नरेंद्र मोदी और अमित शाह के राजनीतिक कौशल के आगे कांग्रेस समेत क्षेत्रीय दलों को हाशिये पर जाता देख रहे हैं संजय गुप्त

हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को मिली चुनावी सफलता यह बता रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा किस तरह अन्य दलों की मदद के बिना आगे बढ़ने और देश की राजनीति में व्यापक बदलाव लाने में सक्षम है। लोकसभा चुनावों के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा को मिली सफलता से नरेंद्र मोदी के साथ-साथ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का भी कद और बढ़ा है। वह कुशल राजनीतिक प्रबंधक के रूप में सामने आए हैं। वह एक के बाद एक राज्यों में न केवल भाजपा की जमीन मजबूत करने वाले नेता के रूप में उभरे हैं, बल्कि पार्टी में सब कुछ व्यवस्थित और सहज-सामान्य रखने वाले नेता के रूप में भी। अमित शाह जिस तरह छोटे-बड़े पार्टी नेताओं का सहयोग लेकर अपनी चुनावी रणनीति को सफलता से पूरा करने में सक्षम हैं उससे वह विरोधी राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गए हैं। हरियाणा-महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़ने के फैसले का श्रेय सबसे अधिक अमित शाह के हिस्से में जाता है। वह यह ज्यादा अच्छे से जान रहे थे कि अकेले चुनाव मैदान में उतरने से दोनों राज्यों में भाजपा को कहीं अधिक लाभ होने जा रहा है। अंतत: ऐसा ही हुआ। हालांकि महाराष्ट्र में भाजपा को हरियाणा की तरह अपने बलबूते बहुमत नहीं मिला, लेकिन वह जिस तरह बहुमत के करीब पहुंची और फिर शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने उसे बाहर से समर्थन देने का दांव चला उससे शिवसेना राजनीतिक रूप से और कमजोर पार्टी के रूप में दिखने लगी है। अब उसके सामने भाजपा को समर्थन देने के अलावा और कोई चारा नहीं। यह वह राजनीतिक परिस्थिति है जो भाजपा को और ताकत ही प्रदान करेगी। मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा के उभार के साथ ही यह भी साफ दिख रहा है कि दूसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के साथ-साथ क्षेत्रीय दल हाशिये पर आते जा रहे हैं। एक समय देश की राजनीति में जो स्थान कांग्रेस का था वह अब भाजपा ने ले लिया है और वह भी मजबूती के साथ।

लोकसभा चुनावों में मिली असफलता के बाद कांग्रेस अपने गढ़ माने जाने वाले राज्यों हरियाणा और महाराष्ट्र में तीसरे नंबर पर खिसक जाएगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल था। इसे दुर्योग कहा जाए या कुछ और, लेकिन राहुल गांधी जब से पार्टी उपाध्यक्ष बने हैं तब से कांग्रेस का ग्राफ नीचे झुकता जा रहा है। राहुल गांधी किस तरह पार्टी में प्रभाव छोड़ पाने में नाकाम हैं, इसका पता रह-रहकर उठने वाली इस आवाज से लगता है-प्रियंका लाओ-पार्टी बचाओ। पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम ने बिना लाग-लपेट स्वीकार किया कि पार्टी का मनोबल कमजोर है और सोनिया एवं राहुल को और अधिक मुखर होने की जरूरत है। इसी क्रम में उन्होंने यह भी संकेत दिया कि भविष्य में गांधी परिवार से बाहर का व्यक्ति भी पार्टी अध्यक्ष बन सकता है। किसी के लिए भी यह कहना कठिन है कि ऐसा होगा या नहीं? और होगा भी तो कब और किन परिस्थतियों में? यह सवाल इसलिए, क्योंकि अभी तो कांग्रेस में गांधी परिवार की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं खड़क रहा। कांग्रेस इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि लोकसभा चुनाव और फिर हरियाणा-महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने लोगों पर अपना जैसा प्रभाव छोड़ा उससे उसे आने वाले विधानसभा चुनावों में भी मुश्किल पेश आ सकती है।

