सुरेंद्र किशोर
बिहार के नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम पर एक पंक्ति में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद से नाता तोड़कर अंतत: खुद को और बिहार को बचा लिया है। नीतीश कुमार की छवि बची और बिहार एवं राज्य सरकार शासकीय अराजकता की ओर जाने से। खुद नीतीश कुमार ने यह स्वीकार किया कि ‘इस गठबंधन का नेतृत्व करना मेरे लिए संभव नहीं रह गया था। अपने वायदों को हम पूरा नहीं कर पा रहे थे। भ्रष्टाचार का साथ देना मेरे वश में नहीं।’ याद रहे कि लंबे राजनीतिक जीवन के बावजूद नीतीश कुमार पर निजी संपत्ति बढ़ाने का कोई आरोप नहीं है। उन्होंने किसी परिजन या रिश्तेदार को राजनीति में आगे नहीं बढ़ाया। दूसरी ओर जिनसे नीतीश की राजनीतिक लड़ाई है, उनकी क्या स्थिति है? कम कहना अधिक समझना! लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच मतभेद का सिर्फ यही कारण नहीं था कि तेजस्वी यादव पर गंभीर आरोप लगे। राज्य के कुछ सत्ताधारियों के कारण सरकारी गलियारों और जिलों में जो कुछ घट रहा था वह बिहार के लिए कतई शुभ नहीं था। इसे लेकर नीतीश कुमार के कुछ समर्थक भी उनसे निराश हो रहे थे। बदले निजाम में अब यह उम्मीद की जा सकती है कि बिहार एक बार फिर विकास की पटरी पर तेजी से दौड़ने लगेगा। हालांकि विकास के लिए शासन को कानून व्यवस्था की मौजूदा स्थिति में उसी तरह सुधार करना पड़ेगा जिस तरह दस साल पहले सुधार हुआ था। तब राज्य में जदयू-भाजपा की सरकार थी। उसके उलट हाल के महीनों में तो स्थिति यह बनी कि कुछ बाहरी उद्योगपतियों ने बिहार में निवेश के अपने प्रस्ताव को वापस ले लिया। नई जदयू-भाजपा सरकार के गठन के बाद बिहार को आर्थिक मदद देने को लेकर केंद्र सरकार की सुस्ती भी अब संभवत: समाप्त होगी। उम्मीद की जा रही है कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ नीतीश कुमार के बेहतर होते संबंध का लाभ भी इस पिछड़े प्रदेश को मिलेगा।
बीस माह में ही बिखर गए महागठबंधन में शामिल कांग्रेस के बारे में यही कहा जा सकता है कि उसने इस बार भी लालू परिवार का साथ देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होने का अंतिम मौका भी गंवा दिया। यह देखना दिलचस्प होगा कि अब वह मोदी के नेतृत्व वाले राजग के खिलाफ किस नैतिक बल के सहारे खड़ा हो पाएगी? याद रहे कि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में राहुल गांधी ने एक अध्यादेश की कॉपी सार्वजनिक रूप से फाड़ दी थी। उस अध्यादेश के जरिये सरकार सजायाफ्ता नेताओं को राहत देना चाहती थी। राहुल गांधी के कड़े रुख के कारण केंद्र सरकार ने वह अध्यादेश वापस ले लिया था। परिणामस्वरूप लालू प्रसाद और एक अन्य सजायाफ्ता जनप्रतिनिधि की सदन की सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो गई थी। इसी पृष्ठभूमि में नीतीश कुमार को यह उम्मीद थी कि राहुल गांधी तेजस्वी यादव से इस्तीफा लेने में मदद करेंगे। नीतीश कुमार ने इस सिलसिले में राहुल गांधी से मुलाकात भी की, पर कुछ नतीजा नहीं निकला। अब राहुल गांधी कह रहे हैं कि उन्हें पता था कि नीतीश भाजपा के साथ जाने वाले हैं। यदि पता था तो क्या उन्होंने ऐसा नीतीश कुमार से कहा या फिर उन्हें रोकने के लिए कोई अन्य उपाय किया? लगता है कि कांग्रेस को यह याद नहीं रहता कि भ्रष्टाचार के बचाव के कारण वह पहले भी कई बार चुनाव हार चुकी है। वह कोई सबक सीखने को तैयार नहीं। इस मामले में वह लाचार लगती है। यदि तेजस्वी यादव का इस्तीफा हो गया होता तो नीतीश कुमार के लिए भाजपा से हाथ मिलाना फिलहाल मुश्किल होता। यह और बात है कि फिर भी महागठबंधन अधिक दिनों तक नहीं चलता। इसके लिए नीतीश कुमार जिम्मेदार नहीं होते। नीतीश की राजद से शिकायतें और भी थीं। देर सवेर उन्हें लेकर विस्फोट होना ही था।
