों से नहीं है, बल्कि यह तब से है जब दिल्ली में इस्लामी साम्राज्य का अंत हो गया। यदि मुसलमान इस ‘असुरक्षा’ की भावना से ग्रस्त नहीं होता-तो न ही मुस्लिम लीग की स्थापना होती और न ही 1920 के आसपास सुरक्षा की खोज में भारत में हिजरत होती और न ही बंटवारे के लिए हिंसा और न ही 14 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान का जन्म होता। भारत के रक्तरंजित विभाजन के पीछे की मानसिकता क्या थी? मुसलमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंदुओं के साथ बराबर बैठने में ‘असुरक्षा’ का अनुभव करते थे। इसी भावना को मोहम्मद अली जिन्ना ने आवाज प्रदान की। अंततोगत्वा, अंग्र्रेजी साम्राज्य की मेहरबानी और वामपंथियों की बौद्धिक खुराक से उस इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान की सीमा खींची गई जिसका मौलिक आधारभूत दर्शन प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से ‘काफिर’ भारत को खत्म करने के लिए प्रेरित करता है। तकरीबन 95 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाला पाकिस्तान क्या ‘असुरक्षा’ बोध से ग्रस्त नहीं है? 70 वर्षों के दमन के कारण वहां हिंदू-सिख जनसंख्या लगभग नगण्य हो गई है। इस पर भी ‘असुरक्षा’ की भावना से ग्रस्त होकर आज वहां मुस्लिम एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा में लिप्त हैं। गत 14 वर्षों में वहां मजहबी हिंसा और आतंकी हमलों में 62,403 निरपराध लोगों की मौत हो चुकी है। ध्यान देने वाली बात तो यह है कि वहां हिंसा करने वाले और लगभग उसके सभी शिकार, दोनों मुस्लिम हैं और ये हत्याएं इस्लाम के नाम पर हो रही हैं।
क्या मुसलमान चीन और अमेरिका में सुरक्षित अनुभव करते हैं? अमेरिका में ‘इस्लाम का दमन हो रहा है’ जैसे जुमले हमें अक्सर सुनने को मिलते है। पाकिस्तान से गहरी मित्रता होने बावजूद चीन के शिनजियांग प्रांत में इस्लाम अनुयायी कितने ‘असंतुष्ट’ और ‘असुरक्षित’ हैं, यह उइगर समाज और सरकार के बीच जारी संघर्ष से स्पष्ट हो जाता है। क्या मुस्लिमों के लिए इराक और सीरिया सुरक्षित हैं? इराक में इस वर्ष 15 अगस्त तक 11,263 नागरिक मारे जा चुके हैं। जबकि मार्च 2011 से अब तक सीरिया की कुल आबादी का 11.5 प्रतिशत भाग या तो मारा जा चुका है या फिर घायल है। इस त्रासदी के पीछे इस्लाम के नाम पर नरसंहार करने वाला आइएस संगठन है जो आज शेष विश्व में गैर-मुस्लिमों और उनके मजहब के प्रति ‘असुरक्षा’ के भाव से ग्रस्त होकर हिंसक कृत्यों को अंजाम दे रहा है। बार्सिलोना आतंकी हमला उसकी ही परिणति है।
हामिद अंसारी का हालिया वक्तव्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्तारूढ़ भाजपा को ही कटघरे में खड़ा करता हैं। गत तीन वर्षों के शासन में यहां मुस्लिमों को प्रताड़ित करने का आरोप लगाया जा रहा है। ‘यह शासन फासीवादी है...गोरक्षा की बात करते हैं...मुस्लिमों को गोमांस सेवन की अनुमति नहीं देते हैं...यह देश हिंदुओं का है... कहकर मुस्लिमों को अपमानित करते हैं...मस्जिद पर हमले होते हैं...नमाज के समय मस्जिदों के बाहर हिंदू अपने त्योहार के अवसर पर शोर-शराबा करते हैं...उर्दू की उपेक्षा कर हिंदी भाषा को थोपते हैं...वंदे मातरम पर जोर देते हैं...भारत में हिंदू राज स्थापित कर मुस्लिमों के मजहब और उनकी संस्कृति को नष्ट करने का षड्यंत्र रच रहे हैं।’
उपरोक्त सभी आरोप विभाजन से पूर्व, 1930 और 1940 के दशक में मुस्लिम लीग ने लगातार तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व पर लगाए। यह विडंबना ही है कि आज यही लांछन कांग्रेस, वामपंथियों और मुस्लिम लीग के विचारों से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्तारूढ़ भाजपा पर लगा रही है। खिलाफत आंदोलन की शुरुआत प्रथम विश्व युद्ध में अंग्र्रेजों के हाथों तुर्की की हार के बाद हुई थी। भारत में इस आंदोलन का नेतृत्व स्वयं गांधीजी ने किया था, क्योंकि वह उस समय देश में मुस्लिमों के बीच पैदा हुई ‘असुरक्षा’ की भावना को खत्म करना चाहते थे। फिर भी उस कालखंड में ‘असुरक्षित’ मुस्लिमों ने भारत को दार-उल-हरब (लड़ाई का घर) घोषित कर दार-उल-अमन (शांति का घर) अफगानिस्तान की ओर प्रस्थान किया। अत्याधिक संख्या होने के कारण अफगानिस्तान के तत्कालीन शासक ने शरणार्थी भारतीय मुस्लिमों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया। जब अहिंसावादी और मुस्लिम हितों की रक्षा करते हुए अपने जीवन का बलिदान देने वाले गांधीजी सहित अमेरिका और यूरोपीय देश जैसे संपन्न राष्ट्र मुसलमानों के बीच ‘असुरक्षा’ की भावना को दूर करने में असफल रहे हैं तो क्या उस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसमें सफल हो सकते है?
[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य और स्तंभकार हैं ]