शंकर शरण

जम्मू-कश्मीर में पिछले विधानसभा चुनाव के बाद एकतरफा उदारता नहीं फली। भाजपा ने वहां सरकार बनाना मात्र अपना लक्ष्य समझा। वस्तुत: यह कोई लक्ष्य न था, क्योंकि सरकार तो बनती ही। ज्यादा से ज्यादा राष्ट्रपति शासन लगता या चुनाव फिर होते, मगर जिस पीडीपी को चुनाव-प्रचार में उसने भरपूर कोसा, उसी को बिना शर्त सहयोग देना उसकी भारी रणनीतिक भूल थी। देश के लिए तो छोड़िए अपने समर्थक जम्मू व लद्दाख के लिए भी भाजपा ने इससे कुछ हासिल नहीं किया। राजनीति में मंगल ग्रह के लोग नहीं होते। वे हमारे-आपके जैसे सामान्य होते हैं और भावनाओं से चलते हैं। यहां भाजपा ने भी गांधी जी की तरह राजनीति के मूल तत्व की अवहेलना की।
कथित ‘विकास’ की राजनीति का नारा और दंभ दिखाना कश्मीर के लिए अतिरिक्त हास्यास्पद था। वहां सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, वैधानिक स्थितियों में किसी बदलाव के बिना विकास की चर्चा वैसे भी भोलापन था। बिगड़े साहबजादे की पॉकेट मनी बढ़ाकर उसे सुधारने की दुराशा जैसा। भारत से ‘अलग’ दिखने वाली मानसिकता वाले कश्मीरियों की आर्थिक उन्नति का फल यह कभी न होगा कि उसे भारत से मुहब्बत हो जाएगी। ऐसा सोचना तो वही पुरानी अदूरदर्शी मानसिकता है जिसकी जिन्ना ने खुलकर हंसी उड़ाई थी। जिन्ना ने कहा था कि ये ‘हिंदू कांग्रेस, गांधी, लाला-बनिये समझते हैं कि पद, सत्ता-भागीदारी, सुख-सुविधा आदि से मुसलमानों को जीता जा सकता है’। उस गांधीवादी दुराशा का 1947 में भयंकर कुफल पाकर भी स्वतंत्र भारत में फिर वही दुहराया गया। पहले तो कश्मीरी मुस्लिमों को अनुच्छेद-370 का अनावश्यक उपहार दिया गया। फिर और अनुदान, विशेषाधिकार आदि देते गए। इस आशा में कि वे कृतज्ञ होंगे। सदैव विपरीत फल मिला, वही मिलता रहेगा। गांधी हों, नेहरू या कोई। वे राजनीति के नियम या मानव स्वभाव नहीं बदल सकते! जो अभी हो रहा है, वह पहले कई बार हो चुका है। उससे क्या सीखा गया? बरसों से मुफ्ती, अब्दुल्ला और विभिन्न कश्मीरी नेताओं ने बार-बार दोहराया है कि ‘कश्मीरियों की इच्छा और खुशी केवल आर्थिक उन्नति नहीं है!’ इसका दिल्ली के नेताओं ने क्या उत्तर दिया? कुछ नहीं, क्योंकि उसके लिए दिमाग पर जोर लगाना पड़ता। नए रास्ते ढूंढ़ने पड़ते। उससे कतराकर वही घिसी-पिटी मानसिकता वाला रास्ता लिया गया। पैसा दो, सेवा और खुशामद करो, बदले में प्रेम चाहो। वह नहीं मिलता, क्योंकि उग्र इस्लामी मानसिकता जानती है कि सामने वाला शांति चाहता है इसलिए वह रोज नई-नई मांगें लेकर खड़ी हो जाती है। कश्मीरी सत्ताधीशों के इस स्थाई ब्लैकमेल की काट दिल्ली के नेताओं ने आज तक नहीं निकाली। भाजपा की कल्पना थी कि उसके ‘गुड-गवर्नेंस’ से गदगद होकर कश्मीरी उसके निकट आ जाएंगे। यह वही भोली गांधीवादी कल्पना है जिससे पहले देश का विभाजन न रुका। फिर भी वही दोहराने का यही अर्थ है कि मनोबल की रस्साकशी में दिल्ली ने पहले ही हार मानी हुई है। कांग्रेस या भाजपा जम्मू-कश्मीर की सत्ता में साझेदार बनकर भी अनुच्छेद-370 को हटाने पर कुछ न कर सकीं। न जम्मू-लद्दाख को अलग राज्य बनाया। तीन साल पहले भाजपा को मिले राष्ट्रीय समर्थन और वैश्विक हालात के मद्देनजर यदि दिल्ली ने कश्मीर पर कोई सुविचारित अभियान चलाया होता तो उसकी वकत बढ़ती। अपने कौल पर टिकने से दुश्मन भी इज्जत करता है। अत: 2014 के स्पष्ट जनादेश के बाद जम्मू-कश्मीर पर भाजपा को अपनी घोषित नीतियां लागू करने का प्रयत्न करना ही चाहिए था।
