नाइश हसन

बहुत अलग होता है देख कर कुछ कहना और जी कर कुछ कहना। तीन तलाक और हलाला के खिलाफ उठ खड़ी हुई औरतों की आवाज वह सब कुछ बयान कर रही है जो उन्होंने जिया है-भोगा है। बहुत सी धार्मिक किताबों और संदर्भों को दरकिनार करती तमाम मुसलमान औरतें अपने-अपने तरीके से अपने हक के लिए आवाज उठा रही हैं। इसी क्रम में पिछले दिनों लखनऊ में मुस्लिम वीमेंस लीग के झंडे के नीचे तमाम मुस्लिम महिलाएं इकट्ठा हुईं और उन सबने एक आवाज में कहा, इब्ने मरियम हुआ करे कोई, मेरे दुख की दवा करे कोई। उनका यह एक वाक्य सब कुछ कह डालता है। उन्हें किसी किताब का हवाला नही ढूंढ़ना पड़ता। ऐसा सिलसिला बिना रुके पूरे देश में चल रहा है। मुस्लिम औरतें अपने हक की लड़ाई की झंडाबरदारी पूरी हिम्मत से एक ऐसे समय कर रही हैं जब सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक पर सुनवाई शुरू हो गई है और सारा देश उसकी ओर गौर से देख रहा है। मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक को गैर कुरानी और गैर संवैधानिक तो कह ही रही हैं, यह भी रेखांकित कर रही हैं कि कानून लोगों के लिए होता है, लोग कानून के लिए नहीं होते। जरूरतों के मुताबिक कानून हमेशा बदला है और बदलना चाहिए भी। मुमकिन है कि आगे आने वाली पीढ़ी आज के तमाम कानूनों को पूरी तरह खारिज कर दे।
तीन तलाक के सवाल पर पिछले दो-तीन सालों से जो कुछ हो रहा है वह ठहरे हुए पानी में कंकड़ मारने जैसा है। एक हलचल मच गई है, जो काफी कुछ सकारात्मक संकेत दे रही है। सड़-गल चुकी व्यवस्था को बदलने के लिए शाना-बशाना औरत अब खड़ी हो गई है। वह सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंच गई है। बीते दिनों बहुत कुछ ऐसा होता रहा जिस पर बहस बरकरार है। पहला सवाल उस मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को लेकर उठा जिसने महज दो सवालों के साथ कथित तौर पर देश भर में हस्ताक्षर अभियान चलाया। इस अभियान के तहत मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से पूछे गए दोनों सवालों में यह सवाल था ही नहीं कि महिला को एक बार में तीन तलाक देकर घर से बेदखल करना सही है या नहीं? इसके बावजूद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने लॉ कमीशन के समक्ष जाकर यह दावा पेश कर दिया कि चार करोड़ से ज्यादा औरतें एक बार में तीन तलाक को सही कह रही हैं। इस दावे की पड़ताल होनी चाहिए।
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने मुस्लिम नवविवाहित जोड़ों को मेहर देने का अजीब फरमान जारी करने के साथ ही वक्फ की जमीन पर तीन तलाक पीड़ित महिलाओं के लिए संरक्षण गृह बनाने का फैसला किया। जाहिर है कि इस पर भी सवाल उठ रहे हैं। एक और सवाल तब उठा जब यह खबर आई कि कांग्रेस के बड़े नेता, वरिष्ठ वकील और पूर्व कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका डाली है और उच्चतम न्यायालय से दरख्वास्त की है कि तीन तलाक केस में उन्हें एमिकस क्यूरी यानी न्याय मित्र बनाया जाए। बाद में खबर आई कि वह न्याय मित्र बन भी गए और अपनी इस भूमिका में सक्रिय भी हो गए हैं। सवाल यह है कि जब वह इस मामले में पार्टी नहीं हैं तब फिर भी सुप्रीम कोर्ट को सलाह क्यों देना चाहते हैं? संप्रग सरकार के समय जब वह कानून मंत्री थे उस समय भी मुस्लिम महिलाओं का एक दल तीन तलाक के सिलसिले में उनसे मिला था। महिलाओं का यह दल मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव लाने की मांग कर रहा था। मेरी स्वयं की चिट्ठी भी उनके पास मौजूद होगी जिसमें तीन तलाक के हवाले से कानून में बदलाव की मांग की गई थी।
