निरंजन कुमार

महात्मा बुद्ध, आदिगुरु शंकराचार्य, गुरु रामानंद और स्वामी विवेकानंद आदि ने जहां दुनिया में शांति, त्याग और अध्यात्म का परचम लहराया वहीं पिछले कुछ दशकों से उभरने वाले किस्म-किस्म के बाबाओं ने राष्ट्र के मुख पर कालिख पोतने का का किया है। हाल के समय में नित्यानंद, आसाराम बापू, रामबृक्ष यादव, बाबा रामपाल जैसे तथाकथित बाबाओं की श्रृंखला में नवीनत नाम बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह का जुड़ा है। अपनी अनुयायी स्त्रियों के शारीरिक शोषण, हत्या-अपहरण से लेकर अन्य जघन्य अपराध करने वाले बाबाओं का प्रभाव इस कदर बढ़ता जा रहा है कि आज जनता को तो छोड़िये, सदिच्छाओं वाले राजनेता, अभिनेता, अधिकारी, बुद्धिजीवी इत्यादि वर्ग भी उनसे घबराने लगा है। आखिर इन बाबाओं के महाजाल का समाजशास्त्र क्या है? इसी तरह सवाल यह भी है कि इनके पीछे जनता के भागने का क्या अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान है? एक सवाल यह भी कि आखिर ढोंगी बाबाओं से छुटकारा पाने के क्या उपाय हैं?

भारतीय समाज आरंभ से ही आस्थावादी और धर्मभीरू रहा है, लेकिन पहले के मुकाबले बाबाओं के प्रति आकर्षण और श्रद्धा बढ़ने का एक बड़ा कारण पश्चिमीकरण, नव-नगरीकरण और अंध-आधुनिकता है। इन सबने मनुष्य के जीवन में एक आध्यात्मिक शून्य पैदा कर दिया है। धर्म और धार्मिक क्रिया-कलाप जिस तरह दिखावे और प्रदर्शन का जरिया बनते जा रहे हैं उससे भी समस्याएं बढ़ी हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य बड़ी घटना जो बीसवीं सदी के अंत में देखने को मिली वह थी संयुक्त परिवारों का टूटना। संयुक्त परिवार भारतीय जनता के लिए एक बड़े सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक संबल का कार्य करता था। संरचनात्क रूप से संयुक्त परिवारों का टूटना और नई जीवन शैली का एकाकीपन, यांत्रिकता, तनाव आदि से पिछले रसायन ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जहां हर व्यक्ति परेशान और बेचैन हो चला है। इन्हीं सामाजिक-मनोवैज्ञनिक स्थितियों के बीच लोग जाने-अनजाने ऐसे बाबाओं की ओर उन्मुख होने लगते हैं जो लोगों को हर दु:ख-तनाव से छुटकारा दिलाने का दावा करते हैं।

इसी के समानांतर एक और प्रक्रिया भी चल रही है और यह है राजसत्ता द्वारा अपने उत्तरदायित्व का सही ढंग से निर्वाह नहीं करना। पश्चिमी साजों में भी लोगों को उपरोक्त सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक हालात का सामना करना पड़ा, लेकिन कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का उचित परिपालन करते हुए वहां राजसत्ता ने अपना उत्तरदायित्व काफी हद तक निभाया। विभिन्न कारणों से अपने देश में राजसत्ता-तंत्र अपने सामाजिक-आर्थिक दायित्व निभाने में अपेक्षाकृत पीछे ही रहा। दूसरी ओर इन बाबाओं द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित कार्य किए जाने लगे। इसके साथ ही भूखों को भोजन से लेकर अन्य सामाजिक कामों में हिस्सेदारी की जाने लगी। इस क्रम में उनकी ओर से समानता का भाव स्थापित करने भी का काम किया जाने लगा। धीरे-धीरे वे लोगों के विवाद-झगड़ों का निपटारा भी करने लगे। वे ऐसे काम भी करने लगे जो राज्यसत्ता यानी शासन के हिस्से में आते थे। ऐसे कामों से उनकी लोकप्रियता बढ़ी।

