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गंगा के प्रति शून्य संवेदना

By Edited By: Published: Mon, 19 Mar 2012 10:14 AM (IST)Updated: Mon, 19 Mar 2012 10:19 AM (IST)
गंगा के प्रति शून्य संवेदना

गंगा भारतीय संस्कृति, सभ्यता, अस्मिता का प्रतीक है। भारत की दो-तिहाई खेती का प्राणाधार है। उसे राष्ट्रीय नदी घोषित करने की जरूरत क्या थी? पहली बात तो यह कि हमने गंगा के लिए सिर्फ राष्ट्रीय नदी का दर्जा नहीं मांगा था, हमने तो गंगा को राष्ट्रीय नदी प्रतीक घोषित करने की मांग की थी। एक ऐसी ढांचागत व्यवस्था की मांग की थी, ताकि गंगा संरक्षण की जवाबदेही राज्य व केंद्र के बीच में न फंसे। हमने चाहा था कि गंगा संरक्षण के कार्य व निर्णय भिन्न विभागों के बीच तालमेल के अभाव व सरकारों की टालमटोल से मुक्त हों। उन्होंने सिर्फ राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिया और एक प्राधिकरण बनाकर इतिश्री कर ली। अफसोस यह भी है कि गंगा हमारे प्रधानमंत्री की प्राथमिकता नहीं बन सकी। जिस संवेदना, संजीदगी व तत्परता के साथ मनमोहन सिंह ने उसे राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिया था, वह सब पिछले तीन साल के दौरान गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की कार्यप्रणाली व शैली, दोनों में ही कहीं दिखाई नहीं पड़ने से मेरा विश्वास आहत हुआ है। गंगा प्राधिकरण का सदस्य बनना मैंने इसीलिए स्वीकार किया था कि वहां रहकर सरकार और समाज के बीच पुल बनाकर साझा जवाबदेही का कम से कम अहसास तो सुनिश्चित करा ही सकूंगा। उसके वैज्ञानिक पहलुओं व सामाजिक सरोकारों की अनदेखी न हो, ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए प्राधिकरण को सावधान कर सकूंगा। गंगा को गंगा बनाने वाली छोटी-छोटी धाराओं, जलसंरचनाओं, वनस्पति, जीव, रेत व पत्थरों के संरक्षण को तवज्जो देने की बात उठा सकूंगा। गंगा पर आश्रित मल्लाहों, मछुआरों, तीर्थ पंडा-पुरोहितों व खेतिहरों के अधिकारों की रक्षा हो सकेगी, किंतु मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि बतौर विशेषज्ञ सदस्य हमारे बार-बार कहने के बावजूद प्राधिकरण के अफसरों ने इन तमाम संजीदा मसलों को बैठकों के एजेंडे पर लाने की जरूरत ही नहीं समझी। हम कहते रहे कि जब तक गंगा रक्षा के लिए कुछ सिद्धांतों को वैधानिक मान्यता नहीं प्रदान नहीं कर दी जाती, गंगा मास्टर प्लान-2020 बनकर मंजूर नहीं हो जाता, तब तक किसी परियोजना को पैसा न दिया जाए। सिद्धंात बनाया नहीं, काम तय कर लिए गए। कर्ज भी ले लिया। उन्होंने हमारी राय की उपेक्षा की। हम कानून व नीति की मंाग करते रहे, वे हमारी जानकारी व राय के बगैर 15 हजार करोड़ की परियोजनाओं को मंजूर करने के रास्ते बनाते रहे। इन परियोजनाओं में निर्माण, मशीनों की खरीददारी और ठेकेदारी के अलावा कुछ नहीं है। हमने सोचा था कि प्राधिकरण पूर्व में गंगा कार्ययोजना की गलतियों से सीखेगा। जो कुछ गंगा कार्ययोजना में हुआ, आज स्थिति उससे भिन्न क्या है? बैठकों में आए राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों का लक्ष्य भी सिर्फ 15 