उस वक्त भी देश भर की तमाम मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठा रही थीं। उस समय वह कानून मंत्री थे। वह चाहते तो इस मुद्दे पर संसद में कोई पहल कर सकते थे, कोई बहस चला सकते थे और बदलाव की बात कर सकते थे। तब उन्होंने महिलाओं को पूरी तरह से अनसुना किया। उन्होंने उनकी मांग का कोई जवाब देना भी उचित नहीं समझा और आज वह तीन तलाक मामले में सुप्रीम कोर्ट में न्याय मित्र हैं। जाहिर है कि उनकी मंशा पर सवाल खड़े होंगे और यह आशंका भी व्यक्त की जाएगी कि कहीं मामले को उलझाने की कोशिश तो नहीं हो रही? आखिर जब उन्होंने मुस्लिम महिलाओं को कभी सुना ही नहीं तो उनके बारे में सुप्रीम कोर्ट को क्या सलाह देंगे? बात यहीं नहीं थमती। समझना कठिन है कि संप्रग सरकार के समय के एक और मंत्री कपिल सिब्बल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से पेश होकर तीन तलाक की हिमायत क्यों कर रहे हैं? क्या वह तीन तलाक की शिकार महिलाओं की उपेक्षा-अनदेखी होते रहना देखना चाहते हैं?
हाल में प्रधानमंत्री का यह बयान आया कि तीन तलाक पर मुस्लिम समुदाय के अंदर से आवाज उठे और उनके बुद्धिजीवी बैठ कर आपस में तय करें। ध्यान रहे कि अब तक जो भी आवाज तीन तलाक के खिलाफ उठी है वह मुस्लिम समुदाय के भीतर से ही उठी है। मुस्लिम महिलाओं ने ही हर जगह तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाई है-चाहे वह सड़कों पर हो या अदालतों में। वे हर संभव तरीके से आवाज उठा रही हैं। देश में तमाम महिलाएं और पुरुष लगातार तर्कपूर्ण तरीके से लिख रहे, बोल रहे और तीन तलाक को महिला विरोधी बताते हुए उसे खारिज कर रहे हैं। क्या ये सब बुद्धिजीवी नहीं हैं? क्या इस्लाम पर बात करने या बुद्धिजीवी दिखने के लिए किसी खास किस्म की दाढ़ी-टोपी जरूरी है? एक सवाल यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह क्यों कहा गया कि अगर तीन तलाक इस्लाम का हिस्सा हुआ हो तो वह दखल नहीं देगा। यह टिप्पणी आशंकाओं को जन्म देने वाली है। ध्यान रहे कि जब हिंदू समाज में व्याप्त सती प्रथा एवं छुआछूत खत्म करने और विधवा विवाह शुरू करने की पहल हुई थी तो इसके विरोध में सामने आए कुछ हिंदू संगठनों की ओर से अमुक-अमुक धार्मिक ग्र्रंथों का हवाला दिया गया था। यदि उनकी बातों को महत्व दिया गया होता तो शायद सती प्रथा और छुआछूत को खत्म करना मुश्किल होता।
आज मुसलमान औरत रोजाना खुद को तरह-तरह के सवालों में घिरा पा रही है। उसे अच्छी तरह पता है कि उसे उसी की कौम वालों ने कमअक्ल कह कर उच्चतम न्यायालय में उनकी याचिका को खारिज किए जाने की मांग की है। इन कौम वालों ने ही मुस्लिम औरतों को निर्णय लेने में अक्षम बताया है। इस सबके बावजूद उसी की मेहनत से इस मुद्दे पर देश के कोने-कोने से उठी आवाज ने तीन तलाक आंदोलन को एक मजबूत दिशा दी है। उसी की कोशिश से यह मुद्दा पहली बार एक राष्ट्रीय मुद्दा बन पाया है। इस दौर में जब बहुत कुछ औरत के पक्ष में नहीं, बल्कि अपनी-अपनी राजनीति को चमकदार बनाने के लिए हो रहा है तब उसकी उम्मीद भरी निगाहें सिर्फ और सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की ओर टकटकी लगाए देख रही हैं। वही एक दरवाजा है जो उसे खुलता हुआ नजर आ रहा है।
[ लेखिका रिसर्च स्कॉलर एवं मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं ]