इस साल देश में रिकॉर्ड 274 मिलियन टन अनाज पैदा होने का अनुमान है। गेहूं और चावल के साथ दालों का उत्पादन भी जरूरत से ज्यादा हुआ है। विडंबना देखिए कि सके बाद भी किसान आंदोलन की राह पर हैं। धीरे-धीरे किसानों का आंदोलन कई राज्यों में फैलता दिख रहा है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश के बाद पंजाब, राजस्थान और तमिलनाडु में किसान संगठन आंदोलन की मुद्रा में हैं। हरियाणा, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में भी किसान आंदोलन की आहट है। उत्तर प्रदेश के किसानों में भी बेचैनी हैं, जहां उनके कर्ज माफ करने की घोषणा की जा चुकी है। तमाम किसान सलिए बेचैन हैं कि वे कर्ज माफी से वंचित हुए जा रहे हैं। दरअसल यह भाजपा की अदूरदर्शिता का नतीजा है। 2014 के आम चुनाव में पार्टी ने वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आई तो वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करते हुए अनाज का समर्थन मूल्य लागत का 50 प्रतिशत बढ़ाकर देगी, लेकिन जब मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो मोदी सरकार ने हलफनामा देकर कहा कि यह संभव नहीं है। सके बाद एक अन्य लोक लुभावन वादा यह किया गया कि 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी कर दी जाएगी। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले किसान कर्ज माफी के वायदे को भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में शामिल किया और चुनाव प्रचार के दौरान खुद प्रधानमंत्री ने एलान किया कि उनकी पार्टी की सरकार बनते ही किसानों का कर्ज माफ किया जाएगा। पार्टी की सरकार बन गई और किसानों का 36000 करोड़ कर्ज माफ करने की घोषणा भी कर दी गई। स घोषणा के दो माह बाद भी योगी सरकार स संबंध में कोई अधिसूचना जारी नहीं कर सकी है। स बीच अन्य राज्यों के किसानों को लगा कि वे कर्ज माफी से सलिए वंचित हो रहे हैं, क्योंकि उनके यहां चुनाव नहीं होने जा रहे हैं। जाहिर है कि उन्हें आंदोलन से ही अपनी मांग मनवाने का रास्ता सबसे सहज लगा। आज कई राज्यों के किसान कर्ज माफी की मांग कर रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या कर्ज माफी चुनावी मुद्दा होना चाहिए? यह तो शुद्ध रूप से नीतिगत मामला है और से नीति बनाने वाली सस्थाओं पर छोड़ देना चाहिए। आखिर किस आधार पर उत्तर प्रदेश के किसानों का कर्ज माफ करने का एलान खुद प्रधानमंत्री की ओर से किया गया? क्या अन्य राज्यों के किसान की उत्पादकता उत्तर प्रदेश के किसानों से ज्यादा है? वोट पाने की ललक में पार्टियां पहले गैर जिम्मेदाराना वादे करती हैं और फिर या तो मुकर जाती हैं या आंशिक रूप से उन्हें पूरा करके समूचे देश में आक्रोश पैदा करती हैं। आज अगर देश के सभी किसानों का कर्ज माफ करना पड़े तोकरीब ढाई लाख करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे। क्या केंद्र या राज्य की सरकारें तनी राशि खर्च करने की स्थिति में हैं और अगर हैं तो क्या अर्थव्यवस्था उसे वहन करने की हालत में होगी? कर्ज माफ करना कैंसर के मरीज को दर्द की गोली देने से अधिक कुछ भी नहीं। मूल कारण पर जाना होगा और वह यह है कि भारत में खेती अलाभकर बनी हुई है। पिछले 25 सालों से लगभग हर दिन किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। एक अनुमान के अनुसार हर रोज सैकड़ों किसान खेती छोड़कर शहरों में मजदूरी करने के लिए पलायन को विवश हैं। मोदी सरकार ने लोक-लुभावन वादों से किसानों की अपेक्षाएं तो बढ़ा दीं, लेकिन उनकेहाथ आया कुछ भी नहीं