हजार करोड़ में से अधिकांश हथिया ले जाने से ज्यादा कुछ नहीं दिखाई दे रहा। यदि सिर्फ घाट व सीढि़यां बनाने, व एसटीपी के लिए पैसा बांटने के लिए ही परियोजनाओं की मंजूरी किसी प्राधिकरण का मुख्य कार्य हो जाए तो उसमें बने रहने का क्या औचित्य है? बतौर प्राधिकरण सदस्य हम सरकार से कुछ नहीं करा सके। करते भी तो कैसे? बतौर विशेषज्ञ जो हमारी भूमिका थी उसे सुनने को कोई राजी ही नहीं था। पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कम से कम संवाद में तो रुचि दिखाते थे, नई पर्यावरण मंत्री ने तो वह रुचि दिखानी भी बंद कर दी है। पिछले तीन सालों में गंगा के मूल में बांध परियोजनाओं को रद कराने, गंगा दशहरा से गंगा सप्ताह मनाने का शासकीय निर्देश जारी कराने, मास्टर प्लान बनाने के लिए विदेशी कंपनी को दिया गया ठेका रद कराने से लेकर जो कुछ थोड़ा-बहुत काम हम करा सके, वह गंगा प्राधिकरण का सदस्य होने के नाते नहीं, गंगा लोकप्रेमी होने के नाते करा सके। यह कैसे संभव है कि लोग गंगा की लड़ाई में मरते रहें और हम पद पर बने रहें? गंगा एक्सप्रेस वे के भूमि अधिग्रहण के विरोध में यूपी के रायबरेली व प्रतापगढ़ में कई लोगों की जान चली गई। मिर्जापुर के किसानों को उत्पीड़न सहना पड़ा। मंदाकिनी पर बांध व विस्फोट के विरोध में सुशीला भंडारी को जेल में ठूंस दिया गया। डॉलफिन रिजर्व के नाम पर बिहार के मछुआरों से उनका हक छीन लिया गया। शासन-प्रशासन ने स्वामी निगमानंद के प्राणों की आहूति लेकर ही दम लिया। दो महीने से अधिक समय से अनशन पर बैठे स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को उनकी मांग के प्रति आश्वस्त करना तो दूर, सरकार के किसी प्रतिनिधि ने उनसे बात तक करने की जरूरत नहीं समझी। यह निष्ठुरता की हद है। गंगा प्राधिकरण की कार्यप्रणाली से असंतुष्ट होने के अलावा हमारे इस्तीफे का यह एक अन्य प्रमुख कारण है। प्रधानमंत्री ने इस्तीफा स्वीकार करने से इंकार कर दिया है। यदि सरकार चाहती है कि समाज व प्रकृति के प्रतिनिधि सरकार के साथ मिलकर गंगा कार्य कर सकें, तो गंगा प्राधिकरण के अध्यक्ष के तौर पर प्रधानमत्री पहल करें। सबसे पहले प्रधानमंत्री खुद अथवा अपने प्रतिनिधि के रूप में गंगा प्राधिकरण के सदस्य केंद्रीय मंत्री में से किसी को जिम्मेदारी सौंपें कि वह स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद को उनकी मांग के प्रति आश्वस्त कर उनका जीवन बचाएं। 22 नवंबर, 2011 को जिस एजेंडे के साथ प्राधिकरण की आपात बैठक बुलाने का अनुरोध सात गंगा विशेषज्ञ सदस्यों ने किया था, उसे तत्काल बुलाया जाए। पूर्व की दो बैठकों में लिए गए सभी निर्णयों पर तत्काल कार्रवाई कर रिपोर्ट सदस्यों को सौंपी जाए। दरअसल, कुछ संशोधनों के साथ प्राधिकरण को पुनर्गठित किए जाने की जरूरत है। एक ऐसा सशक्त कानून व कार्य ढांचा बनाने की मांग हम पहले दिन से कर रहे हैं ताकि गंगा की अविरलता और निर्मलता सुनिश्चित हो सके। [राजेंद्र सिंह: लेखक मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सामाजिक कार्यकर्ता हैं]

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