अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा सात मुस्लिम देशों पर लगाए प्रतिबंध को वं की अदालत ने पलट दिया। डोनाल्ड ट्रंप के शासकीय फैसले पर सर्वप्रथम वाशिंगटन की निचली अदालत के न्यायाधीश जेम्स रॉबर्ट ने रोक लगाई। जिसे अमेरिकी कानून विभाग द्वारा ‘अपील कोर्ट’ में चुनौती दी गई, किंतु वं भी उसे निराशा थ लगी। उक्त अदालती आदेशों से खिन्न ट्रंप ने क कि यह एक भयानक फैसला है और इस तथाकथित न्यायाधीश की राय स्यास्पद है।

‘यूएसए टुडे’ के अनुसार न्यायाधीश जेम्स रॉबर्ट की गणना अमेरिका में उदारवादी के रूप में होती है। जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि डोनाल्ड ट्रंप के जिस आदेश पर विश्व में बवाल मचा और जिसे अमेरिकी अदालत द्वारा निरस्त किया गया उसे विश्व के कई संपन्न मुस्लिम राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त है। जं संयुक्त अरब अमीरात ने ट्रंप के आदेश का समर्थन किया वहीं कुवैत ने ट्रंप के पदचिन्हों पर चलते हुए पांच मुस्लिम राष्ट्रों के नागरिकों पर प्रतिबंध लगाया। कुवैत की सूची में पाकिस्तान और अफगानिस्तान का नाम भी शामिल है।

वैश्विक स्तर पर ट्रंप के उक्त निर्णय का तथाकथित उदारवादी, बुद्धिजीवी और कई मानवाधिकार समूह विरोध कर रहे हैं। क्या किसी भी राष्ट्र द्वारा कुछ देशों के नागरिकों के खिलाफ मजहब के आधार पर इस तरह की कार्रवाई पहली बार हुई है? इजरायली पासपोर्ट धारकों पर मजहबी कारणों से 16 इस्लामिक या फिर मुस्लिम बहुल देशों ने गत कई वर्षो से प्रतिबंध लगाया हुआ है। इन देशों में अल्जीरिया, बांग्लादेश, ब्रुनेई, ईरान, इराक, कुवैत, लेबनान, लीबिया, मलेशिया, ओमान, पाकिस्तान, सऊदी अरब, सूडान, सीरिया, संयुक्त अरब अमीरात और यमन शामिल हैं।

क्या इसके खिलाफ किसी उदारवादी और मानवाधिकार संगठन ने आवाज उठाई? क्या यह सत्य नहीं कि गत वर्ष यूरोप में जितने भी आतंकवादी या जिद से प्रेरित हमले हुए उनमें अधिकतर मुस्लिम देशों के शरणार्थी ही मुख्य रूप से आरोपी थे? अदालत के फैसले से पूर्व ट्रंप प्रशासन ने जिन सात मुस्लिम देशों पर प्रतिबंध लगाया उनमें ईरान को छोड़कर बाकी सभी देश गृहयुद्ध से ग्रसित हैं। सीरिया, इराक और लीबियाई शरणार्थियों के प्रति सबसे अधिक उदारता जर्मनी, फ्रांस, ऑस्टिया और ब्रिटेन आदि यूरोपीय देशों ने दिखाई थी। अब उन्हीं देशों में या तो आतंकी हमले हो रहे हैं या फिर कट्टरपंथी तत्व वी हो रहे हैं। गत दिसंबर में क्रिसमम से पूर्व बर्लिन में फ्रांस के शहर नीस की तर्ज पर एक आइएस आतंकी द्वारा एक जनसमूह पर ट्रक चढ़ाने जैसी घटनाएं और 2016 में यूरोप में हुए दस से अधिक आतंकी हमले किसी से छिपे नहीं।

इन हमलों के बाद यूरोप में माहौल बदल र है। एक आंकड़े के अनुसार 2001 में न्यूयॉर्क के 9/11 आतंकी हमले के बाद से अमेरिका और शेष दुनिया सैकड़ों जेदी हमलों का शिकार बन चुकी है। सात मुस्लिम देशों पर पाबंदी के डोनाल्ड ट्रंप के निर्णय का भारत में भी जबर दस्त विरोध हो र है। विरोध करने वाले में वे लोग भी हैं जिन्होंने 2002 के गुजरात दंगों को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध सुनियोजित ढंग से वैश्विक अभियान चलाया था। इस मामले में आज तक किसी भी मामले में कोई भी आरोप सिद्ध नहीं हुआ है। उस कालखंड में जब इस संबंध में एक अमेरिकी संगठन द्वारा मोदी को वीजा नहीं दिए जाने की अनुशंसा की गई तो भारत में वामपंथियों और तथाकथित सेक्युलरिस्टों ने इसका सहर्ष स्वागत किया।

