निरपेक्ष-भाव से जीने का तरीका व्यक्ति को तमाम उलझनों, संकटों से मुक्त करता है। जीवन में झंझावात, विपरीत हालात तभी उत्पन्न होते हैं, जब किसी भी सांसारिक आकर्षण के प्रति गहरा लगाव हो जाता है और उसकी पूर्ति नहीं हो पाती या वह हाथ से निकलने लगता है तो बेचैनी होती है। यह बेचैनी व्यक्ति की परेशानी का कारण बनती है। जबकि होना यह चाहिए कि कोई सुखद अवसर मिले या न मिले या फिर हाथ से निकल जाए तो अपने मन पर सर्व प्रथम नियंत्रण रखने के लिए संदर्भ ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए या अन्य कोई ऐसे उपाय करने चाहिए ताकि मन में उथल-पुथल न आने पाए। ऐसा इसलिए, क्योंकि इस स्थिति में जब मन में उद्विग्नता उत्पन्न होगी, तो अन्य कार्यों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसी स्थिति को स्वविवेक से नियंत्रित करने के प्रकृति के सानिध्य में रहना, योग-प्राणायाम, सत्संग, भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने निरपेक्ष भाव को स्थितिप्रज्ञ कहा और अर्जुन से कहा कि यह जीवन की सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। इन दिनों भौतिकता की आंधी चल रही है। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि प्रभुता पाकर लोगों में मद या घमंड आ जाता है। अहंकारी व्यक्ति समाज में अलग-थलग पड़ने लगता है। देखने में लगता है कि वह बहुत लोकप्रिय है लेकिन यह सब कृत्रिम ही होता है। वह गफलत में रहता है। जरा सी विपरीत स्थिति आयी नहीं कि कृत्रिम लोग भाग खड़े होते हैं और फिर कल तक वाहवाही का जीवन जीने वाला तबाही की ओर जाने लगता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सब कुछ पैसे या रुतबे से नहीं हासिल होता। रुपया-पैसा इतना महत्वपूर्ण न हो जाए कि वह व्यक्ति का स्वरूप बिगाड़ दे और अपनों से दूर कर दे और रिश्तों में मिठास गायब कर खटास पैदा कर दे। जिंदगी के बाजार में रूप, रूपैया, रुतबा मिले तो उससे न दोस्ती और न विरोध के भाव को निरपेक्ष भाव कहा जाता है। हो सकता है कोई ऐसा वक्त आए कि इस जिंदगी के बाजार में बड़ा पद, बड़ा धन, बड़ा दबदबा हासिल हो और हो सकता है कि किसी वक्त यह सब न रह जाए तब भी मन-मस्तिष्क में संतुलन बनाए रखना चाहिए। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम राजगद्दी पाते-पाते वनवास पा गए लेकिन अपनी मर्यादा नहीं छोड़ी। बहरहाल, यदि निरपेक्ष भाव से जीने की आदत रहेगी, तो न सुख में उछलने की और न ही दुख में विचलित होने की स्थिति आएगी।
[ सलिल पांडेय ]