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नीतिगत अपंगता का यथार्थ

By Edited By: Published: Sat, 09 Jun 2012 09:27 AM (IST)Updated: Sat, 09 Jun 2012 09:31 AM (IST)
नीतिगत अपंगता का यथार्थ

एक अखबार में छपी खबर के अनुसार भारत अब मित्तल की वरीयता सूची में नहीं रह गया है। कुछ सप्ताह पहले पंजाब में बठिंडा रिफाइनरी के उद्घाटन पर प्रधानमंत्री के साथ मंच साझा करते स्टील किंग को देखकर मैं इसका कारण जानने को उत्सुक था। मैंने रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा। इसके सब हेड में ही स्पष्ट लिखा था कि केंद्र सरकार की नीतिगत अपंगता के कारण स्टील किंग धीमे चलने को मजबूर हुए। खबर में मित्तल ने कहा था कि मेरी सफलता शेयरधारकों को लाभांश देने पर निर्भर करती है। अगर फैसले लेने में देरी हो रही है तो हम निवेश करने में भी धीमे चलेंगे। तो यह है सच्चाई। मित्तल यहां भारत के विकास में सहयोग देने के लिए नहीं, अपने अंशधारकों को लाभांश देने के इच्छुक हैं। कुछ दिनों बाद एक और दिलचस्प खबर आई-21,500 करोड़ रुपये की बठिंडा रिफाइनरी से राज्य को कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं होगा। मैं सोच में पड़ गया। अब आप मुझसे पूछेंगे कि इस खबर में नीतिगत अपंगता कहां है? अकसर प्रयोग किए जाने वाले जुमले नीतिगत अपंगता का वास्तविक अर्थ क्या है, यह समझने के लिए मैं इस उदाहरण का इस्तेमाल कर रहा हूं। सभी बड़े अर्थशास्त्री और नीति निर्माता नीतिगत अपंगता की बात करते हैं। और मुझे हैरानी होती है कि कई साल पहले जब बठिंडा रिफाइनरी को अनुमति मिली तब मित्तल ने नीतिगत अपंगता की शिकायत क्यों नहीं की? 2007 में जब मित्तल एचपीसीएल-मित्तल एनर्जी लिमिटेड के बोर्ड में शामिल हुए तो उन्होंने अधिक वित्तीय छूट की मांग रखी। और वे उन्हें मिल भी गईं। अब हम उन तोहफों पर नजर डालें जो पंजाब सरकार ने इस परियोजना को दिए। मित्तल के बोर्ड में आने से पहले ही राज्य सरकार ने परियोजना के लिए बठिंडा जिले के फुलकारी, कनकवाल, रामसरा और रमन गांवों में 2000 एकड़ जमीन अधिग्रहीत की। रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक तंगी झेल रहे राज्य ने 1250 करोड़ रुपये का ब्याज रहित ऋण मुहैया कराया, जिसकी वसूली पांच सालों में तय की गई। इसके अलावा रिफाइनरी को 15 वर्षो के लिए कर मुक्त घोषित कर दिया। यह उदारता क्यों? इससे भी बड़ा झटका यह है कि ये छूट देने के बाद भी परियोजना से राज्य को कोई लाभ नहीं हो रहा है। कहा जा रहा है कि सारा लाभ मित्तल और उनके शेयरधारकों को हो रहा है। एक और खबर देखें-कैग को दिल्ली एयरपोर्ट करार में हजारों करोड़ के घपले का अंदेशा है। हवाई अड्डे के आधुनिकीकरण के तहत निजी साझेदार दिल्ली इंटरनेशनल एयरपोर्ट लि. को सौ रुपये की लीज पर साठ साल के लिए पांच हजार एकड़ जमीन दे दी गई। इसके अलावा, कंपनी को यात्रियों से विकास खर्च वसूलने का अधिकार भी दे दिया गया। इस अकेली परियोजना में जितनी राशि की छूट दी गई वह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून और मनरेगा, दोनों में खर्च होने वाली लागत की भरपाई कर सकती है। दिलचस्प बात यह है कि आर्थिक तंगहाली के दौर में तमाम प्रयास मितव्ययिता बरतने के किए जाते हैं। सरल शब्दों में इसका अर्थ है सामाजिक क्षेत्र को मिलने वाली सहायता बंद करने की कोशिश। दूसरे शब्दों में गरीब और भूखे लोगों को मिलने वाली सब्सिडी में भारी