आज वही लोग ट्रंप द्वारा सात मुस्लिम देशों पर लगाए प्रतिबंध का विरोध कर रहे हैं। आखिर लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा निर्वाचित मुख्यमंत्री को वीजा देने के विरोध का क्या मतलब?1बीते दिनों जयपुर में निर्माणाधीन फिल्म ‘पद्मावती’ के शूटिंग सेट पर निर्माता-निर्देशक संजयलीला भंसाली से करणी सेना नाम के संगठन के कुछ सदस्यों ने अभद्र व्यवर किया। इस संगठन की आपत्ति थी कि फिल्म में चित्ताैड़ की मरानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी से संबंधित इतिस से छेड़छाड़ की जा रही है। संविधान सम्मत भारत में किसी को भी कानून अपने थ में लेने का अधिकार नहीं है।

भारत के इतिस में मरानी पद्मावती का उल्लेख अपने भीतर वीरता, सौंदर्य, सम्मान और त्याग को समाहित किए हुए है, किंतु वामपंथी बुद्धिजीवियों और इतिसकारों के लिए वह केवल एक काल्पनिक चरित्र है। फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप ने संजयलीला भंसाली पर हमला करने वालों को ‘हिंदू-आतंकवादी’ कहकर संबोधित किया। उनके अनुसार इस घटना के बाद हिंदू आतंकवाद अब मिथक नहीं र। ऐसा क्यों है कि जब कोई आतंकी मजहबी नारों के साथ किसी निरपराध को मारता है तब सभ्य समाज उस हत्यारे के धर्म की पहचान करने पर हिचकते हैं? कैसा दोहरा मापदंड है यह? यह भी किसी विडंबना से कम नहीं है कि मुस्लिम भावनाएं आहत होने पर प्रतिकार स्वरूप हिंसा या विरोध को जं छद्म पंथनिरपेक्ष या वामपंथी चिंतक सेक्युलरवाद के चश्मे से देखते हैं वहीं हिंदू मान्यताओं और देवी-देवताओं के अपमान के खिलाफ विरोध जताने भर से हिंदू समुदाय उनके लिए सांप्रदायिक या आतंकवादी हो जाता है।

गत वर्ष जब अभिनेता इरफान खान द्वारा बकरीद पर कुर्बानी के औचित्य पर सवाल उठाने पर कट्टर मुस्लिमों का विरोध हुआ तब यह तथाकथित उदारवादी कं थे? किसी ने इरफान का समर्थन करने का साहस नहीं दिखाया। 2015 में पैगंबर साहब पर बनी एक फिल्म में संगीत देने के कारण संगीतकार एआर रहमान के खिलाफ फतवा जारी हुआ तब भी इन्हें किसी मौलिक अधिकार का हनन नहीं दिखा। इसके पहले 2013 में जब कमल सन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ को लेकर मुस्लिम कट्टरपंथियों ने हंगामा किया तब भी किसी फिल्म निर्देशक या निर्माता को प्रदर्शनकारियों का मजहब नजर नहीं आया। चित्रकार एमएफ हुसैन द्वारा बनाई गई हिंदू देवी-देवताओं की अश्लील तस्वीरों का हिंदुओं ने विरोध किया तो उन्हें सुरक्षा दे दी गई, किंतु जब बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन पर जिदी तत्वों ने हमला किया तब छद्म उदारवादियों की फौज मौन रही।

जब सलमान रुश्दी की किताब ‘द सैटेनिक वर्सेज’ को भारत में प्रतिबंधित किया गया तब भी ये लोग कुछ नहीं बोले। आखिर क्यों? वास्तव में भारत में आज पंथनिरपेक्षता और उदारवादिता केवल कट्टर मुस्लिम मानसिकता के पोषण और हिंदू संस्कृति एवं मान्यताओं के प्रति तिरस्कार के भाव तक सीमित हो गया है। वर्तमान समय में पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार इसका जीवंत उदाहरण है। अभी ल में उलुबेरिया में तेहट्टा के एक स्कूल में प्रशासन ने गत छह दशकों में पहली बार सरस्वती पूजा का आयोजन इसलिए नहीं होने दिया, क्योंकि कुछ कट्टर मुस्लिम संगठनों को उससे आपत्ति थी। ल के दिनों में पश्चिम बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों में भड़की हिंसा भी सेक्युलरवाद के नाम पर किए गए मुस्लिम कट्टरवाद के तुष्टीकरण का ही परिणाम है।1वैश्विक स्तर पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के माध्यम से कट्टर इस्लामी आतंकवाद और उसके दर्शन पर व्यापक चर्चा का मार्ग प्रशस्त हुआ है। वर्तमान में विश्व में जिदी विषबेल से पुष्पित आतंकवाद और कट्टरवाद से लड़ने के लिए दुनिया की बड़ी शक्तियां एकजुट हो रही हैं। अब समय आ गया है कि इस लड़ाई में सभ्य समाज भी मुखर रूप से साथ दें।

(लेखक बलबीर पुंज राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)