ज्ञान चतुर्वेदी

मुझे कुर्सी दो। अभी जिस पर आसीन हूं उससे और बड़ी दो। मेरा कद चाहे बौना हो और बड़ी कुर्सी पर मैं शायद बच्चों का खिलौना लगूं, लेकिन फिर भी मुझे वह कुर्सी दो। भले ही कोने में पड़ा रहूं, लेकिन कुर्सी बड़ी ही लूंगा। बड़ी वाली कुर्सी पर ही मेरी नजर है बाकी आपकी मेहरबानी। तुम मुझे कुर्सी दो बदले में तुम्हारी हर एक मुराद मैं पूरी करूंगा। एक जमाने में जब मैंने ‘येन-केन-प्रकारेण वाला जुमला सुना था तब उसका सही अर्थ पकड़ नहीं पाया था, लेकिन अब कुर्सी के पास मंडराते, घिघियाते और गुर्राते लोगों को देखकर इसका सही अर्थ मालूम पड़ रहा है। यह भी किसी भी तिकड़म का एकमेव मकसद है कुर्सी। इसके लिए जो टांका भिड़ाना पड़े बस किसी तरह कुर्सी मिल जाए। चाहे सीधे रास्ते से या पिछले चोर दरवाजे से। रेंगकर उकड़ू होकर। पलटीमार की टांगों के बीच से गुजरकर। कैसे भी पहुंच जाएं कुर्सी तक। मुझे कुर्सी दो। और बड़ी। चार टांगें और पीछे की टेक। गद्दी हम रख लेंगे। अगर चार वाली संभव न तो तीन टांग वाली कुर्सी पर ही बिठा दो। बहुमत वाली चौथी टांग न हो तो भी हम टेढ़े-मेढ़े होकर जमे रहेंगे कुर्सी पर। हमें दे भर दो। या उसका पता ही बता दो कि धरी कहां है। तिकड़म हम कर लेंगे। या तुम बताओ। जो कहो, सो करें। जो बताओ, वही मानें। जहां कहो, नाक रगड़ें। या कटा ही दें। जिसके पीछे कहो, चल दें। जहां कहो, आग फूंक दें। आरक्षण की, धर्म की, जिसकी कहो, क्योंकि हर तरह की तीलियां हमारी माचिस में हैं।
बस किसी तरह कुर्सी मिल जाए।
कुर्सी चाहिए हमें। रीढ़ है कि टेक चाहती है। मुलायम रीढ़ के आदमी हैं हम। टांग हैं कि अब टंगना चाहती हैं। बहुत चल लिए। चरैवेति बहुत किया। वैसे चले भी कुर्सी की दिशा में। हमारी हर पदयात्रा इसी ओर। रथयात्राएं इसी दिशा में। हर यात्रा कुर्सी की तरफ। हर कदम इसी ओर। वरना उठाएं ही क्यों? लक्ष्य एकदम स्पष्ट और इरादे कमीन। और क्या चाहिए। इतने पर भी न मिले तो हद है। कुर्सी की तलाश। हरदम। अहर्निश। सुबह से शाम। गली के श्वानवत। जहां मिल जाए। सूंघते हैं संभावनाओं के खंभे। कुल जीवनवृत ही यह कि पैदा हुए, कुर्सी के चारों तरफ पैंया पैंया घूमते रहे, कुर्सी पर बैठे रहे, कुर्सी के लिए जिए और मरे उसी पर राजकीय सम्मान के साथ। मुर्दा होने पर ही कुर्सी छोड़ी, गोकि कुर्सी पर भी सालों मुर्दा ही रहे। वैसे कुर्सी अच्छे से अच्छे मुर्दे में जान फूंक देती है। रोज देखते हैं। हिल रहे हैं, जगमगा रहे हैं, लाठी की टेक और कुछ बुझा नहीं रहा है कि कायनात के तंबू में कहां खड़े हैं और जाना किधर है-पर तेवर देखिए। जो लाठी खुद को सहारा नहीं दे पा रही, उसे देश पर चला दें। दिख नहीं रहा, दिशा नहीं सूझती, पर देश को दिशा देने पर आमादा। जान फूंक देती है कुर्सी उन पुतलों में जिनके पुतले देश में गली-गली जलते हैं। पर यह तो है साहब कि एक बार कुर्सी पर हो, तो बेजान पुतला भी ताकतवर। पुतलों की जान कुर्सी में। अभी कुर्सी छूट जाए तो वह वापस प्राणहीन पुतला। बांस, खपच्ची और बेढंगे सिर वाला। सो हर पुतले की चाहत कि कुर्सी मिले। प्राण चाहिए उसे।