और वह भी तब जब उन्होंने जमकर अनाज पैदा किया। दलहन, जिसका उत्पादन लगातार घट रहा था, का उत्पादन 30 प्रतिशत बढ़कर 22.14 मिलियन टन हो गया, लेकिन जब किसान अपनी उपज लेकर बाजार गया तो जिस अरहर के दाम आसमान छू रहे थे उसे आढ़तियों ने 3800-4000 रुपये प्रति क्विंटल खरीदने की पेशकश की। ऐसा तब हुआ जब सरकारी समर्थन 5050 रुपये प्रति क्विंटल था। सरकारी क्रय केंद्रों पर किसान आढ़तियों के हाथ सस्ते में दाल बेचने पर मजबूर हुए। कई जगह उन्हें समय पर पैसे भी नहीं मिले। खुले बाजार में अरहर की दाल के सस्ती होने का कारण था म्यांमार, तंजानिया, मोजांबिक आदि देशों से दाल का आयात करना। लगता है कि सरकार ने यह अग्रिम जानकारी ही नहीं ली कि भारत में स साल दलहन उत्पादन की क्या स्थिति रहेगी? अगर यह पता कर लिया गया होता कि अरहर का उत्पादन डेढ़ गुना होने जा रहा है तो वह यह भी जान जाती कि भारत में जितनी दाल की खपत हर साल होती है वह घरेलू उत्पादन से ही पूरी की जा सकती है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश दलहन उत्पादन के लिए जाने जाते हैं। यहां के अरहर उत्पादक किसान आज अपने को ठगा महसूस कर रहे हैं। 1देश में 77 प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है। 70 साल से किसानों को अन्नदाता कहने वाले सत्ताभोगी वर्ग ने आज तक मात्र 45 प्रतिशत जमीन पर ही सिंचाई की व्यवस्था की है बाकि 55 प्रतिशत खेती अभी भी मानसून यानी भगवान के भरोसे होती है। यह समझने के लिए आंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए कि औसत किसान को एक हेक्टेयर में कितनी सालाना आय होती है? किसानों की समस्या को पिछले कई दशकों से गहराई से समझा ही नहीं गया। सत्ता चाहे अंग्रेजों की रही हो या फिर किसान हितैषी कहे जाने वाले हमारे अपने राजनीतिक दलों की, किसी ने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश ही नहीं की। किसानों की बेचैनी के मामले में यह भी समझने की जरूरत है कि किस तरह एक बड़ी आबादी का हालत जस की तस बनी रही और दूसरी ओर एक छोटे से अभिजात्य वर्ग की समृद्धि बढ़ती गई। वर्ष 2000 में भारत के एक फीसदी अभिजात्य वर्ग के पास देश की 37 प्रतिशत पूंजी थी। 2005 में वह बढ़ कर 42 प्रतिशत हो गई, 2010 में 48 प्रतिशत और 2012 में 52 प्रतिशत। आज वह बढ़ कर 58.4 प्रतिशत हो गई है। गरीबी-अमीरी की बढ़ती खाई भी किसानों के आंदोलन के रास्ते पर जाने की एक वजह नजर आती है। स खाई को कम करने के लिए कुछ ठोस किया जाना चाहिए, अन्यथा किसानों में बढ़ते असंतोष को रोकना कठिन होगा। यह काम ठोस नीतियां बनाकर ही किया जा सकता है। 1ऐसा नहीं है कि बीते तीन सालों में मोदी सरकार ने कृषि की दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं किया। उसने कई कदम उठाए हैं। जैसे कि फसल बीमा योजना और यूरिया पर नीम की परत चढ़ाना। सके अलावा किसानों को मृदा-स्वास्थ्य कार्ड उपलब्ध कराना और बैंक खाते में सब्सिडी का पैसा सीधे जमा कराना। अगर राज्य सरकारें किसानों के नाम पर वोट बैंक की राजनीति करना छोड़कर उनके कल्याण की योजनाओं पर सही तरह अमल करें तो किसानों की हालत काफी हद तक बदली जा सकती है। चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, दोनों को यह भी समझना होगा कि किसानों को उनकी उपज का लागत मूल्य ही नहीं, बल्कि उससे कुछ अधिक मिलना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो खेती घाटे का सौदा बनी रहेगी।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं मीडिया संस्था एनबीए के महासचिव हैं)