विश्व के सबसे अधिक शक्तिशाली देश अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेते ही डोनाल्ड ट्रंप के शासन की शुरुआत हो गई, लेकिन उनके शपथ ग्रहण समारोह के दौरान तमाम लोग जिस तरह विरोध प्रदर्शन करते हुए सड़कों पर आ गए वह अभूतपूर्व भी है और इसका संकेत भी कि अमेरिका में वैचारिक विभाजन किस हद तक गहरा गया है। दरअसल इसी कारण यह अनुमान लगा पाना और कठिन हो गया है कि अगले चार साल तक ट्रंप के शासन में अमेरिका की क्या दिशा होगी? अमेरिकी इतिहास में शायद ही किसी राष्ट्रपति ने इतने विवाद के उपरांत सत्ता संभाली हो। राष्ट्रपति पद संभालते समय अपने संबोधन में ट्रंप ने एक बार फिर अमेरिकी नागरिकों को यह आश्वस्त करने की कोशिश कि वह उन लोगों को मजबूती प्रदान करेंगे जिन्हें डेमोक्रेट राष्ट्रपति बराक ओबामा के आठ साल के शासनकाल में भुला दिया गया था। ट्रंप ने अमेरिका फस्र्ट का नारा बुलंद किया, जिसका मतलब है कि वह किसी भी अन्य चीज की तुलना में अमेरिका के राष्ट्रीय हितों को सबसे अधिक प्राथमिकता देंगे।
डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिकी राष्ट्रपति पद तक का सफर अत्यधिक दिलचस्प और साथ ही विवादित भी रहा है। कुछ समय पहले तक उनका राजनीति से दूर-दूर का नाता भी नहीं था। वह एक बड़े कारोबारी के रूप में ख्याति रखते थे। कहा जाता है कि कुछ साल पहले जब राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक संबोधन में उनके ऊपर तीखे कटाक्ष किए तो उन्होंने यह बीड़ा उठा लिया था कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति बनेंगे। पता नहीं सच क्या है, लेकिन अपनी आक्रामक सोच के चलते ट्रंप न केवल एक से एक बड़े रिपब्लिकन नेताओं को पीछे छोड़कर अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में अपनी पार्टी के उम्मीदवार बनने में सफल रहे, बल्कि उन्होंने चुनाव में हिलेरी क्लिंटन सरीखी अनुभवी नेता को परास्त भी कर दिया। राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार अभियान में भी ट्रंप कई बार विवादों के शिकार हुए। सबसे बड़ा विवाद तो उनकी यह छवि बन जाना रहा कि वह मुस्लिम विरोधी हैं और केवल श्वेत अमेरिकियों को बढ़ावा देना चाहते हैं। राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद ट्रंप ने एक ओर जहां यह भरोसा दिलाया कि वह अमेरिका को एक नया गौरव प्रदान करेंगे वहीं बिना किसी लाग लपेट कहा कि वह कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवाद को पूरी तरह समाप्त करके रहेंगे।
जहां तक भारत के साथ संबंधों का सवाल है तो ट्रंप फिलहाल अभी कुछ खास नहीं बोले हैं, लेकिन इतना जरूर है कि ओबामा के आठ साल के कार्यकाल में भारत और अमेरिका के साथ-साथ राष्ट्रपति ओबामा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच बनी समझबूझ के चलते जैसे रिश्ते कायम हुए उनमें परिवर्तन आने की संभावना है। इसका संकेत इससे मिलता है कि राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के पहले ही ओबामा प्रशासन के जिन अधिकारियों को हटाया गया उनमें भारत में अमेरिका के राजदूत रिचर्ड वर्मा भी शामिल हैं। स्पष्ट है कि ट्रंप अब अपनी नीतियों और शर्तों पर भारत के साथ नए सिरे से संबंध बनाने के लिए काम करेंगे। भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों में जो सबसे बड़ी चुनौती आने वाली है वह है एच वन बी वीजा पर फिर से विचार करने का ट्रंप प्रशासन का निर्णय। इस वीजा का सबसे अधिक इस्तेमाल भारतीय आइटी कंपनियां करती हैं। ट्रंप ने चुनाव प्रचार अभियान में ही अमेरिकी जनता से यह वादा किया था कि वह उनके लिए नौकरियों के अवसर बढ़ाएंगे। इसका मतलब है कि अमेरिका में भारत से होने वाली आउटसोर्सिंग पर असर पड़ेगा और इससे सबसे अधिक भारतीय पेशेवर ही प्रभावित होंगे। इसलिए और भी, क्योंकि भारत का आइटी जगत काफी कुछ अमेरिका से मिलने वाली आउटसोर्सिंग सेवाओं पर आश्रित है।