आज इस्लामी स्टेट की भयावहता जगजाहिर है। दुनिया भर में जिहादी आतंकी हमलों में बढ़ोतरी हो रही है। पाकिस्तान एक विफल देश होता जा रहा है, उसकी तुलना में भारत में शांतिपूर्ण जीवन और उन्नति है। जाहिर है कि इन तथ्यों के बल पर कश्मीरी मुसलमानों को तैयार किया जा सकता था। खुला प्रयास होना चाहिए था कि उन्हें अनुच्छेद-370 से आगे देखना ही होगा। कश्मीर नीति में मूलगामी परिवर्तन का दृढ़ प्रयास निश्चित रूप से बेहतर परिणाम देता। तब राजनीति कश्मीर के व्यावहारिक नेताओं के हाथ आती। तब बाहरी सूत्रधार कमजोर होते। यह इसलिए भी संभव है, क्योंकि पाकिस्तानी कब्जे के कश्मीर में भी भारत से जुड़ने की चाह व्यक्त हुई है। कश्मीरी मुसलमानों का बड़ा हिस्सा स्वयं पाकिस्तान को पसंद नहीं करता। अत: भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के संबंध को सामान्य बनाने की कोशिश हर तरह से उपयुक्त होती, लेकिन अनुच्छेद-370 और जम्मू-लद्दाख के प्रति अपनी सर्वविदित मांगें भुलाकर भाजपा पीछे हट गई। यह संकेत था कि भाजपा में नेहरूवादी सेक्युलरिज्म की लाल-रेखा पार करने का साहस नहीं जो देश में कई समस्याओं की जड़ है। वही रेखा राजनीतिक लिटमस-परीक्षा है जिसमें विफल होने से पूरे देश में अलगाववादियों, हिंदू-विरोधियों का मनोबल बढ़ता है, मगर दिल्ली इस बुनियादी सत्य को बार-बार भूलती रही है। यह भी कि जम्मू-लद्दाख भी उसी राज्य का हिस्सा हैं जो अनुच्छेद-370 नहीं चाहते। इस गंभीर सत्य की अनदेखी क्यों होती रही है?
दुनिया की कोई ताकत कश्मीरी हिंदुओं तथा जम्मू-लद्दाख की जनता के भी अधिकारों और भावनाओं का तर्क नहीं झुठला सकती। अत: कश्मीरी मुसलमानों की संकीर्ण जिद को कमजोर करना जरूरी था। आखिर एक ‘अस्थाई’ अनुच्छेद को स्थाई बनाए रखना केवल बलपूर्वक हो सकता है। यानी बात केवल बल और मनोबल की है जिसमें दिल्ली कमजोर साबित होती रही है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, यह संविधान में भी आरंभ से है। फिर केंद्र का मुख्य काम देश की सुरक्षा मजबूत करना होता है। यदि लोकसभा चुनाव में जीत के बाद भाजपा अनुच्छेद-370 पर कोई कदम उठाती तो उस समय दुनिया के देश भी इसमें हाथ डालना बेकार मानते। वैसे भी दुनिया के नेतागण किसी देश के दृढ़ निश्चयी नेतृत्व से उलझने के बजाय सुलह-समझौता रखना उपयुक्त समझते हैं। तमाम देश इसके उदाहरण हैं। राजनीति हर हाल में शक्ति-राजनीति होती है। शक्ति का दबाव और प्रयोग राजनीति का अनिवार्य तत्व है। जो इसे बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से कर सके वही सफल होता है। जो इससे कतराए वह उदार, महात्मा आदि भले कहला ले, राजनेता तो विफल ही रहता है। कोई आडंबर इसे ढंक नहीं सकता। एक बात साफ है। भारत के नेतागण पिछले सौ साल से इस्लामी मुद्दों से कतरा कर राजनीति साधने की कोशिश करते रहे हैं, जबकि वही इस देश की मूल गांठ है। उससे बच कर कार्यक्रम बनाने की प्रवृत्ति से ही भारत की किरकिरी होती रही है।
[ लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं स्तंभकार हैं ]