बद्री नारायण

उत्तर प्रदेश में नई सरकार चुनने के लिए विधानसभा चुनावों की सात चरणों में पूरी होने वाली प्रक्रिया के आधे से ज्यादा चरण पूरे होने वाले हैं। जाहिर है कि सभी राजनीतिक दल दलितों और वंचितों का समर्थन हासिल करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। नई सरकार से उनकी अपेक्षाएं क्या हैं? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब की तलाश में मैं अपनी शोध टीम के साथ उत्तर प्रदेश के उन गांवों का अध्ययन कर रहा हूं जहां काफी तादाद में वंचित तबके के लोग रहते हैं। परस्पर संवाद एवं साक्षात्कार के जरिये शोध की इस प्रक्रिया में जो भी तथ्य सामने आ रहे हैं उन्हें मैं आपके संग साझा करने जा रहा हूं।
समाज के दलित एवं उपेक्षित समूहों की सबसे प्रबल इच्छा सामाजिक कल्याण योजनाओं की निरंतरता से जुड़ी है। वे चाहते हैं कि राज्य में भले ही किसी भी दल की सरकार बने वह उनके लिए महामाया पेंशन योजना, कन्या विद्या धन योजना जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर विराम न लगाए। वे चाहते हैं कि इन योजनाओं के साथ ही नई सरकार इनकी तर्ज पर कुछ और योजनाओं की शुरुआत करे जिससे उन्हें लाभ मिल सके। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वे किस पार्टी को वोट दें या किसकी सरकार बने, लेकिन उनके लिए यही मायने रखता है कि सरकार कल्याणकारी योजनाओं के वितरण में उनके साथ कोई भेदभाव न करे। यह भी कम दिलचस्प नहीं कि दलित भले ही किसी दल विशेष को ही वोट देते आए हों, लेकिन सभी दलों की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की तारीफ में वे पूरी दरियादिली दिखाते हैं। मसलन अगर वे बसपा द्वारा चलाई गई महामाया पेंशन योजना का प्रशंसागान करते हैं तो समाजवादी पार्टी सरकार में शुरू की गई समाजवादी पेंशन योजना की भी भरसक तारीफ करते हैं। मोदी सरकार द्वारा चलाई जा रही उज्ज्वला योजना भी उन्हें खासी रास आ रही है। इस योजना के तहत तमाम लोगों को रसोई गैस मयस्सर हो रही है। प्रधानमंत्री आवास योजना से भी उनकी उम्मीदें परवान चढ़ रही हैं।
इलाहाबाद से 25 किलोमीटर दूर बरेठी का दलित समुदाय सरकार से ऐसी सामाजिक सुरक्षा योजनाएं चाहता है जो उनकी जिंदगी की जद्दोजहद को आसान बना सके। रोजगार उनकी वरीयता सूची में सबसे ऊपर है ताकि उनके लिए दो वक्त की रोटी का सम्मानजनक बंदोबस्त हो सके। रोटी के बाद मकान की बारी आती है जहां वे अपने परिवार के साथ गुजर-बसर कर सकें। उनके हिसाब से कोई भी सरकार सत्ता में आ जाए, लेकिन उनके फायदे की योजनाएं लाए और उन तक सुविधाएं पहुंचाए। हालांकि वोट देते वक्त उनके जेहन में तमाम पहलू घूमते हैं। मसलन विकास को लेकर उनके अनुभव, सामाजिक योजनाओं तक उनकी पहुंच, जातीय अस्मिता, उम्मीदवार की छवि जैसे पहलुओं को देखने के बाद ही वे वोट देने का फैसला करते हैं।
