मंगलवार 10 जनवरी का दिन काबुल के लिए खौफनाक साबित हुआ। दारुल अमन सड़क पर स्थित अफगानिस्तान के संसद के एक हिस्से में हुए आत्मघाती हमले में तमाम लोगों की जान चली गई और कई अन्य घायल हो गए। अफगानिस्तान में दफ्तर सुबह आठ बजे खुलते हैं और शाम को चार बजे बंद हो जाते हैं। इस दौरान चूंकि दफ्तरों के आसपास लोगों और वाहनों का जमावड़ा बढ़ जाता है, लिहाजा आतंकी हमला करने के लिए इसी समय को चुनते हैं, ताकि हताहतों की संख्या अधिक हो सके। अफगानिस्तान के स्वास्थ्य मंत्री ने हमले में मरने वालों की संख्या 28 और घायलों की संख्या 73 बताई है। हालांकि अफगानिस्तान के अधिकारी आम तौर पर मरने वालों के वास्तविक आंकड़ों को जानबूझकर कम बताते हैं, जबकि आतंकी प्रचार तंत्र उसे बढ़-चढ़कर बताते हैं। तालिबान की वेबसाइट वायस ऑफ जिहाद ने दावा किया है कि हमले में राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय के अधिकारियों को ले जाने वाली पूरी बस तबाह हो गई। एक पुराने शाही भवन दारुल अमन के नाम पर दारुल अमन सड़क का नामकरण किया गया है। एक समय यह इमारत अपनी भव्यता के लिए अफगानिस्तान में मशहूर थी, लेकिन आज वह जर्जर हालत में है। वह अफगानिस्तान की बर्बादी, त्रासदी और अंतहीन दुख का प्रतीक बन गई है। इससे करीब एक किलोमीटर की दूरी पर ही अफगानिस्तान की नई संसद खड़ी है। इसे भारत सरकार ने बनाया है। गत वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक समारोह में इसे अफगानिस्तान को सौंपा था। आशा और उम्मीद के प्रतीक के रूप में यह आज भी बरकरार है।
10 जनवरी को अफगानिस्तान के एक दूसरे शहर कंधार में भी बम धमाका हुआ। ताज्जुब है कि आतंकियों ने एक सोफे के अंदर बम छिपाकर रख दिया था। उस धमाके में अफगानिस्तान के एक प्रांतीय गवर्नर हुमायूं अजीजी और उनके अतिथि संयुक्त अरब अमीरात के अफगानिस्तान में राजदूत घायल हो गए, जो कि एक स्कूल भवन का उद्घाटन करने आए थे। वहीं डिप्टी गवर्नर अब्दुल अली शम्सी की मौत हो गई। संयुक्त अरब अमीरात हाल ही में कुख्यात अंडरवल्र्ड सरगना और आतंकवादी दाऊद इब्राहिम की संपत्ति को जब्त करने के लिए चर्चा में आया था। तालिबान की वायस ऑफ जिहाद ने भी कंधार की घटना की जिम्मेदारी ली है, लेकिन इसमें आइएसआइ और स्थानीय तालिबान का हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसी दिन अफगानिस्तान के कई दूसरे स्थानों पर भी तालिबान ने हमले किए। दुर्भाग्य की बात है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपनी विरासत के रूप में आतंकवाद से ग्रस्त अफगानिस्तान को छोड़कर जा रहे हैं। वह अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का कितना भी गुणगान कर लें, लेकिन उनकी अफगानिस्तान-पाकिस्तान नीति की यही सच्चाई है। ओबामा पाकिस्तान के सैन्य शासकों और अरब से पाकिस्तान को मिलने वाले भारी-भरकम फंड पर लगाम लगाने में सफल नहीं हुए। परिणामस्वरूप आज अफगानिस्तान आतंकवाद के भयानक संकट में फंस गया है और पूरे क्षेत्र में एक सामरिक असुरक्षा की स्थिति पैदा हो गई है। अफगानिस्तान में हर दिन निर्दोष लोगों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है। देशव्यापी आतंकवाद, बड़े पैमाने पर देह व्यापार, मादक पदार्थों की तस्करी, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और अन्य दूसरे संगठित अपराधों की बाढ़ आ गई है। पाकिस्तानी सेना ने इसे और बढ़ाया है। उसने अरब प्रायद्वीप और खाड़ी के संरक्षण और सबसे बढ़कर ओबामा की देखरेख में यह सब किया है। अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस लेने की घोषणा करने, अफगानिस्तान को मझधार में छोड़ने, अफगान वायुसेना को मजबूती प्रदान करने से इंकार करने का सबसे ज्यादा लाभ पाकिस्तानी सेना और उसके टुकड़ों पर पल रहे तालिबान को हुआ। अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के नाम पर सिर्फ दिखावा किया गया।
