राजीव चंद्रशेखर

नरेंद्र मोदी सरकार को सत्ता संभाले हुए तीन साल होने वाले हैं। ऐसे में विभिन्न पहलुओं पर सरकार का आकलन और विश्लेषण होना स्वाभाविक है। इसमें भी सबसे महत्वपूर्ण यही होगा कि इस सरकार ने आखिर शुरुआत कैसे की? सबसे पहले तो सरकार के क्रांतिकारी फैसलों पर दृष्टिपात किया जाए। 2014 में जब मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी तब अर्थव्यवस्था खस्ताहाल थी। जहां आर्थिक वृद्धि 12 तिमाहियों से उतार पर थी वहीं महंगाई उफान पर थी। दूरसंचार और कोयले जैसे क्षेत्रों में भीमकाय घोटालों ने कमर तोड़ दी थी। इससे निवेश बुरी तरह प्रभावित हुआ। यह शासन के स्तर पर बड़ी गड़बड़ी का संकेत था। बेलगाम सरकारी खर्च से सरकारी खजाना भी कराह रहा था। इससे बढ़े राजकोषीय घाटे ने मुद्रा और निवेश पर दबाव और ज्यादा बढ़ा दिया। अब 2017 के परिदृश्य पर गौर कीजिए। सभी महत्वपूर्ण संकेतक अर्थव्यवस्था में स्थायित्व का संकेत करते हैं। मसलन सात फीसद से अधिक की आर्थिक वृद्धि दर, नरम मुद्रास्फीति, काबू में राजकोषीय घाटा और पिछले तीन वर्षों के दौरान 150 अरब डॉलर से अधिक का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ। इससे भी महत्वपूर्ण उस धारणा में आया बदलाव है जहां लोग मानने लगे हैं कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार की जगह पर ईमानदार, दृढ़निश्चयी और कर्मठ सरकार ने कमान संभाली है। पिछले तीन साल के किसी भी निष्पक्ष आकलन से यही नजर आएगा कि आर्थिक कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और सरकारी खजाने के दुरुपयोग को रोकने के लिए इस सरकार ने कई क्रांतिकारी निर्णय किए हैं। इस फेहरिस्त में कई फैसले जुड़ जाएंगे। जैसे आजादी के बाद अभी तक के सबसे बड़े कर सुधार जीएसटी कानून को पारित कराना। काले धन की बीमारी को दूर भगाने और डिजिटल इकॉनमी की ओर कदम बढ़ाने के लिए नोटबंदी जैसा साहसिक फैसला। ग्र्राहकों के छलने के लिए कुख्यात रियल एस्टेट जैसे क्षेत्र में करोड़ों उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए रेरा जैसा कानून बनाना। बैंकों की एनपीए जैसी महामारी से निपटने के लिए अधिनियम में संशोधन के साथ ही दीवालिया विधेयक को पारित कराने और हाल में बैंकिंग नियमन अध्यादेश जारी करने जैसे कदम इस सरकार ने उठाए हैं। इसके अलावा लोक सेवा की ऐसी नई संस्कृति भी विकसित की है जिससे धीरे-धीरे ही सही, लेकिन सरकार के चरित्र में बदलाव आया है।
अब अर्थव्यवस्था की तस्वीर पर गौर करते हैं। संप्रग सरकार से मिली बदहाल आर्थिक विरासत के बावजूद पिछले तीन वित्त वर्षों के दौरान अर्थव्यवस्था सात फीसद से अधिक की वृद्धि दर्ज करने में सफल रही है। चालू वित्त वर्ष के दौरान भी भारत की जीडीपी वृद्धि दर 7.4 प्रतिशत रहने का अनुमान है जो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ऊंची वृद्धि दर होगी। सरकार महंगाई को भी काबू करने में कामयाब रही है। आंकडे़ खुद इसकी तस्दीक करते हैं। जुलाई, 2016 में मुद्रास्फीति की छह प्रतिशत दर की दर दिसंबर, 2016 में घटकर 3.4 प्रतिशत रह गई। सरकारी खर्च में भारी बढ़ोतरी के बावजूद राजकोषीय घाटा 3.5 प्रतिशत के दायरे में नियंत्रित है जिसे चालू वित्त वर्ष में 3.2 फीसद तक लाने का लक्ष्य है जो एफआरबीएम समीक्षा समिति द्वारा सुझाई तीन प्रतिशत की सीमा की राह पर ही है। यह संप्रग सरकार की फिजूलखर्ची के एकदम उलट है जब 2013 में राजकोषीय घाटा पांच प्रतिशत के खतरनाक स्तर तक पहुंच गया था। भारत का चालू खाता घाटा भी जीडीपी के 0.3 प्रतिशत के सहज दायरे में है। पिछले तीन