राजधानी लखनऊ से 30 किलोमीटर दूर मोहनलालगंज विधानसभा में डेहवा गांव के हालात भी कमोबेश ऐसे ही हैं। यह मूल रूप से दलित श्रमिकों एवं अति पिछड़ों की बस्ती है। ईंट-भट्टे और बालू के काम से यहां के अधिकांश लोगों का गुजारा चलता है। उनकी एक बड़ी शिकायत नोटबंदी से जुड़ी है। उनका कहना है कि नोटबंदी ने उनका काम-धंधा चौपट कर दिया। अब वे ऐसी सरकार चाहते हैं जो उन्हें रोजगार मुहैया करा सके। उनकी दूसरी उम्मीद है कि सरकार उनके लिए घर उपलब्ध कराए। मेट्रो और हाईवे केंद्रित विकास में वे खुद को कहीं नहीं देख पाते। इन्हें वे अभिजात्य वर्ग के विकास के तौर पर ही देखते हैं। हालांकि इसे लेकर उनमें कोई नाराजगी का भाव नहीं, लेकिन वे ऐसा विकास चाहते हैं जिससे उनकी बुनियादी समस्याओं का समाधान निकलकर उनका जीवन आसान हो सके।
वंचित वर्ग की तीसरी मांग है कि ऐसी सरकार बने जिसमें उनका सामाजिक दमन रुके। पुलिस उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार करे। उनके प्रति संवेदनशीलता दिखाए। उनकी शिकायतों को सुनकर मामले दर्ज करे। पुलिस-प्रशासन को घूस न खिलानी पड़े। उत्तर प्रदेश के तमाम गांवों के दौरे के दौरान यह महसूस हुआ कि दलित-वंचित तबका ऐसी सरकार चाहता है जो उनके सिर उठाकर जीने की राह सुगम बनाए। रोटी, कपड़ा और मकान के अलावा सम्मान दलितों, गरीबों और वंचितों की सबसे बड़ी चाह है। वे अपने मत से चुनी गई जनतांत्रिक सरकार के जरिये अपने इन अरमानों को पूरा होते देखना चाहते हैं। डेहवा के बाशिंदे राम मिलन कहते हैं कि भैया रोजी, रोटी, घर और इज्जत मिले, अऊर का चाही हमका। ऐसे रुझानों को देखते हुए उस आम धारणा को बदलने की जरूरत महसूस होती है कि दलित या कोई और सामाजिक समूह मात्र जातीय अस्मिता के वशीभूत होकर ही भेड़चाल के माफिक किसी के पक्ष में एकतरफा मतदान करता है। हालांकि इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि वोट देते समय जातीय अस्मिता भी मायने रखती है, लेकिन वही निर्णायक नहीं होती। जाति से इतर जीवन की अन्य मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़े प्रश्न भी उन्हें प्रभावित करते हैं। ये उनकी प्राथमिकताएं तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इन वर्गों से संवाद में दूसरी बात यह समझ आई कि वे चाहते हैं कि जनतांत्रिक फायदों का समुचित एवं सम्यक वितरण हो। यानी सरकार की सामाजिक योजनाओं के लाभार्थियों में कोई भेदभाव न किया जाए। ऐसे फायदे दूर-दराज के इलाकों में जरूरतमंदों तक पहुंचने चाहिए। यह भी समझ आया कि इसका अर्थ यह भी नहीं कि सिर्फ सामाजिक सुरक्षा योजनाएं या विकास ही उनके वोट देने का मूल आधार बनेंगे। विकास के अलावा स्थानीय एवं क्षेत्रीय जरूरतें, व्यक्तिगत संबंध, स्थानीय उम्मीदवार जैसे पहलुओं को देखने के बाद ही दलित एवं वंचित तबका किसी के पक्ष या विपक्ष में लामबंद होता है। कुल मिलाकर भारतीय जनतंत्र से उनकी इतनी सी हसरत है कि उन्हें रोजी- रोटी, घर और सम्मान मिले। वे यह भी मानते हैं कि इन समस्याओं के समाधान की जितनी जिम्मेदारी खुद उनकी है उतनी ही सरकार की भी।
[ लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में प्रोफेसर हैं ]