कटौती की योजना, किंतु उद्योगों और औद्योगिक घरानों को मिलने वाली सब्सिडी का कोई जिक्र नहीं होता, जो कुशलता में सुधार के नाम पर दी जाती है। कितनी विचित्र बात है कि भारत में रोजाना 32 करोड़ लोगों के भूखे सोने और पिछले कुछ वर्षो में 2,50,000 किसानों द्वारा आत्महत्या करने पर कभी नीतिगत अपंगता की बात नहीं उठी, किंतु जब औद्योगिक घरानों को मिलने वाली भारी भरकम छूट में जरा भी कटौती की बात होती है तो नीतिगत अपंगता का हल्ला मचना शुरू हो जाता है। अगर राष्ट्र वित्तीय छूट देता है तो औद्योगिक वातावरण शानदार होता है, किंतु जब राष्ट्र छूट देने में असमर्थ हो जाए तो नीतिगत निष्क्रियता शुरू हो जाती है। नीतिगत निष्क्रियता का रोना रोने वाले लक्ष्मी मित्तल अकेले व्यक्ति नहीं हैं। टाटा, आदित्य बिड़ला, महिंद्रा, रिलायंस, गोदरेज समूहों की हालिया वर्षो में विदेशों में हुए कुल निवेश में साठ फीसदी हिस्सेदारी है। जनवरी से अप्रैल 2012 के चार माह के दौरान ही भारतीय कंपनियों ने विदेश में 8.25 अरब डॉलर (42,000 करोड़ रुपये से ऊपर) निवेश किया है। इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के अनुसार, भारतीय कंपनियां बड़ी तेजी से विदेश में विस्तार कर रही हैं। ये सौदे केवल अमेरिका और यूरोप में पैर जमाने के लिए ही नहीं किए जा रहे हैं, बल्कि पश्चिम एशिया, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में भी किए जा रहे हैं। भारत में नीतिगत अपंगता और कामकाज में आने वाली बाधाओं के कारण ये कंपनियां विदेश में निवेश नहीं कर रही हैं, बल्कि ऐसा मेजबान देश में मिलने वाले अवसरों को भुनाने तथा सस्ते श्रम व प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों का लाभ उठाने के लिए किया जा रहा है, ताकि वे मोटा मुनाफा कमा सकें। केवल अप्रैल 2012 में ही भारतीय कंपनियों ने विदेश में 2.67 अरब डॉलर के 478 सौदे कर डाले। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, अप्रैल 2007 से 2011 तक भारतीय कंपनियों ने विदेश में 5.8 लाख करोड़ रुपये निवेश किए हैं। इनमें से तीन लाख करोड़ रुपये का निवेश तो वित्तीय वर्ष 2010-11 में ही किया गया। जब तक भारत में सब बढि़या चल रहा था, इन कंपनियों ने मोटा मुनाफा कमाया। जब राष्ट्र इन कंपनियों को मिलने वाली भारी-भरकम छूट देने में असमर्थ होने लगा तो भारी नगदी लिए बैठी इन कंपनियों ने विदेश का रुख करने में देर नहीं की। विदेशों में निवेश में तब बाढ़ आई जब भारतीय रिजर्व बैंक ने निवेश मानकों को सरल करते हुए कंपनियों और व्यक्तियों को विदेशों में सौदे करने के लिए अपने मूल्यांकन के 200 प्रतिशत तक की छूट दे दी। जैसे यह ही काफी न हो, और भी छूट दिए जाने की तैयारी है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विदेश में खरीदारी के लिए विदेशी मुद्रा के बाहर जाने से ही हमारे विदेशी मुद्रा भंडार पर भार पड़ा है और रुपये का मूल्य गिरा है। भारतीय कंपनियों के बाहर जाने में नीतिगत अपंगता या लालफीताशाही की कोई भूमिका नहीं है। इसमें निहित संदेश बिल्कुल स्पष्ट है। उद्योगों को मुनाफा कमाने की छूट मिलनी चाहिए और इसकी राह में जो भी बाधाएं आएं उन्हें दूर करना चाहिए। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो आप पर नीतिगत अपंगता का आरोप मढ़ दिया जाएगा। (देविंदर शर्मा: लेखक आर्थिक नीतियों के विश्लेषक हैं)

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