किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक आम बजट देश में बड़े राजनीतिक सुधार की राह तैयार करेगा। इस बजट ने देश की भावी आर्थिक तस्वीर की झलक तो दिखाई ही है, यह आश्वासन भी दिया है कि राजनीतिक सुधारों का सिलसिला अब शुरू होने वाला है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने आम बजट में यह एलान किया कि अब राजनीतिक दल दो हजार रुपये से अधिक की राशि अनाम स्नोत के रूप में प्राप्त नहीं कर पाएंगे। पहले यह सीमा बीस हजार रुपये थी। वाकई जेटली ने एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। निर्वाचन आयोग ने भी हाल में इसी तरह का विचार व्यक्त किया था और खुद प्रधानमंत्री ने राजनीतिक सुधारों पर बल देते हुए पिछले दिनों कई बार
यह कहा कि हमें राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है।
सुधार की इस पहल पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया देखने लायक होगी। ज्यादातर दल अभी तक खुद को मिलने वाले चंदों को पारदर्शी बनाने की हर पहल का विरोध करते रहे हैं, लेकिन अब जब पूरा देश कैशलेस इकोनॉमी की ओर बढ़ रहा है तब यह आवश्यक है कि राजनीतिक दल भी अपने तौर-तरीके सुधारें। नई पहल के रूप में यह कहा गया है कि रिजर्व बैंक राजनीतिक दलों के लिए बांड जारी करेगा। यह सोच किस तरह आकार लेती है, इसके बारे में फिलहाल कुछ कहना मुश्किल है।
आर्थिक सर्वे के आधार पर विशेषज्ञ यह मान रहे थे कि मोदी सरकार इस आम बजट में कुछ ऐसे कदम उठा सकती है जो आम जनता को लोक-लुभावन प्रतीत हों, लेकिन वित्तमंत्री ने अपने बजट में ऐसी कोई झलक नहीं दिखाई कि वह लोक-लुभावन बजट पेश करना चाहते हैं। इसके बजाय उन्होंने सुधारों को प्राथमिकता दी और यह साबित किया कि देश को सही आर्थिक दिशा में ले जाना ही उनका एजेंडा है। आयकर में राहत का फैसला नोटबंदी से परेशान जनता को कुछ मदद पहुंचाने के इरादे से किया गया। इसे लोक-लुभावन कदम नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसके आसार पहले से थे कि नोटबंदी के बाद सरकार आयकर के संदर्भ में कोई बड़ा फैसला ले सकती है।
बजट के संदर्भ में अब तमाम समीक्षाएं होंगी, लेकिन मेरी निगाह में यह एक क्रांतिकारी बजट है, जो बड़े बदलाव का मार्ग प्रशस्त करेगा। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के कुछ कारण हैं।
एक कारण तो राजनीतिक फंडिंग में साफ-सफाई है ही, रोजगार के सृजन पर सरकार का जोर
और कृषि तथा गांव की अर्थव्यवस्था पर
नए सिरे से ध्यान देना है। गांव, कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों में बजट का आवंटन करीब पच्चीस प्रतिशत बढ़ा दिया गया है। देश की आर्थिक बुनियाद को और अधिक मजबूत करने के लिए यह आवश्यक था।
अगर सब कुछ सही तरह हुआ तो विकास दर की रफ्तार घटने की आशंका का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। बुनियादी ढांचे में निवेश में करीब पच्चीस प्रतिशत की वृद्धि विकास दर को तेज करने के लिए आवश्यक है। सरकार ने अपना इरादा स्पष्ट कर दिया है कि वह इन आशंकाओं को समाप्त करना चाहती है कि नोटबंदी के फलस्वरूप भारत की विकास दर में कमी आ सकती है। नोटबंदी का तात्कालिक असर तो है, लेकिन अगर सरकार बुनियादी ढांचे में खर्च बढ़ाती है तो न केवल रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, बल्कि विकास की रफ्तार भी तेज होगी। रोजगार के अवसर बढ़ाना सरकार की प्राथमिकता में है, इसकी झलक आर्थिक सर्वेक्षण से भी मिली है और आम बजट से भी। समस्या यह है कि अभी सरकारी खर्च