हालांकि कई सैन्य, खुफिया और विदेश नीति के विशेषज्ञों ने व्हाइट हाउस को अफगानिस्तान में बढ़ते खतरे को खत्म करने के लिए पाकिस्तान के खिलाफ राजनीतिक, वित्तीय, सैन्य कार्रवाई करने की सलाह दी थी। पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने अफगानिस्तान संकट के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया था और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को समाप्त करने के लिए पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की थी, लेकिन ये सभी आग्रह व्यर्थ साबित हुए। अफगानिस्तान की स्थिति आज तेजी से बिगड़ रही है। पाकिस्तान स्थित और समर्थित आतंकी पूरे देश में लगभग हर दिन हमले कर रहे हैं। तालिबान के साथ बड़े पैमाने पर पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों और जवानों के जुड़े होने की बात सामने आई है। दिनों दिन अफगान सुरक्षा बलों में हताहतों की संख्या बढ़ने से उनका मनोबल टूट गया है। उनमें नई भर्तियां कम होने लगी है। इस प्रकार पूरे देश में उदासी का वातावरण है। उधर अमेरिका अफगानिस्तान में पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों के खिलाफ सख्ती दिखा रहा है, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आतंकवादियों को शह देने वाली पाकिस्तान सेना और फंड मुहैया कराने वाले सऊदी अरब के प्रति उदारता दिखा रहा है। परिणामस्वरूप तालिबान की जड़ पाकिस्तान में पूरी तरह सुरक्षित है और उसके आतंकी अफगानिस्तान में पाकिस्तान और सऊदी अरब के एजेंडे को लागू करा रहे हैं।
अब सारी दुनिया की निगाहें अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ऊपर हैं, क्योंकि उन्होंने आतंकवाद और इस्लामिक चरमपंथियों को समाप्त करने का वादा कर रखा है। हालांकि तालिबान की ओर से इसकी प्रतिक्रिया होने की भी उम्मीद है। अफगानिस्तान राष्ट्रपति के सलाहकार के रूप में मेरा अनुभव कहता है कि अफगानिस्तान में होने वाले हर प्रमुख आतंकवादी हमलों में पाकिस्तान की सेना की भूमिका होती है। रावलपिंडी अफगानिस्तान और भारत में आतंकवादी हमलों के द्वारा इस क्षेत्र में प्रभुत्व कायम करना चाहता है और स्वयं के लिए सामरिक स्थान बनाना चाहता है। 90 के दशक में कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए आइएसआइ ने आतंकवादी गुलबुद्दीन हिकमतयार को अफगानिस्तान के एक आतंकी कैंप में नियुक्त किया था। एक बार फिर उसे आइएसआइ ने अफगानिस्तान में तैनात किया है।
पाकिस्तान में नए सेना प्रमुख की नियुक्ति होना, अमेरिका में नए राष्ट्रपति का चुनाव होना और अफगानिस्तान में एक के बाद एक लगातार कई आतंकी हमले होना कई संकेत देते हैं। पहला, पाकिस्तान सेना प्रमुख ने अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत क्षेत्र में पहल कर दी है। दूसरा, पाकिस्तान किसी की आज्ञा नहीं मानने वाला है। तीसरा, पाकिस्तान ने क्षेत्र में प्रभुत्व कायम करने की मंशा स्पष्ट कर दी है और चौथा, उसने ट्रंप प्रशासन की परीक्षा लेना आरंभ कर दिया है। यदि ट्रंप इसके प्रति लापरवाह साबित हुए तो यह पाकिस्तान के लिए फायदमेंद होगा और भारत तथा अफगानिस्तान के लिए हानिकारक। यदि पाकिस्तान के खिलाफ कठोर रुख अपनाएंगे तो हो सकता है कि आने वाले दिनों में कुछ नए समझौते देखने को मिलें। इस्लामिक आतंकवाद और चीन की विस्तारवादी नीति को देखते हुए आने वाला समय स्वयं अमेरिका सहित पूरी दुनिया के लिए चुनौतीपूर्ण साबित होने वाला है। बराक ओबामा के आठ वर्षों के दोहरे रवैये के बाद अब सबकी नजरें राष्ट्रपति ट्रंप पर टिक गई हैं। देखना है कि वह अपने वादों पर कितना खरे उतरते हैं।
[ लेखक श्रीनिवासराव एस. सोहोनी, अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के वरिष्ठ सलाहकार हैं और पूर्व आइएएस अधिकारी हैं ]