नए जनरल की चुनौतियां
31 मई को औपचारिक समारोह में जनरल वीके सिंह ने जनरल बिक्रम सिंह को सेनाध्यक्ष का कार्यभार सौंप दिया। इस प्रकार बिक्रम सिंह देश के 25वें सेनाध्यक्ष बन गए। जनरल वीके सिंह के साहसिक कार्यो और बयानों से उपजे हालात में इस हस्तांतरण को सुगम और आसान नहीं कहा जा सकता। जनरल बिक्रम सिंह के सामने अनेक व्यक्तिगत और पेशेगत चुनौतियां हैं, जिनका उन्हें तुरंत सामना करना होगा। बिक्रम सिंह ने मार्च 1972 में सिख लाइट इंफेंट्री से अपना कॅरियर शुरू किया था। भारतीय सेना की विशिष्ट रेजीमेंटों में शुमार सिख लाइट इंफेंट्री गर्व से अपना सीना चौड़ा कर सकती है कि हाल के कुछ वर्षो में उसने भारतीय सेना को दो अध्यक्ष दिए हैं। बिक्रम सिंह के अलावा 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान भारत के सेनाध्यक्ष रहे जनरल वेद मलिक भी इसी इंफेंट्री से संबंधित थे। आधुनिक सिख एलआइ का गठन 1944 में हुआ था और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बर्मा अभियान में इसने शौर्य व बलिदान की अप्रतिम गाथा लिखकर अपना नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज करा लिया था। 1947 के बाद इस रेजीमेंट को देश के प्रत्येक युद्धक अभियान में भेजा गया। नए सैन्य प्रमुख में भी साहस और शौर्य की यही परंपरा रची-बसी है। यही भावना एक संस्थान के रूप में सेना में कूट-कूट कर समाई है और पिछले दो सौ वर्षो में सेना की शान रही है। नए सैन्य प्रमुख के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो सेना को युद्ध के लिए हरदम तैयार रखने की है। सेना की यह खूबी पिछले एक दशक से भी अधिक समय से छीजती जा रही है। जनरल वीके सिंह ने प्रधानमंत्री के नाम लिखे पत्र में, जिसे लीक कर दिया गया था, पहले ही सेना में साजोसामान की कमी की ओर ध्यान खींचा था। इसके अलावा बिक्रम सिंह के सामने दो और बड़े मुद्दे हैं। एक तो सैन्य-नागरिक संबंधों की कटुता खत्म करना, जैसाकि रक्षामंत्री खुद भी कह चुके हैं और दूसरे वीके सिंह द्वारा उठाए गए तमाम मुद्दों पर ध्यान देना और एक निश्चित समयसीमा में उन्हें तार्किक परिणति तक पहुंचाना। बिक्रम सिंह का मीडिया को दिया गया पहला बयान उत्साहवर्धक और अपेक्षित लाइन पर था। समझदारी का परिचय देते हुए नए सेनाध्याक्ष ने अपने पूर्ववर्ती की कार्रवाइयों पर टिप्पणी करने से मना कर दिया, जबकि वीके सिंह ने ईस्टर्न कमांड के खिलाफ कुछ आरोप लगाए थे। स्मरण रहे कि सेनाध्यक्ष का पद संभालने से पहले ईस्टर्न कमांड बिक्रम सिंह के ही अधीन थी। इन आरोपों का संदर्भ था लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सुहाग की कोलकाता में सेना कमांडर के रूप में तैनाती को जनरल वीके सिंह द्वारा लंबित रखना। खुद अपने से जुड़े इस मुद्दे पर बिक्रम सिंह की प्रतिक्रिया उनकी कुशाग्रता और नेतृत्व क्षमता का बड़ा परीक्षण सिद्ध होगी। वीके सिंह के सेवाकाल में जो अनेक विवाद खड़े हुए उनका केंद्र बिंदु था जनरल का जन्मतिथि विवाद। आम धारणा है कि यह साजिश कुछ पूर्व सैन्य प्रमुखों ने की थी ताकि जनरल बिक्रम सिंह 2012 के मध्य तक सेनाध्यक्ष बन सकें। इस संदर्भ में पक्षधरता का मुद्दा स्वत: उठ खड़ा होता है, जो मेरी नजर में दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत में सरकारी फैसलों में पारदर्शिता के दखल की विद्यमान प्रवृत्ति को देखते हुए जनरल बिक्रम सिंह के खिलाफ दो आरोप लगाए गए हैं और ये न्यायालय तक भी पहुंचे हैं। पहला मामला है जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों से मुठभेड़ और दूसरे का संबंध संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियान से है। दोनों ही मामलों में जनरल बिक्रम सिंह पर अपनी कमांड की विफलता के आरोप लगे हैं। नए सेनाध्यक्ष के नाम पर तैनाती से पहले ही जब बट्टा लगा हो तो यह बहुत स्वाभाविक हो जाता है कि उनके क्रियाकलापों पर मीडिया की कड़ी नजर रहेगी, खासतौर पर उन मुद्दों पर जिनका संदर्भ वीके सिंह से जुड़ा हुआ हो। ऐसे में बिक्रम सिंह के मुंह से यह सुनना सुखद लगा कि किसी भी मुद्दे पर लीपापोती नहीं की जाएगी और सभी मामलों को कायदे-कानून के अनुसार निपटाया जाएगा। बिक्रम सिंह का पीछे देखने के बजाए आगे देखने का संकल्प सराहनीय है। भारतीय सेना का हौसला बुलंद है और वह उच्च स्तर पर इस तरह के आक्षेपों से उबर कर आगे बढ़ सकती है, किंतु उनके सामने कुछ ऐसी चुनौतियां हैं, जो दृष्टिगोचर नहीं हो रही हैं। उनके पूर्ववर्ती सेनाध्यक्ष ने अनेक मुद्दे उठा रखे हैं, जिनका समाधान होने तक बिक्रम सिंह चैन की सांस नहीं ले पाएंगे। भ्रष्टाचार के अपयश के बीच आदर्श हाउसिंग सोसाइटी से जुड़े आरोप और फिर सुकना भूमि घोटाले और इन सबके बाद सैन्य इकाई में कथित लघु-विद्रोह तक आंतरिक चुनौतियां बहुआयामी और जटिल हैं। दस लाख से अधिक सैनिकों वाली विशाल सेना में आंतरिक संतुलन कायम रखने के लिए अपने वरिष्ठ अधिकारियों को संतुष्ट रखना सबसे प्रमुख चुनौती है और यहां जनरल बिक्त्रम सिंह के हाथ बंधे हुए नजर आते हैं, किंतु उम्मीद है कि सेना का आंतरिक लचीलापन सुनिश्चित करेगा कि व्यक्तिगत या पंथिक हितों पर सामूहित हितों को वरीयता मिलेगी। जनरल वीके सिंह के कार्यकाल में बड़ी चुनौतियों और उच्च रक्षा प्रबंधन के बीच की चौड़ी खाई का नतीजा था कि राजनीतिक प्रतिष्ठान, जिसमें रक्षामंत्री भी शामिल हैं, ने राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े गंभीर मसलों को भी हलका और कमजोर बना दिया था। रक्षा उत्पादन और खरीद में अकुशलता और भ्रष्टाचार से कोई इन्कार नहीं कर सकता। टाट्रा घोटाला इन्हीं अक्षमताओं और भ्रष्टाचार का परिणाम है। इसके अलावा सेना के आधुनिकीकरण में पैसे की कमी ने भी दशकों से सेना की क्षमताओं और तैयारियों में घुन लगा रखा है। इसके समाधान के लिए हमें जनप्रतिनिधियों से नई पहल की उम्मीद करनी होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय सेना में सुधार पर राष्ट्रीय टेलीविजन की अपेक्षा संसद में अधिक बहस देखने को मिलेंगी। जनरल बिक्रम सिंह आपको शुभकामनाएं। आपके रास्ते में केले के इतने छिलके पड़े हैं कि आपको बेहद सावधानी से चलना होगा। (सी. उदयभाष्कर: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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