कुर्सी चाहिए हर पुतले को। कुर्सी दो मुझे, पुकार रहा है वह। कुर्सी के लिए कुछ भी करेगा। कुछ भी। कसम से। कह के देखो। सच्ची। कुर्सी के लिए अयोध्या, कुर्सी के लिए काशी। कुर्सी के लिए सजदे। कुर्सी के लिए रोजा-इफ्तार। कुर्सी के लिए स्वामी। कुर्सी के लिए जोगी। कुर्सी के लिए मुल्ला। कुर्सी के लिए काजी। कुर्सी के लिए मुस्लिम, कुर्सी के लिए हिंदू। हर शख्स, हर जाति अंतत: एक वोट। कुर्सी मिले। असली चीज कुर्सी। राम के नाम से मिले, अल्ला के नाम पर या फिर सबका नाम थोड़ा-थोड़ा जपकर। आरक्षण का शिगूफा छोड़कर मिले या देश में आग लगाकर। देश जले, पर कुर्सी सुरक्षित, बल्कि देश जलने पर ही कुर्सी सुरक्षित। कुर्सी जलती नहीं। कुर्सी मिटती नहीं। देश मिट जाते हैं, पर सिंहासन बने रहते हैं। कुर्सी अजर। कुर्सी अमर। देश बिखर जाए पर यह रहती है। मलबे के मालिक की भी एक कुर्सी होती तो है। पर कुर्सी तो कुर्सी है साहब। हम कुर्सी बनाएंगे। आरी हमारे पास। देश, समाज और जाति को काटते रहे हैं। वही आरी। इसी से काटपीट कर कुर्सी बनती है। दलितों के पाये, सवर्णों की टेक और हमारी गद्दी।
हर चीज यहां कुर्सी पाने का बहाना है। गांधी भी, अंबेडकर भी, गोडसे भी और विवेकानंद भी। हर महापुरुष अंतत: उस दफ्तर की चाभी है जिसमें कुर्सी धरी है। गांधीजी मर गए, पर चाभी हमारे कब्जे में। उनका नाम नो माने मास्टर की। अंबेडकर का नाम मानो खुल जा सिमसिम कि जिसके जपने से सत्ता की गुफा का दरवाजा खुले कि जिसमें कुर्सियां ही कुर्सियां। चोर चालीस हों या चार सौ, पर गुफा उनकी। घूम रहे हैं चोर, अलीबाबा की तलाश में कि जिसे मार कर वोट लेना है उन्हें। अलीबाबा, एक वोट। चोर चालाक। वे अलीबाबा के कुनबे को बांट रहे हैं। अलग-अलग करके शिकार करना है हर मतदाता का। मारा ही जाना है अलीबाबा को। जीतना ही है चोरों को, क्योंकि गुफा चोरों के कब्जे में, क्योंकि कुर्सी पर चोर ही चोर, क्योंकि खुल जा जिस-सिम बोलने से आजकल गुफा नहीं खुलती। उनने फार्मूला बदल दिया। संशोधन कर देते हैं वे गुफा के संविधान में। अब खोलो बेटा। कुर्सी हथियाए चोरों ने बंद कर रखी है गुफा अंदर से। कुर्सी की तिकड़में। कुर्सी का जुगाड़। कुर्सी की ये। कुर्सी की वो। कुर्सी ही तुम। कुर्सी ही हम। तुम अगर कुर्सी नहीं, तो हमारे किस काम के? तुम्हें हम क्यों पूछें?