वर्षों में 151 अरब डॉलर का एफडीआइ हुआ जिसमें इस साल एफडीआइ में आई 36 प्रतिशत की उछाल भी शामिल है जबकि वैश्विक स्तर पर एफडीआइ प्रवाह में पांच प्रतिशत की कमी आई है। इस सरकार की सबसे खास बात यह रही है कि इसने ढांचागत सुधारों की ओर ध्यान दिया है। जैसा कि मैंने अतीत में भी कहा है कि इस सरकार का पूरा ध्यान वास्तविक एवं कारगर उपायों के माध्यम से भारत का कायाकल्प करने पर है और यह संप्रग सरकार की तरह भारी-भरकम और हवा-हवाई योजनाओं वाली शैली में काम नहीं करती। यह वास्तव में एक बड़ा बदलाव है। सरकार की जन-धन योजना वित्तीय समावेशन का अहम जरिया बनी जिसने बैंकिंग सुविधाओं से वंचित 28 करोड़ लोगों तक बैंक की पहुंच सुनिश्चित की। जन धन योजना, आधार और मोबाइल की तिकड़ी से सरकार ने सब्सिडी में मौजूद खामियों को दूर करते हुए तकरीबन 36,000 करोड़ रुपये की बचत की है।
जीएसटी और नोटबंदी जैसे सरकार के दो अहम फैसलों पर चर्चा करना भी जरूरी होगा। बहुप्रतीक्षित जीएसटी का पारित होना वाकई एक बड़ा पड़ाव है। आजाद भारत में सबसे बड़ा अप्रत्यक्ष कर सुधार करार दिए जा रहे जीएसटी में पूरे देश को एक साझा बाजार बनाने और जीडीपी को एक से दो फीसद तेजी देने की कूवत है। उपभोक्ताओं को भी जीएसटी से बडे़ फायदे होंगे। साथ ही यह कर दायरे के विस्तार में भी मददगार होगा। कर आधार में विस्तार से सरकारी राजस्व में इजाफा होगा जिससे सरकार के लिए कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ाने की गुंजाइश बढ़ेगी। ये सभी चीजें आखिरकार अर्थव्यवस्था के कायाकल्प में कारगर साबित होंगी जिससे वह ज्यादा प्रभावी, सक्षम और प्रतिस्पर्धी बनेगी जो लगातार प्रतिस्पर्धी होती अर्थव्यवस्थाओं की दुनिया में एक महत्वपूर्ण मापदंड है। वहीं 500 और एक हजार रुपये के नोट बंद करने के फैसले ने सरकार की उस दृढ़ इच्छाशक्ति को ही दर्शाया कि अर्थव्यवस्था की साफ-सफाई के लिए वह कडे़ और मुश्किल फैसले लेने से भी नहीं हिचकेगी। इस तरह देखा जाए तो हाल के वर्षों में अर्थव्यवस्था के आकार को बढ़ाने के तो तमाम प्रयास हुए हैं, लेकिन पहली बार ऐसा देखने को मिला कि आकार के साथ-साथ हमारी अर्थव्यवस्था की गुणवत्ता को भी बेहतर बनाने की कोशिश हो रही है। नोटबंदी के बाद 91 लाख नए करदाता सामने आए हैं जो पिछले साल के मुकाबले 80 प्रतिशत अधिक हैं जबकि इसमें अमूमन मामूली सा इजाफा ही होता आया है। इससे लोग डिजिटल लेनदेन की ओर भी उन्मुख हुए हैं और समानांतर यानी काले धन वाली अर्थव्यवस्था पर भी करारी चोट हुई। वित्त मंत्री ने भी पिछले बजट भाषण में इसका कुछ यूं जिक्र किया था, ‘नोटबंदी से एक नया सामान्य पैमाना बनता दिख रहा है जहां जीडीपी बढ़ने के साथ ही साफ और वास्तविक भी होगा।’
ऐसा नहीं कि आगे की राह में चुनौतियां नहीं हैं। अब उन चुनौतियों की भी चर्चा करते हैं। बैंकों में एनपीए की समस्या बदस्तूर कायम है। इससे समूचे बैंकिंग क्षेत्र में ठहराव आ गया है। नतीजतन निवेश के लिए नए कर्ज का राह रुक सी गई है। लगातार गिरता निर्यात भी चिंता का विषय बना हुआ है। इनका समाधान निकालने की जरूरत है। एनपीए की समस्या को मैं 2012 में संसद में भी उठा चुका हूं और 2014 में भी मैंने सरकार को इसे लेकर चेताया था। इसकी जड़ें भी संप्रग सरकार के दौरान भ्रष्ट और राजनीतिक दबाव में दिए गए कर्जों में छिपी हैं। इसके निदान के लिए कारगर उपाय करने ही होंगे। अभी भी मंजिल काफी दूर है, लेकिन कई दशकों में पहली बार ऐसा लग रहा है कि हम सही नेतृत्व के साथ सही दिशा में जा रहे हैं।
[ लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं ]