विवेक काटजू

चीन 14-15 मई को बीजिंग में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव सम्मेलन का आयोजन कर रहा है। इसे वन बेल्ट वन रोड यानी ओबीओआर के नाम से भी जाना जाता है और यह कहीं अधिक लोकप्रिय नाम है। यह नी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की महत्वाकांक्षी परियोजना है जिसका उद्देश्य न को अंतरराष्ट्रीय शक्ति के रूप में स्थापित करना है। इसके दम पर वह न को अमेरिका के बराबर खड़ा करना चाहते हैं। इस परियोजना का मकसद रेलवे, बंदरगाहों, हाईवे और पाइपलाइन के एक नेटवर्क के जरिए एशिया, अफ्रीका और यूरोप में संपर्क बढ़ाना और व्यापार में नई जान डालना बताया जा रहा है। न का दावा है कि यह सभी भागीदार देशों के व्यापारिक और आर्थिक हितों की पूर्ति करेगा, लेकिन यह भी आशंका जताई जा रही है कि इससे वह विश्व राजनीति में अपनी हैसियत बढ़ाएगा और अपना उल्लू सीधा करेगा।

ओबीओआर को लेकर कई देशों की चिंता वाजिब है। चूंकि न-पाकिस्तान आर्थिक कॅारीडोर (सीपीईसी) भी ओबीओआर का हिस्सा है इसलिए उसे लेकर भारत की कुछ विशेष चिंताएं हैं जिसे न ने नजरअंदाज कर दिया है। न जिस तरह ओबीओआर पर एकतरफा जोर दे रहा है उससे भारत नाखुश है। यही वजह है कि भारत ने स्वयं को इस सम्मेलन से अलग कर लिया है।

चीन ने 1978 से अपनी अर्थव्यवस्था को नया रूप देना आरंभ किया था। उसकी शुरुआत उसने साम्यवाद के आर्थिक सिद्धांतों को तिलांजलि देने से की। हालांकि उसने अपनी राजनीतिक व्यवस्था पर कम्युनिस्ट पार्टी का नियंत्रण कायम रखा। उसने विदेशी निवेशकों को आमंत्रित किया और अपनी विशाल कामकाजी आबादी की बदौलत दुनिया की फैक्ट्री बन गया। करीब तीन दशक से अधिक समय तक वह अपनी वित्तीय और सैन्य ताकत में गुप्त रूप से इजाफा करता रहा। उसकी आरंभिक नीति अपनी ताकत को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की नहीं थी, लेकिन बाद में उसने अपना आर्थिक प्रभाव और निवेश दुनिया भर में फैलाया।

शी चिनफिंग के नेतृत्व में न ने दुनिया से छिपकर रहने की अपनी पुरानी नीति का परित्याग कर दिया है। अब वह अपने उत्थान का ढिंढोरा विश्व के सामने नि:संकोच पीट रहा है। ओबीओआर सम्मेलन इसी कड़ी का एक हिस्सा है जिसमें वह दुनिया के सभी नेताओं की उपस्थिति देखना चाहता है। हालांकि उसे निराशा मिली है, क्योंकि सिर्फ 29 देशों के प्रमुखों या उसके प्रतिनिधियों ने ही सम्मेलन में शिरकत करने की हामी भरी है। ओबीओआर में तीन भूमि मार्ग होंगे जिनकी शुरुआत न से होगी।

पहला मार्ग मध्य एशिया, रूस और पश्चिमी यूरोप के देशों की ओर जाएगा। दूसरा मार्ग मध्य एशिया से होते हुए पश्चिम एशिया और भूमध्य सागर की ओर जाएगा। तीसरा मार्ग दक्षिण एशियाई देशों को तरफ जाएगा। इसके अलावा एक जल मार्ग दक्षिण प्रशांत और हिंद महासागर की ओर जाएगा। इस प्रकार सड़क, रेलवे और बंदरगाहों के जाल का निर्माण करने के लिए न करीब 900 बिलियन डॉलर रकम उपलब्ध कराएगा। हालांकि न यह पूरी राशि संबंधित देशों को कर्ज के रूप में ही देगा। न ओबीओआर में साठ देशों को शामिल करना चाहता है।

ध्यान रहे कि अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और दुनिया के दूसरे हिस्सों में नी परियोजनाएं स्थानीय हितों की अनदेखी करती रही हैं और केवल अपना ही हित साधती रही हैं। न खासकर भारत को भी ओबीओआर में शामिल करने को लेकर काफी उत्साहित है। वह भारत की चिंताओं की अवहेलना करते रहने के बावजूद ऐसा चाहता है। गौरतलब है कि वह संयुक्त राष्ट्र द्वारा मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित किए जाने में बाधक बना हुआ है। साथ ही भारत के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी में प्रवेश को रोके हुए है। दोनों मामलों में वह पाकिस्तान के हितों की रक्षा कर रहा है। पिछले महीने दलाई लामा के अरुणाचल दौरे को लेकर भी न ने मोदी सरकार की कड़ी आलोचना की। वह भारत के इस हिस्से पर दावा करता चला आ रहा है। दलाई लामा की यात्र पर आगबबूला होते हुए न के विदेश मंत्री ने भारत-रूस-न के विदेश मंत्रियों की प्रस्तावित बैठक तक नहीं होने दी। न को ध्यान रखना होगा कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती। यदि वह अपना हित चाहता है तो दूसरों के हितों के प्रति भी संवदेनशीलता दिखानी होगी।

यह न की कूटनीति का हिस्सा है कि वह हमेशा अपनी बात करता है और दूसरों के संवेदनशील मुद्दों की परवाह नहीं करता। इस संदर्भ में भारत में न के राजदूत के दिल्ली में दिए गए हालिया भाषण पर नजर डालना आवश्यक होगा। राजदूत ने अपने भाषण में भारत और न के प्रान रिश्तों, 70 बिलियन डॉलर के भारी-भरकम द्विपक्षीय व्यापार और भारत में पांच बिलियन डॉलर के नी निवेश का हवाला दिया। निश्चित रूप से यह अच्छी बात है, लेकिन यहां उन्हें यह भी उल्लेख करना चाहिए था कि न में भारतीय निर्यात के समक्ष ढेरों बाधाएं हैं। सीपीईसी के संबंध में भारत ने संप्रभुता का मुद्दा उठाया है, क्योंकि वह गुलाम कश्मीर से होकर गुजरता है, लेकिन इस पर नी राजदूत ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि न भारत-पाकिस्तान के बीच के क्षेत्रीय विवादों और संप्रभुता के मुद्दों में नहीं पड़ना चाहता। उन्होंने यह भी कहा कि न सीपीईसी का नाम बदलने को तैयार है। बाद में न ने इस प्रस्ताव को वापस ले लिया। शायद न सरकार को लगा कि राजदूत ने जरूरत से ज्यादा आगे बढ़ते हुए भारत को बराबरी का दर्जा दे दिया।

भारत दशकों से पाकिस्तान-न की साठगांठ का सामना कर रहा है। सीपीईसी इसी साठगांठ का एक और आयाम है। आने वाले वर्षो में यह सिर्फ भारत की सुरक्षा चुनौतियों को ही बढ़ाएगा। समानता पर आधारित सांस्कृतिक आदान-प्रदान और आर्थिक संबंधों को बरकरार रखना महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत न से मिलने वाली चुनौतियों से आंखें मूंदे नहीं रह सकता। वह भारत और पड़ोसी देशों में अपना प्रभाव और शक्ति बढ़ाने में रात-दिन एक किए हुए है। भारत को सीमा पर शांति बनाए रखते हुए न की चालों को मात देने के तौर-तरीके खोजने होंगे।

नि:संदेह वर्तमान में न सैन्य और आर्थिक रूप में भारत से कई गुना ज्यादा ताकतवर है, लेकिन इसके बावजूद आज भारत ऐसी स्थिति में तो है कि न उसे दबाव में नहीं ले सकता। भारत अपने रास्ते खुद तय कर सकता है और अपने पड़ोसी देशों को भी अपने पाले में कर सकता है। न भी यह बात जानता है कि भारत का रक्षा कवच मजबूत है और उसकी रक्षात्मक शक्तियां तेजी से बढ़ रही हैं। मौजूदा माहौल में भारत को जापान जैसी प्रमुख एशियाई ताकत और अमेरिका जैसी प्रमुख विश्व शक्ति के साथ रणनीतिक संबंध विकसित करने चाहिए। ये संबंध समानता पर आधारित होने चाहिए। भारत के पास यह बराबरी सुनिश्चित करने की क्षमता मौजूद है।

(लेखक विदेश मंत्रलय में सचिव रहे लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)