इन कामों की आड़ में वे लगातार कई तरह के गोरखधंधों और आपराधिक कृत्यों में भी संलिप्त होने लगे। स्मग्लिंग से लेकर विभिन्न हथकंडे अपनाने के साथ झूठ-फरेब, दलाली-ठेकेदारी और सफेदपोश लोगों के कालेधन को सफेद करके कई बाबाओं ने अपना आर्थिक साम्राज्य हजारों करोड़ में फैला लिया। उनके कल्याणकारी कामों के तिलिस्म में न केवल गरीब-अभावग्रस्त और कम पढ़ी-लिखी जनता फंसी, बल्कि उनका जादू अपेक्षाकृत संपन्न और शिक्षित लोगों पर भी चला, जो जीवन की विविध जटिलताओं, सामाजिक-मानसिक समस्याओं में उलझे हुए हैं। मिसाल के तौर पर ड्रग्स के खिलाफ गुरमीत राम रहीम की मुहिम ने तो लोगों को खूब लुभाया। समाजशास्त्र की भाषा में इसे सामाजिक वैधता कहते हैं जिसे पाकर कई बाबा अति शक्तिशाली होते गए। अफसोस की बात यह है कि अपने को बाबा या स्वामी कहने वाले महान भारतीय संस्कृति की उस परंपरा को नजरंदाज करते रहे जिसे संन्यास का जीवन त्याग और तपस्या का पर्याय होता है।

जहां भोग-विलास और धन संचय का कोई नामो निशान तक नहीं होता। सवाल उठता है कि इतने सारे कुकृत्यों के बावजूद ये बाबा लोग बचे कैसे रहते हैं? इसका सबसे बड़ा कारण यही नजर आता है कि वे पहले अपने अनुयायी बढ़ाकर सामाजिक वैधता हासिल करते हैं और फिर उसके बल पर राजनीतिक संरक्षण हासिल करने में समर्थ हो जाते हैं। बाबाओं को राजनीतिक संरक्षण देने के लिए कोई भी राजनीतिक दल पाक-साफ नहीं है। माना जाता है कि राजनीतिक पार्टियां अपना काला धन खपाने-छिपाने के लिए भी बाबा लोगों का इस्तेाल करती हैं। चूंकि बाबाओं के पास अनुयायियों की अच्छी-खासी संख्या होती है इसलिए राजनीतिक दलों के लिए वे वोट बैंक का भी का करते हैं। यदि कोई सत्तारूढ़ राजनीतिक दल किसी बाबा के समर्थकों की संख्या देखकर उसके प्रति नरम हो जाए तो उसका बुरा असर प्रशासन पर भी पड़ता है। इसका लाभ बाबाओं ने भी उठाया है। यही वजह है कि उनके अपराधों पर पर्दा पड़ा रहता है।

यह स्वागत योग्य है कि भाजपा, कांग्रेस से लेकर अन्य सभी राजनीतिक दलों ने तथाकथित बाबा राम रहीम की कड़े शब्दों में निंदा करते हुए उसे सुनाई गई सजा को सही ठहराया, लेकिन यह ध्यान रहे कि अतीत में इन्हीं में से कई राजनीतिक दलों ने उसके प्रति नरमी भी बरती। आखिर बाबाओं के इस भ्रमजाल से जनता और देश को कैसे बचाया जाए? एक तो सबसे पहले धर्म और अध्यात्म के बीच के अंतर को समझना होगा और दूसरे राजसत्ता को दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देना होगा। मध्यकाल में महाकवि संत तुलसीदास ने लिखा था- जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सोई नृप होहिं नरक अधिकारी। आधुनिक समय में सरकार को नरक भोगना पड़े चाहे न पड़े, ईश्वर के सामने पेश होना पड़े या न पड़े, लेकिन उसे जनता, देश और अंतरराष्ट्रीय सुदाय के सामने तो पेशी देनी ही होगी। राज्य और राजसत्ता को अपनी कल्याणकारी भूिका का दायित्व भली-भांति निभाना होगा।

इसके लिए न केवल जनोन्मुखी नीतियां बनाने की जरूरत है, बल्कि उन्हें सही- सही लागू कराना भी अनिवार्य होगा। इन सबके लिए भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है जो कल्याणकारी कार्यक्रमों- योजनाओं को लील जाता है। भारतीय सामूहिकता की संस्कृति और जीवन मूल्य को पुनर्जीवित और प्रश्रय देने का प्रयास करना होगा। जहां शिक्षा में भारतीय संस्कृति के प्रगतिशील तत्वों को शामिल किया जाना चाहिए वहीं इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया के मुकाबले यथार्थ की दुनिया से कैसे जुड़ा जाए, इस पर भी ध्यान देना होगा। उपरोक्त के अभाव से पैदा हुए शून्य को भरने के ना पर ही बाबा लोग स्वप्न-जाल बिछाते हैं।

[लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय प्रोफेसर हैं]