डोनाल्ड ट्रंप ने एक ऐसे समय अमेरिकी राष्ट्रपति पद की कुर्सी संभाली है जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत भी विश्व कूटनीति में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए प्रयासरत है और उसे इसमें कामयाबी भी मिल रही है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की दावेदारी के साथ खुद को एक जिम्मेदार नाभिकीय शक्ति के रूप में उभारकर भारत विश्व समुदाय में एक ऐसी छवि निर्मित कर रहा है कि उसे एक महाशक्ति के रूप में देखा जाए। भारत का ध्यान तेजी से प्रगति करते एशियाई महाद्वीप में चीन की चुनौती का सफलतापूर्वक सामना करने पर है। पूरा विश्व इससे परिचित है कि चीन किस तरह अपने आक्रामक और विस्तारवादी रवैये के कारण एशिया में भारत समेत तमाम देशों की सुरक्षा चिंताएं बढ़ाने का काम कर रहा है। भारत को चीन के बढ़ते हुए वर्चस्व को तोड़ने के लिए खुद को मजबूत करना आवश्यक है। चूंकि ट्रंप भी चीन को अमेरिका के लिए एक चुनौती के रूप में देखते हैं इसलिए यह देखना होगा कि वह उसके प्रति क्या रवैया अपनाते हैं?
मौजूदा समय दुनिया जिन बड़ी चुनौतियों का सामना कर रही है उनमें आतंकवाद सबसे बड़ी चुनौती है। इस आतंकवाद की जड़ें मुस्लिमों की कट्टरता में निहित हैं। ट्रंप ने इसको लेकर कड़े बयान दिए हैं। भले ही वह इन बयानों को लेकर मीडिया और अमेरिकी समाज के एक वर्ग की ओर से आलोचना का शिकार हुए हों, लेकिन यह एक सच्चाई है कि आतंकवाद अमेरिका और भारत समेत पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है। उम्मीद की जा रही है कि इस साझा चिंता पर ट्रंप प्रशासन और मोदी सरकार के बीच समझबूझ कायम होगी। यह समझबूझ बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगी कि अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति क्या रुख रहता है? पाकिस्तान को आतंकवाद की जननी माना जाता है, लेकिन उसके प्रति अब तक अमेरिकी प्रशासन की नीतियों में विरोधाभास ही अधिक देखने को मिला है। यह एक बड़ा सवाल है कि ट्रंप प्रशासन इस विरोधाभास को समाप्त कर सकेगा या नहीं? अमेरिका यह मानता रहा है कि यदि पाकिस्तान पर ज्यादा दबाव डाला गया तो वहां के हालात और अधिक बिगड़ जाएंगे। इसलिए उसे मदद जारी रखना आवश्यक है-फिर वह चाहे सैन्य मदद हो या आर्थिक मदद। भारत की अपेक्षा होगी कि ट्रंप पाकिस्तान के प्रति नीर-क्षीर रुख अपनाएं और पाकिस्तान स्थित उन आतंकी संगठनों के खिलाफ भी कार्रवाई करें जो भारत के लिए खतरा बने हुए हैं।
ट्रंप की एक बड़ी चुनौती राजनीति में उनका अनुभवहीन होना भी है। यह अपने आप में अद्भुत बात है कि वह पहली बार राजनीति में उतरे और सीधे अमेरिका के सर्वोच्च पद को हासिल करने में सक्षम रहे। यह वक्त ही बताएगा कि वह इस शक्तिशाली कुर्सी पर बैठकर सफल राजनीति करते हुए देश-दुनिया को सही दिशा दे पाते हैं या नहीं? उनकी सफलता काफी कुछ इस पर निर्भर करेगी कि वह राष्ट्रपति के रूप में राजनीतिक परिपक्वता का प्रदर्शन कर पाते हैं या नहीं? अपनी आक्रामक शैली और बेबाक विचारों से उन्होंने चुनाव प्रचार में तो बढ़त हासिल कर ली, लेकिन एक बड़े पद पर रहते हुए उन्हें जिम्मेदारी भरा बर्ताव करना होगा। अगर उन्होंने चुनाव अभियान के अपने विवादित विचारों के आधार पर अमेरिकी प्रशासन चलाया और लोगों के बीच खाई पैदा करने वाली नीतियों को अपनाया तो उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।

[ लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]