एक अर्से से यह खबर राजनीतिक हलकों में तैर रही थी कि राजद खेमे के कुछ मंत्री मुख्यमंत्री की बात नहीं सुन रहे हैं। कुछ अन्य तरह की शिकायतें मुख्यमंत्री को अन्य सूत्रों के जरिये समूचे राज्य से मिल रही थीं। सत्ता के एक से अधिक अघोषित और गैर संवैधानिक केंद्र बन चुके थे। इसी कारण यह कहने वाले लोग भी हैं कि यदि तेजस्वी ने इस्तीफा भी दे दिया होता तो भी यह महागठबंधन सरकार चलने वाली नहीं थी। जो भी हो, यह एक बड़ा सवाल है कि नीतीश कुमार ने 2013 में भाजपा का साथ क्यों छोड़ा था और आज वह क्यों उसी के साथ हो गए? संभव है कि राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के मुकाबले अपने लिए किसी भूमिका की तलाश में नीतीश कुमार ने तब भाजपा का साथ छोड़ा हो। हालांकि नीतीश कुमार ने सार्वजनिक रूप से हमेशा यही कहा कि मैं प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं हूं, लेकिन यदि उनके मन में ऐसी कोई महत्वाकांक्षा हो तो यह अस्वाभाविक बात नहीं है। कोई भी नेता अपना प्रमोशन चाहता है। कई गैर-जदयू नेता यह कह चुके थे कि नीतीश कुमार पीएम मेटेरियल हैं, लेकिन यदि केंद्रीय स्तर पर किसी सम्मानजनक भूमिका की कोई गुंजाइश नहीं बची हो तो नीतीश कुमार का ध्यान फिर दूसरी तरफ यानी बिहार की तरफ जाना स्वाभाविक ही था। संभवत: नीतीश कुमार के साथ यही हुआ हो। इसीलिए उन्होंने बिहार सरकार और बिहार पर पूरा ध्यान देने के लिए महागठबंधन को तोड़ना जरूरी समझा हो।
यदि राजग विरोधी दलों को राष्ट्रीय स्तर पर लामबंद के फेर में बिहार के सुशासन पर आंच आने लगी तो नीतीश कुमार आखिर क्या करते? उन्होंने फिर अपनी पुरानी राह पकड़ ली। हफ्ता भर पहले एक जदयू नेता ने कहा भी था कि 2005 से 2013 तक जब हम बिहार में भाजपा के साथ सरकार में थे तो असहज महसूस नहीं कर रहे थे। अब असहज महसूस कर रहे हैं। कम से कम दो मोर्चों पर असहजता जदयू और खासकर नीतीश कुमार को अधिक तकलीफ दे रही थी। एक ओर कानून व्यवस्था की स्थिति खराब होती जा रही थी। राजनीतिक संरक्षण वाले अपराधियों का मनोबल बढ़ गया था। आंकड़े जो भी बताएं, लेकिन शांतिप्रिय लोगों को जब यह पता चलता है कि फलां अपराधी फलां नेता की शह पर अपराध कर रहा है तो इलाके में एक खास तरह की दहशत हावी हो जाती है। दूसरी ओर राज्य सरकार में कई स्तरों पर भ्रष्टाचार का बोलबाला था। कई मामलों में तो उस पर नीतीश कुमार का भी कोई बस नहीं चलता था। इन मुद्दों पर आम लोगों में नीतीश कुमार की आलोचना भी होने लगी थी। नवंबर, 2015 के बाद के बिहार की राजनीतिक और प्रशासनिक स्थिति पर गहराई से नजर रखने वाले हैरत में थे कि नीतीश कुमार ऐसी अनियमितताओं को बर्दाश्त ही क्यों कर रहे हैं? नवंबर, 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व में तीन दलों यानी महागठबंधन की सरकार बनी थी। अब जब नीतीश कुमार इस बेमेल महागठबंधन से अलग हो गए हैं तो राज्य के शांतिप्रिय लोग राहत की सांस ले सकते हैं। नीतीश कुमार के लिए यह आवश्यक है कि वह कानून एवं व्यवस्था को लेकर जल्द ही कुछ सख्त कदम उठाएं।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं ]