मृणाल पाण्डे
महाभारत में कहा गया है कि जिसने हल की मूंठ पर हाथ न रखा हो, ऐसे किसी भी व्यक्ति को राजा अपने मंत्रिमंडल में शामिल न करे। राजा की तो हम नहीं जानते पर अधिकतर पढ़े-लिखे (यानी अखबार पढ़ने और टीवी के खबरिया कार्यक्रम नियमित तौर से देखने वाले) लोग भी चिंतित होकर समझने लगे हैं कि अच्छे दिनों के तमाम शोरगुल के बीच देश के कोने-कोने में रोजी रोटी से हताश हमारे किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं और अन्नदाता का यह हाल आने वाले समय के लिए अशुभ संकेत है। इस त्रासदी की नाना वजहों और सरकारी तबके द्वारा इससे निपटने की कोशिशों पर काफी कुछ लिखा भी जा चुका है, लेकिन किसानी में ग्रामीण महिलाओं की भारी भागीदारी को नजरअंदाज कर दिया गया है। इसी के साथ पुरुष किसानों से कहीं बड़ी तादाद में भारत के हर शहर-गांव में महिलाओं द्वारा की जा रही आत्महत्याओं में लगातार आती उछाल की बाबत भी मीडिया और सरकार के नीति निर्माता कमोबेश लापरवाह और बेसुध से नजर आते हैं। हालात कितने संगीन हैं, यह समझाने के लिए बता दें कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में हर साल की जा रही आत्महत्याओं में से 30 प्रतिशत भारत में होती हैं। उनमें भी हमारी प्रति लाख महिलाओं के बीच आत्महत्या करने वाली महिलाओं की दर नेपाल के बाद विश्व में दूसरे नंबर पर है। तुलनात्मक तौर से दुनिया में भारतीय पुरुषों की आत्महत्या दर 22 वें पायदान पर है। सिर्फ 2013 में ही लगभग ढाई लाख भारतीय महिलाओं ने आत्महत्या की जो उस साल कुदरती विपदाओं या लड़ाई में मारे गए कुल लोगों की संख्या से अधिक है। इसमें भी 15 से 34 वर्ष की महिलाओं की तादाद सबसे अधिक थी।
भारत में आत्महत्या के आंकड़ों का इकलौता विश्वस्त स्नोत राष्ट्रीय अपराध शोध प्रकोष्ठ यानी एनसीआरबी है, पर उसके ब्योरे पूरी कहानी नहीं बताते। यह प्रकोष्ठ तो देश भर से स्थानीय पुलिस के मार्फत मिले आंकड़ों को सूचीवार दर्ज भर करता है। इस प्रक्रिया में कुछ तो गांवों में पुलिस की नगण्य मौजूदगी और कुछ औसत ग्रामस्तर के कांस्टेबल द्वारा ग्र्रामीणों की सूचना को बिना अधिक पड़ताल जस का तस दर्ज करने की वजह से, बड़ी तादाद में औरतों की आत्महत्याएं कुदरती वजहों से हुई मौतों के रूप में दर्ज की जा रही हैं। 1997 से आत्महत्या के सिलसिलेवार आंकड़े इस प्रकोष्ठ ने जमा करने शुरू किए। तब 20,000 गृहिणियों ने आत्महत्या की। यह दर 2009 तक आते आते 25 हजार के पार जा चुकी थी। इनमें से अधिकतर मौतें महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, बंगाल, गुजरात और आंध्र राज्यों में हुईं। गौरतलब है कि इन्हीं राज्यों में पुरुष किसानों ने भी बडी तादाद में आत्महत्या की है। क्या इनके बीच कोई संबंध है? इसे अनदेखा कैसे किया जा सकता है? हम जानते हैं कि कर्ज न चुका सके घर के कमाऊ पुरुष के मर जाने के बाद हाशिये के खेतिहर और खेत मजूरी पर निर्भर परिवारों की निरक्षर या अर्धसाक्षर महिलाओं पर कैसा अकथनीय बोझ आ जाता है। समाज में महिलाओं की दब्बू दशा के कारण हालात संभालने के लिए वे अक्सर काबिल नहीं होतीं। जमीन की मालिकी या बैंक खाते उनके नाम नहीं होते, लेकिन बैंक के महाजन अपना कर्जा नहीं छोड़ते। हमारे यहां खेतीबाड़ी में बराबरी की भागीदारी के बावजूद सरकारी स्नोतों से कोई छूट या मुआवजा पाने के लिए महिला का बतौर खेतिहर दर्ज होना जरूरी है। इसके लिए बुनियादी जरूरत है कि उस महिला के नाम जमीन की मिल्कियत औपचारिक तौर से दर्ज हो। ऐसा बहुत कम होता है। लिहाजा वे यदि आत्महत्या करने को लाचार हों तो अचरज क्या? इस मौत को भी अक्सर सरकारी जनगणना सूचना तंत्र द्वारा गृहिणी की मौत के रूप में ही दर्ज कर किया जाता है, फिर भी आंकड़े अक्सर अनकहे सच की झलक देते हैं। मसलन 2016 की एक रपट के अनुसार 2015-16 के बीच 5,650 किसानों ने आत्महत्या की और उसी दौरान महिलाओं की कुल आत्महत्याएं भी बढ़कर इससे दोगुनी हो गईं।
भगवान भला करें पत्रकार पी साईनाथ का जो 2000 से लगातार ग्रामीण इलाकों की बढ़ती बदहाली पर सिलसिलेवार तरीके से लिखते रहे हैं। अफसोस कि वह अंग्र्रेजी में लिखते हैं और बुझती खेती से पीड़ित हिंदी पट्टी में उनकी तरह गांव-गांव घूमकर लगातार खबरें जमा करने और उनका विश्लेषण करने वाले बस गिने चुने पत्रकार ही हैं। बहुत खोजने पर टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की 2011 की रपट मिलती है जिसके अनुसार तयशुदा तौर से यानी सरकारी मानकों पर खेतिहर रूप में दर्ज आत्महत्या करने वाली महिला खेतिहरों की तादाद कुल की 6.5 प्रतिशत थी। रपट के अनुसार तंत्र की खामियों की वजह से यह तादाद वास्तविक आंकड़ों के हिमशैल का सिरा भर है।
साईनाथ ने स्पष्ट किया है कि 2014 में जब खेतिहरों की अकाल मृत्यु पर चर्चे बढ़े तो बाबूशाही ने चुपचाप भूमिहीन जोतदारों और खेतिहर परिवारों की महिलाओं की आत्महत्याओं को अन्य की श्रेणी में दर्ज कराना शुरू किया। इससे आत्महत्या दर में कमी दिखने लगी जिसका जमकर प्रचार हुआ, लेकिन उसी दौरान ‘अन्य’ श्रेणी की आत्महत्याओं की तादाद में 245 प्रतिशत की उछाल भी काफी कुछ अनकहे ही कह देती है। जगजाहिर है कि आज अच्छी बारिश के बावजूद नोटबंदी और लागत बढ़ने से हमारे गांव-देहात में समूचा खेतिहर तबका भीषण तंगी और हताशा से गुजर रहा है। बुआई के समय घर की औरतों के जेवर गिरवी रखकर बीज लाकर बोने वाले छोटे किसान के पास भरपूर माल अनबिका पड़ा है। उसके भंडारण की क्षमता उसके पास नहीं और मंडियों में जहां नकदी से ही छोटे किसानों की सारी खरीद-फरोख्त चलती रही थी, वहां पैसे का घोर अकाल है। जो चेक उसे दिया जा रहा है उसे बार-बार शहर जाकर भुनाने में आधा पैसा खर्च हो जाता है तिस पर माफी हुए कर्ज के आंशिक हिस्से को चुकाने की विवशता का बोझ भी उन पर आ गिरता है जिसके लिए कोई माफी नहीं। इस सबकी आखिरी गाज उन युवा महिलाओं पर गिरती है जिनके पति केदारनाथ त्रासदी जैसी किसी दुर्घटना में मारे गए या दशा असह्य हो जाने पर आत्महत्या कर उन्हें अचानक निराधार छोड़ गए।
अगर गृहिणी या ‘अन्य’ के रूप में ऐसी महिलाएं हर साल और बड़ी तादाद में आत्महत्या करने लगी हैं तो क्या यह हमारे लिए खतरे की घंटी बजाने का विषय नहीं होना चाहिए-पुरुष खेतिहरों की अकाल मौतों की तरह? क्या हमारे सरकारी प्रकोष्ठ के लिए आपराधिक आंकड़े जमा करने वाले दस्तों और ग्राम स्तरीय पुलिसवालों को वैज्ञानिक और आधुनिक तरह से आंकड़े जमा करने की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए? देश की समस्याओं पर नीति आयोग सरीखी शीर्ष संस्थाओं में जो चिंतन किया जा रहा है उसका एक बड़ा विषय अब किसानी के हर तरह के आंकड़ों का, जिसमें किसानी आत्महत्याएं भी शामिल हैं, लैंगिक आधार पर आकलन और विश्लेषण होना चाहिए। खेती पिछड़ी है और युवा खेतिहर किसानी त्यागकर शहर भाग रहे हैं और उसके बाद शहर हो या गांव, हर कहीं बहू-बेटियां बड़ी तादाद में खुदकुशी कर रही हैं। इससे क्या साबित होता है? यही कि हमारे यहां किसानी पर चिंता और चर्चा लगातार महिला निरपेक्ष तरीके से हो रही है और हमारे अर्थशास्त्रियों का औसत खेतिहर महिला की दैनिक जिंदगी के जमीनी ब्योरों से कोई बहुत गहरा परिचय नहीं।
[ लेखिका प्रसार भारती की पूर्व प्रमुख एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]