कांग्रेस जिस तरह सिमटती चली जा रही है उसे देखते हुए पार्टी के नीति-नियंताओं को उन कारणों की तह तक जाना ही होगा जिनके चलते वह जनसमर्थन खोती जा रही है। यह माना जा रहा है कि यदि कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता का नेतृत्व करते समय निराशाजनक प्रदर्शन नहीं किया होता तो उसे भाजपा के हाथों हरियाणा और महाराष्ट्र में इतनी करारी हार का सामना नहीं करना पड़ता। हरियाणा में भाजपा की जड़ें गहरी नहीं थीं। यह राज्य भाजपा का गढ़ भी नहीं माना जाता था। पिछले चुनाव में उसे यहां केवल चार सीटें मिली थीं। इसी तरह महाराष्ट्र में वह शिवसेना के कनिष्ठ सहयोगी दल के रूप में चुनाव लड़ती थी। इस बार महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़कर वह शिवसेना से तो आगे निकली ही, सबसे प्रभावी राजनीतिक दल के रूप में भी उभर आई। कांग्रेस को यह उम्मीद थी कि भाजपा-शिवसेना के अलग-अलग चुनाव लड़ने से मतों का विभाजन होगा और इसका कुछ लाभ उसे भी मिल सकता है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हरियाणा में भी भाजपा ने कुलदीप विश्नोई और ओमप्रकाश चौटाला से किनारा कर अकेले चुनाव लड़ा और मतों के बंटने की आशंका को दरकिनार कर सबसे बड़े दल के रूप में स्थान हासिल किया। महाराष्ट्र में भाजपा का सबसे बड़े दल के रूप में उभरना और लगभग बहुमत के करीब पहुंच जाना इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि उसे मराठी मानुष की राजनीति करने वाले दल के रूप में नहीं देखा जाता था।

हरियाणा-महाराष्ट्र में चुनावी जीत के बाद मोदी सरकार के लिए अपने आर्थिक एजेंडे को बढ़ाना कहीं अधिक आसान होगा। इन दोनों राज्यों की देश के कुल सकल उत्पाद में अच्छी खासी हिस्सेदारी है। दोनों राज्य आर्थिक तौर पर अग्रणी राज्य माने जाते हैं। चूंकि मुंबई को देश की वित्तीय राजधानी के रूप में देखा जाता है इसलिए केंद्र सरकार को उद्योग-व्यापार जगत के बीच अपनी नीतियों को पहुंचाना सहज होगा। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों को देखते हुए आश्चर्य नहीं कि भाजपा जम्मू-कश्मीर और झारखंड में भी बढ़त हासिल करे और फिर बिहार पश्चिम बंगाल एवं उत्तर प्रदेश में भी बेहतर प्रदर्शन करे।

जिस तरह महाराष्ट्र में मराठी मानुष के नाम पर की जाने वाली राजनीति के दिन लदते दिख रहे हैं उसी तरह हरियाणा में जाट राजनीति का प्रभुत्व खत्म होता दिख रहा है। इंडियन नेशनल लोकदल के ओमप्रकाश चौटाला और कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा जाट प्रधान राजनीति के कारण मजबूत माने जा रहे थे, लेकिन भाजपा ने गैर जाटों पर ध्यान केंद्रित कर अपने विरोधियों को चारों खाने चित्त कर दिया। भाजपा ने गैर जाट मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री के लिए चयनित कर राज्य की जनता को एक संदेश दिया है, लेकिन उसे जाटों को भी अपने साथ लेकर चलना होगा। ऐसा करके ही वह हरियाणा का सही तरह से नेतृत्व करते हुए इस राज्य में विकास की रफ्तार बनाए रख सकती है। महाराष्ट्र में भाजपा के मजबूत उभार से यह साफ है कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने पिता बाला साहब ठाकरे की राजनीतिक विरासत को संभाल नहीं सके। अपनी आक्रामकता के कारण बाला साहब के स्वाभाविक राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले राज ठाकरे को तो महाराष्ट्र की जनता ने कोई भाव ही नहीं दिया। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के साथ-साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और हरियाणा में चौटाला, कुलदीप विश्नोई और अन्य दलों के हश्र के बाद यह आवश्यक है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपनी राजनीति के तौर-तरीकों पर नए सिरे से विचार करें। क्षेत्र के भले के नाम पर आम जनता को बरगलाने वाली राजनीति लंबे समय तक नहीं चल सकती। इसी तरह कुछ खास जातियों को गोलबंद करके की जाने वाली राजनीति का प्रभाव भी खत्म होता दिख रहा है। यह कुल मिलाकर एक शुभ संकेत ही है।