ए. सूर्यप्रकाश
मधुर भंडारकर की हाल में रिलीज फिल्म इंदु सरकार को सिनेमाघरों तक पहुंचने के लिए खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। एक ओर कांग्र्रेस के विरोध-प्रदर्शन तो दूसरी ओर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) यानी सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्म में काट-छांट की सलाह देना दुर्भाग्यपूर्ण था। भंडारकर की फिल्म आपातकाल पर नहीं, बल्कि उसकी पृष्ठभूमि पर बनी है। बावजूद इसके फिल्म की रिलीज रोकने के लिए कांग्रेस ने हरसंभव प्रयास किए और सेंसर बोर्ड ने भी अनावश्यक हस्तक्षेप किया। यह दर्शाता है कि हमारे देश में संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी कितनी खोखली है। इंदिरा गांधी ने 1975 से 1977 के बीच एक जीवंत लोकतंत्र को निरंकुश शासन प्रणाली में तब्दील कर दिया था। तब उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों को जेलों में कैद कर उनके खिलाफ यातना-दमन का एक क्रूर चक्र चलाया जिस पर आज भी सिहरन होने लगती है। हमें अपनी आजादी और लोकतंत्र को आपातकाल के चंगुल से छुड़ाए हुए 40 साल बीत गए, बावजूद इसके उस काले अध्याय पर आज तक एक भी ऐसी फिल्म नहीं बनी जिससे वर्तमान पीढ़ी उसके अत्याचारों से वाकिफ हो सके। जब एक लोकप्रिय और प्रतिभावान निर्देशक ने आपातकाल की पृष्ठभूमि पर फिल्म बनाई तब उसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किया जाने लगा। कांग्रेस, जो 2014 में सत्ता गंवाने के बाद से ही अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर हंगामा खड़ा कर रही है, वह नहीं चाहती कि भारतीय लोकतंत्र के सबसे भयावह दौर की हकीकत से देश की जनता वाकिफ हो, जब देश तानाशाही के चंगुल में चला गया था। एक राजनीतिक पार्टी को इससे होने वाली परेशानियों का कोई भी अंदाजा लगा सकता है, लेकिन यह समझ से परे है कि आखिर सेंसर बोर्ड को इससे क्या दिक्कत थी?
देश में लोकतंत्र की मजबूती में यथासंभव योगदान देना देश की हर संस्था का दायित्व है। सेंसर बोर्ड के कंधों पर भी समान रूप से यह जिम्मेदारी है। आखिर वह आपातकाल की सच्चाई दिखाने का विरोध कैसे कर करता है? सेंसर बोर्ड द्वारा जताई गई कुछ आपत्तियां वास्तव में बेतुकी थीं। मधुर भंडारकर के अनुसार सीबीएफसी ने ‘भारत की एक बेटी ने देश को बंदी बनाया हुआ है और तुम लोग जिंदगी भर मां-बेटे की गुलामी करते रहोगे’ जैसे संवाद पर सवाल उठाए थे और उन्हें फिल्म से हटाने को कहा था। आपातकाल के जुल्मो-सितम के बारे में बड़े पैमाने पर लिखा जा चुका है। ढेरों किताबें और अखबारों में हजारों आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। किसी समाचार पत्र के स्तंभकार के समान ही एक फिल्म निर्देशक के पास भी अभिव्यक्ति की आजादी क्यों नहीं हो सकती है? इसके अलावा सेंसर बोर्ड ने शुरू में, ‘मैं तो 70 साल का बूढ़ा हूं, मेरी नसबंदी क्यों करा रहे हो?’ जैसे डायलॉग भी फिल्म से हटाने को कहा था। हालांकि बाद में यह सेंसर बोर्ड की कैंची से बच गया, लेकिन सवाल है कि बोर्ड को इस पर क्यों आपत्ति हो रही थी? क्या यह सच नहीं है कि आपातकाल के दौरान लोगों पर जबरन नसबंदी थोपने जैसा क्रूर अपराध किया गया था? तब सरकारी कर्मचारियों और शिक्षकों सहित लाखों लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी गई थी। संजय गांधी का विचार था कि सिर्फ बलपूर्वक ही देश की बढ़ती आबादी पर रोक लगाई जा सकती है। लिहाजा जिनके दो या दो से अधिक बच्चे थे उन्हें जबरन नसबंदी कैंपों में लाया गया। आपातकाल की ज्यादतियों की जांच करने वाले शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि जो लोग नसबंदी कराने से मना कर देते थे उन्हें मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट यानी मीसा के तहत जेल में ठूंस दिया जाता था। उन्हें तभी छोड़ा जाता था जब वे डॉक्टर द्वारा जारी नसबंदी का प्रमाणपत्र दिखाते थे।
