प्रदीप सिंह

योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनते ही चारों ओर से बुद्धिजीवियों और राजनीतिक विरोधियों के सवालों की बौछार होने लगी है। क्या वह सबको साथ लेकर चल पाएंगे? उनके राज में मुसलमानों का क्या होगा? क्या उत्तर प्रदेश सांप्रदायिक आधार पर बंट जाएगा? यह भी कहा जा रहा है कि भाजपा का असली चेहरा सामने आ गया। वह बात विकास की करती है, लेकिन उसका असली एजेंडा हिंदुत्व है। कुछ लोगों को इसमें बहुसंख्यकवाद का खतरा नजर आ रहा है। एक सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि क्या वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबका साथ सबका विकास के नारे को चरितार्थ कर पाएंगे? ऐसा कहने के पीछे मोदी की प्रशंसा का भाव नहीं है। यह बात योगी की आलोचना में कही जा रही है। इन लोगों की नजर में कल तक कट्टरवादी मोदी अब भाजपा का उदार चेहरा बन गए हैं। हालांकि योगी ने मंगलवार को लोकसभा में अपने भाषण में ज्यादातर आशंकाओं का जवाब दे दिया, लेकिन जरूरी नहीं है कि सवाल करने वाले संतुष्ट हो जाएं। ज्यादातर लोगों ने उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री की छवि उनके कुछ भाषणों और बयानों के आधार पर बनाई है। सांसद और गोरक्षनाथ पीठ के महंत के रूप में उनके सामाजिक कामों की कम ही लोगों को जानकारी है या यों भी कह सकते हैं कि इस जानकारी में कम ही लोगों की रुचि है। उसकी वजह यह है कि उनके काम को स्वीकार करते ही जो छवि गढ़ी गई है वह खंडित हो जाती है। उस खंडित छवि के आधार पर योगी आदित्यनाथ की आलोचना करना कठिन हो जाएगा। मुझे नहीं मालूम कि कितने लोगों को पता है कि गोरक्षनाथ पीठ नाथ संप्रदाय की है और उसका गठन ही वर्णाश्रम या जाति व्यवस्था के विरोध में हुआ था। इस संप्रदाय से जुड़ने वालों में मुस्लिम समुदाय के लोग भी थे। गोरखनाथ मंदिर का सामाजिक जुड़ाव समाज के कमजोर तबकों से है। इसमें जाति या धर्म का भेदभाव नहीं है। योगी आज भी छुआछूत मिटाने के लिए दलितों और अति पिछड़ी जाति के लोगों के साथ सामूहिक सहभोज का आयोजन करते हैं। मठ के स्कूलों, कॉलेजों और अस्पतालों में इसी वर्ग को प्राथमिकता मिलती है।
विधानसभा चुनाव में मतदाता ने भाजपा को जो प्रचंड जनादेश दिया उसके अनुरूप काम करने का दायित्व प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने योगी को सौंपा। हर दायित्व अपने साथ चुनौती और अवसर दोनों लाता है। इसलिए योगी आदित्यनाथ के सामने भी चुनौती है-पार्टी नेतृत्व और उत्तर प्रदेश के लोगों की उम्मीद पर खरा उतरने की। उनके सामने अवसर है अपने आलोचकों को गलत साबित करने का कि वह समावेशी विकास नहीं कर सकते। यह भी गलत ठहराने का कि वह धर्म के आधार पर भेदभाव करेंगे और विकास का रास्ता छोड़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के रास्ते पर चलेंगे। योगी को अवसर दिए बिना खारिज करने की कोशिश न केवल उनके साथ अन्याय है, बल्कि जनादेश की अनदेखी भी है। उन्होंने राज्य के पुलिस मुखिया को जो पहला निर्देश दिया वह उनके भविष्य की दिशा का संकेत करता है। उन्होंने डीजीपी जावीद अहमद से कहा कि उत्सव के नाम पर उपद्रव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
उत्तर प्रदेश का जनादेश इस सूबे की ही नहीं देश की राजनीति को भी बदलने वाला है। भाजपा नेतृत्व ने योगी को मुख्यमंत्री बनाने का जो साहसिक फैसला लिया उसका अर्थ है कि इतने बड़े जनादेश के बाद भाजपा नेतृत्व अपनी विचारधारा को लेकर बचाव की मुद्रा में नहीं है। नरेंद्र मोदी के उदय से पहले तक सत्ता में आते ही भाजपा वह बनने की कोशिश करने लगती थी जो वह नहीं है। नतीजा यह होता था कि उसे न खुदा ही मिलता था और न बिसाले सनम। योगी को उत्तर प्रदेश की बागडोर सौंपने का मतलब है कि भाजपा अपनी विचारधारा को लेकर हीन ग्रंथि के विकार से बाहर निकल आई है। इससे पहले तक भाजपा को चुनाव के लिए ही योगी जैसे लोगों की जरूरत होती थी। उसके बाद पार्टी उनसे किनारा कर लेती थी। एक छोटा सा उदाहरण: गोरखपुर में दिमागी बुखार एक महामारी की तरह है। गोरखपुर में इसके इलाज के लिए बिहार से भी लोग आते हैं। इस संबंध में बिहार सरकार भी कुछ करे, इस पर बात करने के लिए योगी तत्कालीन उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी से मिलने पटना गए। सुशील मोदी इस डर से उनसे नहीं मिले कि कहीं नीतीश कुमार बुरा न मान जाएं।
उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों ने मुस्लिम वोट के वीटो को निष्प्रभावी कर दिया है। अब उत्तर प्रदेश ही नहीं देशभर के मुसलमानों को सोचना चाहिए कि पिछले सत्तर साल की इस राजनीति ने उन्हें क्या दिया है? 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में हर चौथा भिखारी मुसलमान है और तलाकशुदा मुसलमानों में अस्सी फीसद महिलाएं हैं। बाकी कहानी सच्चर कमेटी बता चुकी है। 2014 में उन्हें डराया गया कि मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो मुसलमानों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। पिछले करीब तीन साल में मुसलमान अगर ज्यादा नहीं तो पहले से कम सुरक्षित तो नहीं ही हैं। अब कहा जा रहा है कि योगी के मुख्यमंत्री बनने से मुसलमानों को खतरा है। यह डर दिखाकर ही मुसलमानों से कहा गया कि शिक्षा, रोजगार, मकान और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को भूल जाओ। तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें सुरक्षा देंगे। इससे ज्यादा की अपेक्षा मत करो। अखिलेश यादव दरअसल अपनी लोकलुभावन योजनाओं के कारण ही हार गए। एक तरफ उनकी सरकार की योजनाएं थीं जिनका फायदा एक जाति और एक धर्म के लोगों के ही हिस्से में ज्यादा आता था। दूसरी तरफ केंद्र सरकार की एक योजना उज्ज्वला लोगों ने देखी जिसमें किसी से जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया गया। समावेशी विकास की अवधारणा पर हजारों पन्ने के लेख और सैकड़ों घंटे भाषण जो असर नहीं डाल सकते वह इस योजना के क्रियान्वयन ने कर दिया।
योगी आदित्यनाथ का उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनना भारतीय राजनीति के नए अध्याय की शुरुआत है। मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल कई प्रचलित धारणाओं और राजनीतिक मान्यताओं को तोड़ेगा। उनके विरोधियों की आशंका के विपरीत मुझे लगता है कि समाज ज्यादा समरस बनेगा। हां सात दशकों से हमें जिस तरह की राजनीति देखने की आदत हो गई है वह देखने को नहीं मिलेगी। शायद यह बात राजनीति के पुराने खिलाड़ी मुलायम सिंह को बहुत जल्दी समझ में आ गई। 19 मार्च को योगी के शपथ ग्रहण समारोह में अखिलेश के साथ उनकी उपस्थिति और हावभाव बदलाव का संकेत दे रहा है। योगी विरोधियों ने यदि उनसे लड़ने के लिए उनके हिंदुत्ववादी होने को हथियार बनाया तो लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार जाएंगे। उनके विरोधियों को यह याद रखना चाहिए कि योगी की कोई निजी महत्वाकांक्षा नहीं है जिसके कारण उन्हें समझौता करना पड़े। पद उनके लिए दायित्व है। उत्तर प्रदेश के आम लोगों की आकांक्षा ही उनकी महत्वाकांक्षा हो तो बात और अच्छे से बनेगी।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]