ही बढ़ने की बात है। सवाल यह है कि इसमें निजी क्षेत्र की कितनी मदद ली जाती है। यह गौर करने लायक है कि जहां चीन में बुनियादी क्षेत्र की परियोजनाओं में पीपीपी मॉडल यानी सरकारी और निजी क्षेत्र की भागीदारी में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 45 प्रतिशत तक है वहीं भारत में यह मुश्किल से तीस प्रतिशत है। निजी क्षेत्र को निवेश करने के लिए प्रेरित करने के लिए यह जरूरी है कि उपयुक्त माहौल बने। सरकार निजी क्षेत्र के निजी निवेशकों को उत्साहित करना चाहती है, लेकिन उसने यह भी सुनिश्चित किया है कि जो लोग आर्थिक घपलेबाजी कर इधर-उधर हो जाते हैं वे बच न पाएं। इसके लिए वित्तमंत्री ने ऐसे लोगों की संपत्ति की जब्ती का कानून लाने का वादा किया है। यह भी भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कड़ा संदेश है।
बजट में मोदी सरकार की एक और बड़ी पहल कम लागत वाली आवासीय परियोजनाओं को बुनियादी क्षेत्र में शामिल करना है। सरकार की इस पहल से देश के आम लोगों को सस्ते मकान उपलब्ध कराने का संकल्प भी साकार होगा और इसके साथ ही बुनियादी क्षेत्र को भी बल मिलेगा। इसी तरह वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पचास करोड़ रुपये तक के टर्नओवर वाली छोटी कंपनियों के लिए टैक्स को घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया है। माना जा रहा है कि इससे देश की करीब 95 प्रतिशत कंपनियां सीधे लाभान्वित होंगी। अर्थव्यवस्था के बुनियादी क्षेत्र में जोर के साथ यह कदम बड़े पैमाने पर रोजगार बढ़ाने में सहायक बनना चाहिए।
हर बार आम बजट में काफी कुछ एक जैसा होता है। इस बार भी है। मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य आदि विषयों पर खर्च में थोड़ा-बहुत हेर-फेर, लेकिन हर बजट सरकार की आर्थिक दिशा के संदर्भ में सोच का संकेतक होता है। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि वित्तमंत्री अरुण
जेटली ने यह भरोसा जताया है कि विमुद्रीकरण के बाद देश की आर्थिक स्थिति नए सिरे से उभरेगी। उनके इस भरोसे का एक आधार वस्तु एवं
सेवा कर यानी जीएसटी पर शीघ्र अमल होने
की उम्मीद भी है। जीएसटी की जमीन लगभग तैयार हो गई है।
नि:संदेह सरकार ने देश की आर्थिक दिशा को और अधिक स्पष्ट करने के लिए आम बजट के रूप में मिले अवसर का भरपूर लाभ उठाया है। अब उसके पास एक और पूर्ण बजट प्रस्तुत करने का अवसर अगले साल मिलेगा। माना जा रहा है कि तब सरकार कुछ लोक-लुभावन कदम भी उठा सकती है, क्योंकि उसके बाद तो अगले आम चुनाव की नौबत ही आनी है। जो भी हो, बजट के संदर्भ में समग्र विश्लेषण धीरे-धीरे ही होता है और खासकर यह देखते हुए कि वित्तमंत्री ने जो प्रस्ताव दिए हैं उन पर अमल के लिए किस तरह का तंत्र कायम किया जाता है। इस बजट में फिलहाल यह कमी नजर आ रही है कि बैंकों के बिना वसूली वाले कर्जों के संदर्भ में कोई स्पष्ट बात नहीं कही गई है। सरकारी बैंकोें के लिए यह एक बड़ी समस्या है और उम्मीद की जा रही थी कि इसके बारे में कोई स्पष्ट घोषणा की जाएगी। सरकार इस पर जरूर राहत महसूस कर सकती है कि वह राजकोषीय घाटे को तीन प्रतिशत के लक्ष्य के पास पहुंचती नजर आ रही है। फिलहाल वित्तमंत्री ने बजट में इसके 3.2 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया है और यह भरोसा दिलाया है कि अगले साल तीन प्रतिशत का लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा।
[ लेखक लार्ड मेघनाद देसाई, प्रख्यात आर्थिक विशेषज्ञ और एमडी एकेडमी ऑफ इकोनॉमी के संस्थापक हैं ]