धर्म का सार-संक्षिप्त सूत्र है, ‘स्वयं को जानो।’ स्वयं को जाने बिना व्यक्त्वि विकास संभव नहीं होगा। यह सब ध्यान से संभव हो पाता है। ध्यान साधना का प्रथम चरण व अंतिम सोपान भी है। भगवान महावीर का मार्ग संकल्प का मार्ग है। तप, त्याग और साधना का मार्ग है। अहिंसा से व्यक्ति संयमित होता है। महावीर ने तप के महत्व का भी वर्णन किया है। तप की परम अवस्था कायोत्सर्ग को बताया है और कायोत्सर्ग की स्थिति तक पहुंचने का मार्ग है-ध्यान।

ध्यान से ही काया का उत्सर्ग हो सकता है। ध्यान से ही बाह्य उपाधियों के प्रति ममत्व भाव का त्याग हो सकता है। इस्लिए ध्यान कारण है कायोत्सर्ग का और कायोत्सर्ग कारण है मोक्ष का। जो साधना आत्मा को मोक्ष से जोड़ती है वह साधना भी ‘योग’ ही कहलाती है। पतंजलि ने योग के आठ अंग बताए हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। जो साधना ज्ञान-दर्शन चारित्रमय है वह मोक्ष का साधन है। उसे भी योग कहते हैं। आत्मा का ज्ञान होने से ही मुक्ति होती है, किंतु वह ज्ञान योग के बिना नहीं होता। ध्यान देह धर्मी शक्तियों द्वारा भौतिकता का अतिक्रमण नहीं, बल्कि अध्यात्म धर्मी मानसिकता का तत्वान्वेषण है। ध्यान आंतरिक गुणवत्ता है, आत्मसत्ता की प्रतीति है। संपूर्ण अस्मिता और सत्ता की गति के अन्वेषण का प्रारंभिक बिंदु है।

ध्यान के लिए मानसिक पारदर्शिता, मन की गंभीरता और चित्त की अविकलता अनिवार्य है। ऐसी अविकल अवस्था में प्रज्ञा स्वत: निर्मल दर्पण बनकर आभास बिंब प्रस्तुत करने लगती है। वह अपनी कल्पना-शक्ति, अनुभव-शक्ति और चिंतन-शक्ति को ऐसे मानसिक धरातल पर प्रतिष्ठित करती है जो चिर शांत और प्रवाह युक्त हो। ध्यान वस्तुत: मानसिक एकांत है। इसकी भाषा चिरंतन मौन है। इसकी अभिव्यंजना के लिए माया के सारे रूपक, बिंब अक्षम हो जाते हैं, किंतु यह सत्य है कि प्रत्येक स्वस्थ मानसिकता वाले व्यक्ति में ध्यान की अल्पाधिक क्षमता होती ही है। वह कोई अलौकिकता युक्त हठयोगियों या सिद्धों की उपलब्धि नहीं है। सामान्यत: व्यक्ति द्वंद्व में जीता है। एक ओर तो उसका मन आदर्श की ऊंचाइयों में विचरण करता है तो दूसरी ओर वह वासना के व्यामोह में फंसा रहता है। आदर्श में व्यक्ति स्वयं को अंतरिक्ष में विचरण करता हुआ पाता है, किंतु वास्तव में देखता है तो पता चलता है कि वह तो अभी धरातल पर ही है।

(गणि राजेंद्र विजय)