अब हमें क्या करना चाहिए? अब हमें फिल्म सेंसरशिप से संबंधित जाने-माने फिल्मकार श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिशों को लागू करने की मांग करनी चाहिए। इस समिति ने कहा है कि सीबीएफसी की भूमिका सिर्फ एक फिल्म प्रमाणन अथॉरिटी के रूप में ही होगी। इसकी प्रकृति सेंसर बोर्ड की नहीं होगी। अर्थात वह फिल्मों को सेंसर करने या फिल्मों में किसी तरह की काट-छांट का सुझाव नहीं देगा, बल्कि मात्र उनके प्रमाणन के काम तक सीमित रहेगा। इस प्रकार वह सिनेमाटोग्राफ एक्ट की धारा 5बी (1) के उल्लंघन पर फिल्म को प्रमाणित करने से इन्कार कर सकता है।
इसी तरह अमत्र्य सेन पर बनी डॉक्यूमेंट्री के संबंध में भी सेंसर बोर्ड के फरमान समान रूप से निरर्थक हैं। डॉक्यूमेंट्री निर्माता सुमन घोष ने बताया है कि बोर्ड ने उनसे गुजरात, गाय और हिंदुत्व जैसे शब्दों को म्यूट यानी खामोश करने को कहा था। हम हाल के महीनों में गाय के नाम पर कुछ उपद्रवी गुटों द्वारा अंजाम दी गई हिंसक वारदातों के बाद देश में छिड़ी गोरक्षा पर बहस से पूरी तरह वाकिफ हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं गोरक्षा के नाम पर हिंसक अपराधों को अंजाम दे रहे तत्वों की कड़े शब्दों में निंदा की है और राज्य सरकारों से उनसे कठोरता से निपटने को कहा है। आखिर इसकेबावजूद सेंसर बोर्ड दिखावटी नैतिकता का प्रदर्शन क्यों कर रहा है? इससे जाहिर होता है कि जितनी जल्दी बेनेगल समिति की रिपोर्ट लागू होगी, फिल्म उद्योग के लिए उतना ही बढ़िया होगा। मधुर भंडारकर का कांग्रेस द्वारा किया गया विरोध सिर्फ यही दर्शाता है कि आपातकाल के बाद पार्टी में कुछ नहीं बदला है। कांग्रेस ने उससे कुछ भी सबक नहीं लिया है। तब कांग्रेस ने लोकप्रिय गायक किशोर कुमार को आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रोग्राम करने से रोक दिया था। यहां तक कि ग्रामोफोन कंपनियों को किशोर कुमार की रिकॉर्डिंग्स बेचने तक से रोक दिया था। तब इंदिरा गांधी सरकार ने ‘किस्सा कुर्सी का’ और ‘आंधी’ जैसी फिल्मों को भी प्रतिबंधित कर दिया था और अब कांग्रेस की भृकुटियां मधुर भंडारकर की फिल्म पर तन गईं और उसने फिल्म पर रोक लगाने की मुहिम पुरजोर तरीके से चलाई। इंदु सरकार को पूरे देश में लोग पसंद कर रहे हैं, फिर भी कांग्रेस का बेतुका विरोध जारी है। वह यह भी नहीं देख रही है कि पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस फिल्म पर रोक की मांग को सिरे से खारिज कर दिया।
इस फिल्म पर कांग्रेस के कोलाहल से ज्यादा अभिव्यक्ति की आजादी का नारा बुलंद करने वालों की गहरी चुप्पी कहीं अधिक चौंका रही है। लगता है कि वे सभी फिलहाल अपने खोल में छिप गए हैं। ऐसे में क्या हम उनकी चुप्पी का अर्थ फिल्म पर प्रतिबंध की मांग का मौन समर्थन से लगाएं? पिछले चार दशक से अधिक समय से आपातकाल की भयावहता को आम जनता की नजरों से ओझल रखने के लिए इन लोगों ने हरसंभव जतन किया है। आखिर वे क्यों चाहते हैं कि भारत में फासीवाद की वह दुर्भाग्यपूर्ण घटना हमेशा के लिए दफन रहे? उनके इरादे जो भी हों, लेकिन जो लोग भी आपातकाल के बारे में बनी इस फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं उन्हें इस सच्चाई से वैधानिक चेतावनी की तरह से अवगत कराना जरूरी है कि इस तरह वे अपनी अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को हमेशा के लिए खो देंगे।
[ लेखक प्रसार भारती के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]